रेहान फ़ज़ल
बीबीसी संवाददाता
अपनी मृत्यु से एक दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पहले सरसंघचालक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने गोलवलकर को कागज़ की एक चिट पकड़ाई। जिस पर लिखा था, "इससे पहले कि तुम मेरे शरीर को डॉक्टरों के हवाले करो, मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि अबसे संगठन को चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी तुम्हारी होगी।
शोक के 13 दिनों बाद जब 3 जुलाई, 1940 को आरएसएस के चोटी के नेताओं की नागपुर की बैठक में हेडगेवार की इस इच्छा को सार्वजनिक रूप से घोषित किया गया तो वहां मौजूद सभी नेता अवाक रह गए। आरएसएस पर बहुत प्रमाणिक किताब लिखने वाले वॉल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले अपनी किताब 'द ब्रदरहुड इन सैफ़रन' में लिखते हैं, आरएसएस के नेता उम्मीद कर रहे थे कि हेडगेवार अपने उत्तराधिकारी के तौर पर एक अनुभवी और वरिष्ठ शख़्स को चुनेंगे।
उस ज़माने में अप्पाजी जोशी, हेडगेवार के दाहिने हाथ समझे जाते थे। क़यास यही लगाए जा रहे थे कि वे ही डॉक्टर साहब के वारिस होंगे, लेकिन उन्होंने सबको ग़लत साबित किया। बाद में कई हलकों में कहा गया कि गुरु गोलवलकर को उत्तराधिकारी चुनने में अन्य कारणों के अलावा एक कारण ये भी था कि गुरु गोलवलकर अंग्रेज़ी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे।
संघ को राजनीति से दूर रहने की सलाह 19 फ़रवरी, 1906 को रामटेक में जन्मे गोलवलकर की निजी ज़िंदगी के बारे में सार्वजनिक रूप से बहुत कम सामग्री उपलब्ध है। 1929 में अपने एक साथी बाबू राव तेलंग को लिखे एक पत्र में उन्होंने अपनी निजी ज़िंदगी की एक झलक देते हुए लिखा था कि 'वो एक ग़ुस्सैल पिता की एक रुष्ट संतान हैं और उनकी धमनियों में शुद्ध रक्त प्रवाहित हो रहा है।' वो तेलंग को ये भी बताते हैं कि किस तरह बीमारी के दौरान उन्होंने सिगरेट पीना शुरू कर दिया था और किस तरह नागपुर दंगों के दौरान उन्होंने अपने हाथों का इस्तेमाल किया था।
उन पर एक किताब 'एमएस गोलवलकर, द आरएसएस एंड इंडिया' लिखने वाले और हैदराबाद विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर डॉक्टर ज्योतिर्मय शर्मा बताते हैं- नागपुर में अपने हाथों का इस्तेमाल तो कई लोगों ने किया था। अगर आप उनकी विचारधारा से सहमत हैं तो आप कहेंगे कि वो 'नॉन गांधियन क्रांतिकारी' थे।
अगर आप उनसे सहमत नहीं है तो आप उन्हें दंगाई कहेंगे। इस तरह तो सावरकर ने भी 9 साल की उम्र में मस्जिद के ऊपर पत्थर मारे थे। मेरे विचार में इन सब चीज़ों का इतना महत्व नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने राजनीति को निम्न समझा। "महाभारत का एक श्लोक है जिसे वो और उनके बाद के कई सरसंघचालक दोहराया करते थे अपने सार्वजनिक भाषणों में कि राजनीति वैश्याओं का धर्म है।
उन्होंने संघ के सदस्यों को राजनीति से दूर रहने की सलाह दी। यह अलग बात है कि बाद के सरसंघचालकों ने देश की राजनीति को 'रिमोट कंट्रोल' से नियंत्रित करने में कोई गुरेज़ नहीं किया। दुख में भी अविचलित कहा जाता है कि आरएसएस के सभी सरसंघचालकों में उन पर सदाशिव गोलवलकर की छाप सबसे अधिक है। संघ के हलकों में उन्हें अभी तक स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक विरासत के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में पेश किया जाता है। इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख और वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय को उनसे कई बार मिलने का मौका मिला था।
रामबहादुर राय याद करते हैं- "एक बार मैंने उन्हें विरोध में एक पत्र लिखा था। गुरुजी पत्रों के जवाब देते थे। जब वे दौरे पर रहते थे जिसे आरएसएस की भाषा में प्रवास कहते थे, वो मुख्यालय लौट कर हर पत्र का उत्तर देते थे। नागपुर में सीढ़ियां चढ़ कर सरसंघचालक का एक कमरा होता था। डॉक्टर आवाजी थट्टे उनके सचिव हुआ करते थे जो पेशे से डॉक्टर थे। पहली बार मैंने गुरुजी को 1968 में देखा था जब जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय की हत्या हो गई थी।
गुरुजी इलाहाबाद में थे। वहां से वो सीधे मुग़लसराय उस स्थान पर गए जहां दीनदयाल उपाध्याय का शव पोस्टमॉर्टम के लिए रखा हुआ था। मैंने देखा कि वहां पर सब लोग रो गा रहे थे लेकिन वे अविचलित थे।
भारत छोड़ो आंदोलन से गोलवलकर की दूरी
गुरु गोलवलकर के कार्यकाल का सबसे विवादित फ़ैसला था 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से संघ को पूरी तरह से अलग-थलग रखना। उनके इस फ़ैसले को लेकर संघ की आजतक आलोचना की जाती है, लेकिन इस फ़ैसले के पीछे उनके अपने तर्क थे।
मशहूर किताब 'आरएसएस-आइकन्स ऑफ इंडियन राइट' लिखने वाले नीलांजन मुखोपाध्याय बताते हैं- "मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि 1930-31 में भी जब गांधी ने दांडी यात्रा के बाद असहयोग आंदोलन चलाया था, उसमें भी हेडगेवार ने आरएसएस को हिस्सा लेने की अनुमति नहीं दी थी।
उन्होंने कहा था कि अगर स्वयंसेवक चाहें तो अपनी निजी हैसियत से उस आंदोलन में शामिल हो सकते थे। उन्होंने खुद जंगल सत्याग्रह में भाग लेने से पहले सरसंघचालक का पद छोड़ दिया था और अपनी जगह परांजपे को कार्यवाहक सरसंघचालक बना दिया था।
गोलवलकर ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग न लेने का फ़ैसला उसी तर्ज़ पर लिया था। उपनिवेषवाद का विरोध करना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्य लक्ष्य नहीं था। वे चाहते थे कि वे हिन्दू समाज को मज़बूत करें ताकि उनकी नज़रों में मुसलमानों ने हिन्दू समाज का जो अपमान किया, उसका वो बदला ले सके।
उनका मानना था कि अगर हम अंग्रेज़ों को किसी कारण से नाराज़ करेंगे तो उनके हिन्दू ध्रुवीकरण के उद्देश्य पर आंच आएगी और अंग्रेज़ उनके ख़िलाफ़ हो जाएंगे और मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दुओं को खड़ा करने की उनकी मुहिम को धक्का लगेगा।
गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध
आरएसएस के अस्तित्व पर सबसे बड़ा संकट तब आया जब गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गोलवलकर उस समय चेन्नई (तब मद्रास) में थे जब गांधीजी की हत्या का समाचार उन तक पहुंचा। सीपी भिषीकर गोलवलकर की जीवनी में लिखते हैं- उस समय गोलवलकर के हाथ में चाय का प्याला था, जब किसी ने उन्हें गांधी की हत्या का समचार दिया।
चाय का प्याला रखने के बाद गोलवलकर बहुत समय तक कुछ भी नहीं बोले। फिर उनके मुंह से एक वाक्य निकला, 'कितना बड़ा दुर्भाग्य है इस देश का!' इसके बाद उन्होंने अपना बाक़ी का दौरा रद्द कर दिया और पंडित नेहरू, सरदार पटेल को संवेदना का तार भेज कर वापस नागपुर आ गए।'
गोडसे चाहते थे संघ और सावरकर को जोड़ना
1 फरवरी 1948 की आधी रात को नागपुर पुलिस ने गुरु गोलवलकर को गांधी की हत्या का षड्यंत्र रचने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया। पुलिस जीप की तरफ़ जाते हुए उन्होंने अपने समर्थकों से कहा था- 'संदेह के बादल जल्द ही छंट जाएंगे और हम बिना किसी दाग़ के बाहर आएंगे। उस बीच उनके एक-एक सहयोगी भय्याजी दानी ने आरएसएस की सभी शाखाओं को तार भेजा- 'गुरुजी गिरफ़्तार। हर कीमत पर शांत रहें।'छ: महीने बाद आरएसएस से प्रतिबंध हटा लिया गया और गोलवलकर रिहा हो गए, लेकिन इस तथ्य ने आरएसएस को बहुत नुक़सान पहुंचाया कि एक समय नाथूराम गोडसे आरएसएस के सदस्य हुआ करते थे।
ज्योतिर्मय शर्मा बताते हैं- 'गोडसे आरएसएस से निकल चुके थे और वे सावरकर और गोलवलकर के बीच एक तरह का सामंजस्य बैठाने की कोशिश कर रहे थे। मुश्किल ये थी कि सावरकर तीस के दशक के बाद हिन्दुओं का नेता बनने के लिए तैयार थे' 'गोलवलकर का मत था कि सारा देश हिन्दू है तो आप हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकते हैं दूसरी बात ये थी कि सावरकर का मत था कि बिना राजनीति के कोई भी चीज़ संभव नहीं है जबकि गोलवलकर जब तक रहे संघ का यही मत रहा कि उसके लोग राजनीति में अपने हाथ गंदे नहीं करेंगे।
प्रतिबंध के दौरान संघ का साहसपूर्ण नेतृत्व
जेल से बाहर आने के बाद गोलवलकर ने संघ के संगठन के आधार को विस्तार देने का बीड़ा उठाया। राम बहादुर राय बताते हैं- प्रतिबंध वाला समय सचमुच संघ के लिए जीवन-मरण का प्रश्न था। उस समय संघ के विरोध में वातावरण जागा था। कांग्रेस,
समाजवादी और कम्यूनिस्ट में ज़्यादातर मानते थे कि गांधीजी की हत्या संघ के कारण हुई है। इसलिए संघ के कार्यालयों पर बहुत हमले हुए। एक घटना गुरुजी से भी संबंधित है। उनकी गिरफ़्तारी से पहले जहां वे रहते थे, वहां भारी हमले का अंदेशा था।
लोगों ने कहा कि आप ये स्थान छोड़ दीजिए। छिपने के लिए दूसरे स्थान पर चले जाइए। परंतु उन्होंने ने कहा कि वो भागेंगे नहीं। लेकिन हमले से पहले ही उनकी गिरफ़्तारी हो गई। सरदार पटेल को भी जांच के बाद समझ में आया कि गांधी की हत्या में संघ का हाथ नहीं था। उन्होने नेहरू को समझाया और जुलाई 1949 को संघ से प्रतिबंध उठा लिया गया। इस बीच गुरुजी ने संघ का बहुत साहसपूर्ण नेतृत्व किया।
मुसलमानों के धुर विरोधी
गोलवलकर की सबसे बड़ी आलोचना हुई मुसलमानों के उनके ज़बरदस्त विरोध के कारण। आख़िर गोलवलकर के मुस्लिम विरोध के पीछे मूल आधार क्या था? इस सवाल पर ज्योतिर्मय शर्मा का जवाब था- 'एक तो ये कि वो हमसे अलग हैं। इस्लाम का जन्म हिन्दुस्तान में नहीं हुआ। ये धरती सिर्फ़ हमारी है। सावरकर का जो मातृभूमि, पितृ भूमि और पुण्य भूमि वाला जो सिद्धांत है, गोलवालकर उसे मानते थे।
'गोलवलकर कहते भी थे कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं है कि मुसलमान जुमे की नमाज़ अता करें या मस्जिद बनाएं अगर वो मानें कि वे हिन्दू सभ्यता की उत्पत्ति हैं। वो ये भी कहते हैं कि भले ही आप अपना पहला नाम मुस्लिम रख ले, लेकिन सरनेम हिन्दू रखें।
सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने में भूमिका
इस बात के साक्ष्य हैं कि आज़ादी से पहले गोलवलकर ने बड़े स्तर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की योजना बनाने और भड़काने की कोशिश की थी। भारत के गृह सचिव रहे और बाद में यूगोस्लाविया में भारत के राजदूत रहे राजेश्वर दयाल अपनी आत्मकथा 'एलाइफ़ ऑफ़ अवर टाइम' में लिखते हैं- 'जब सांप्रदायिक तनाव चरम पर था, पश्चिमी रेंज के अनुभवी और क़ाबिल उप पुलिस महानिरीक्षक बीबीएल जेटली बहुत गोपनीय तरीके से मेरे यहां स्टील के दो बड़े ट्रंक लाए।'
'उसमें राज्य के पश्चिमी ज़िलों में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के अकाट्य साक्ष्य थे। उन ट्रंकों में उस क्षेत्र के हर शहर और गांव के सटीक ब्लू-प्रिंट थे जिनमें मुस्लिम बस्तियों और उन तक पहुंचने के रास्तों को चिन्हित किया गया था।' 'मैंने मुख्य आरोपी गोलवलकर की तत्काल गिरफ़्तारी के लिए दबाव बनाया जो अभी भी उस क्षेत्र में मौजूद थे। लेकिन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने मामले को कैबिनेट के सामने रखने का फ़ैसला लिया। इस बीच गोलवलकर को मुख़बरी कर दी गई और वो इलाके से ग़ायब हो गए।'
गोलवलकर की हरिसिंह से मुलाकात
लेकिन यही गोलवलकर कश्मीर के भारत मे विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और सरदार पटेल के कहने पर महाराजा हरि सिंह से मिलने श्रीनगर जाते हैं। मशहूर पत्रकार संदीप बोमज़ाई अपने एक लेख 'डिसइक्यिलीब्रियम : वेन गोलवलकर रेसक्यूड हरि सिंह' में लिखते हैं- 'सरदार पटेल के कहने और राज्य के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन के हस्तक्षेप के बाद गोलवलकर श्रीनगर गए और 18 अक्टूबर, 1947 को उन्होंने महाराजा हरि सिंह से मुलाकात की।
पंजाब के प्रांत प्रचारक माधवराव मुले ने लिखा है कि महाराजा ने गोलवलकर से कहा- 'मेरा राज्य पूरी तरह से पाकिस्तान पर निर्भर है. कश्मीर से बाहर जाने वाले सभी रास्ते रावलपिंडी और सियालकोट से गुज़रते हैं। मेरा हवाई अड्डा लाहौर है। मैं भारत से किस तरह संबंध रख सकता हूं।
गोलवलकर ने उनसे कहा- 'आप हिन्दू राजा हैं। पाकिस्तान के साथ विलय के बाद आपकी हिन्दू प्रजा पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा। ये सही है कि आपका भारत के साथ कोई रेल, सड़क या हवाई संपर्क नहीं है, लेकिन इसको बनाया जा सकता है। आपके और जम्मू और कश्मीर के हित में अच्छा यही होगा कि आप भारत के साथ अपने राज्य का विलय कर लें।'
लालबहादुर शास्त्री से मंत्रणा
चीन के साथ युद्ध में आरएसएस ने नागरिक प्रशालन में जिस तरह की भूमिका निभाई, उससे नेहरू इतने प्रभावित हुए कि उसकी एक टुकड़ी को पूरी यूनिफ़ॉर्म और बैंड के साथ 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने दिया गया। 1965 के युद्ध में भी गोलवलकर उन चंद लोगों में से थे जिनसे तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने परामर्थ किया था।
अटलबिहारी वाजपेयी उसने इतने प्रभावित थे कि उनकी उपस्थिति में कभी कुर्सी पर न बैठकर हमेशा ज़मीन पर बैठते थे। दूसरी तरफ़ गोलवलकर के ज़्यादातर आलोचक उन्हें विभाजक की भूमिका में देखते हैं। लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा उन्हें 'नफ़रत का मसीहा' कहते हैं।
खुशवंत सिंह से मुलाकात
मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह ने गुरु गोलवलकर के साथ अपनी एक मुलाकात का जिक्र अपने एक लेख में किया है- 'जब मैं गुरु गोलवलकर के घर पहुंचा तो बाहर से आभास मिला जैसे घर के अंदर पूजा हो रही हो। दरवाज़े के बाहर करीने चप्पलें लगी हुई थीं।'
'अंदर से अगरबत्ती की सुगंध और रसोई से बर्तनों के खनकने की आवाज़ आ रही थी। एक छोटे कमरे में करीब एक दर्जन लोग सफ़ेद बुर्राक कुर्ता और धोती पहने बैठे हुए थे। उनमें से एक थे दुबले-पतले गुरु गोलवलकर। करीब 65 की उम्र।'
'ठुड्डी से लटकती हुई बेतरतीब सफ़ेद दाढ़ी और कंधे तक गिरे हुए काले बाल। पहली नज़र में वो मुझे हो ची मिन्ह के भारतीय संस्करण लगे। मैं जैसे ही उनके पैर छूने के लिए झुका, उन्होंने अपने कमज़ोर हाथों से मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए।'
'चाय के प्याले के बाद मैंने उनसे पूछा- आप मुसमानों के इतने ख़िलाफ़ क्यों हैं? गोलवलकर का जवाब था, 'मुसलमानों को सबसे पहले भूलना होगा कि उन्होंने भारत पर कभी राज किया था। दूसरे उन्हें विदेशी मुस्लिम राष्ट्रों को अपनी जन्मभूमि मानना बंद करना होगा और तीसरे उन्हें भारत की मुख्यधारा से जुड़ना होगा।'
अख़बार नहीं पढ़ते थे गोलवलकर
गोलवलकर हालांकि जानकार व्यक्ति थे लेकिन उनके बारे में मशहूर था कि वो अख़बार तक नहीं पढ़ते थे। कहा जाता है कि संघ की विचारधारा का स्रोत सावरकर हैं, लेकिन उन सिद्धांतों को विस्तार गोलवलकर ने दिया।
नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं- 'गोलवलकर का एक तरह से बंद दिमाग़ था। उनके जीवन के शुरू में ही उनके विचारों में एक तरह की पूर्णता आ गई थी। उसके आगे उन्हें लगता था कि उन्हें कुछ और पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। 'जब की कोई भी शख़्स अगर किसी बौद्धिक लक्ष्य को सामने रखता है तो उसे हमेशा इस बात पर सवाल उठाने चाहिए कि जो वो कह रहा है क्या ये अंतिम सत्य है? गोलवलकार के दिमाग में ये कभी नहीं आया जबकि उनके उत्तराधिकारी बाला साहेब देवरस ने हमेशा अपने रुख़ पर पुनर्विचार किया और ज़रूरत पड़ने पर उसे बदला भी।'
सबसे बड़ा योगदान संघ की निरंतरता
गुरु गोलवलकर का सबसे बड़ा योगदान था, संघ को तमाम विवादों से निकालते हुए उसको निरंतर बनाए रखना।राम बहादुर राय कहते हैं, 'जिन तूफ़ानों से उन दिनों संघ गुज़रा है, अगर गुरुजी न होते तो संघ टूट जाता। साल 1947 के भारत विभाजन में गुरुजी का जोर बचाव और राहत कार्यों पर ज़्यादा था। संघ के जीवन में एक काल अवसाद का आया है, जिसे कम लोग नोटिस करते हैं।'
'वो 1952 है। संघ के बहुत सारे लोगों को लगता था कि जनसंघ दिल्ली या पंजाब जैसे राज्यों में या तो सरकार बनाएगा या मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरेगा, लेकिन जब परिणाम आया तो संसद में सिर्फ़ दो लोग जीतकर आए और जो लोग मानते थे कि जनसंघ में उनका भविष्य उज्जवल है, उनको बहुत बड़ा धक्का लगा।' 'उस ज़माने में बहुत से लोगों ने निराश हो कर संघ को छोड़ा। उस समय गुरुजी ने ही एकनिष्ठ होकर संघ को चलाया। गुरुजी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी 1973 तक संघ की निरंतरता को बनाए रखना।'
इंदिरा गांधी गोलवलकर से कभी नहीं मिलीं। अपने पिता की तरह उन्होंने ने भी उनका हमेशा विरोध किया। लेकिन उनकी मृत्यु पर उन्होंने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था- 'अपने व्यक्तित्व और विचारों की गहनता के कारण राष्ट्रीय राजनीति में उनकी एक ख़ास जगह थी, हालांकि हममें से बहुत से लोग उनसे सहमत नहीं थे।