- ज़ुबैर अहमद (दिल्ली)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज अपने तीन दिन के दौरे पर इसराइल पहुंच रहे हैं जहाँ उनका बेसब्री से इंतज़ार हो रहा है। कहा जा रहा है कि इस दौरे से दोनों देशों के बीच रिश्ते कई गुना मज़बूत होने वाले हैं।
आज की पीढ़ी को ये सुन कर ताज्जुब होता है कि मोदी इसराइल जाने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगे। उन्हें इस बात पर भी आश्चर्य होता है कि भारत और इसराइल के बीच औपचारिक रूप से राजनयिक संबंध पहली बार 1992 में स्थापित हुए थे।
भारत को आज़ाद हुए और इसराइल की स्थापना को 70 साल हो चुके हैं, लेकिन रिश्ते में वो गर्मजोशी नहीं दिखी है जो भारत और अमेरिका के बीच नज़र आती है। ये संबंध कांग्रेस पार्टी के राज में स्थापित हुए थे और आगे जाकर फले फूले, लेकिन अब ऐसे संकेत मिल रहे हैं, या कम से कम भारतीय मीडिया ये दावे कर रही है कि प्रधानमंत्री मोदी के दौरे से दोनों देशों के संबंध एक नई बुलंदी को छूने वाले हैं। फ़िलहाल ये कहना मुश्किल है। लेकिन प्रधानमंत्री के दौरे को लेकर इसराइल में उत्साह ज़रूर है। दरअसल परदे के पीछे इसराइल और भारत के संबंध गहरे हुए हैं। इसराइल भारत को सुरक्षा के मामले में मदद देता है। भारत को हथियार बेचने वाला दूसरा सब से बड़ा देश है।
हिंदुत्व और यहूदीवाद
इस सिलसिले में पिछले कुछ सालों से हिंदुत्ववादी और ज़ायनिज़्म या यहूदीवाद (फ़लीस्तीन में यहूदी राष्ट्र स्थापित करने का आंदोलन चलाने वाली विचारधारा) के बीच सकारात्मक समानताएं खोजने की कोशिशें जारी हैं।
जयदीप प्रभु एक ऑनलाइन मैगज़ीन 'स्वराज्य' के कंसल्टिंग एडिटर हैं। वो कहते हैं, "हिंदू और यहूदी धर्म में तीन मूल समानताएं हैं। दोनों विचारधाराएं बेघर रही थीं। दोनों का दुश्मन एक है (इस्लाम) और दोनों ने सियासी लक्ष्य हासिल करने के लिए सांस्कृतिक पुनरुद्धार का सहारा लिया।"
जयदीप प्रभु कहते हैं, "हिंदुत्व को बेघर कहना थोड़ा अजीब-सा ज़रूर लगता है, लेकिन ये भौतिक स्थान की बात नहीं है। मुग़ल आए। उनके राज में हिंदू संस्कृति को प्रोत्साहन नहीं मिला। ऐसा नहीं कि बिल्कुल नहीं मिला, लेकिन हिंदू राजाओं के मुक़ाबले में कम हुआ।"
उनके अनुसार इस मायने में हिंदुत्व बेघर था। हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल पहली बार 1923 में हुआ था, लेकिन जयदीप प्रभु के अनुसार ये विचारधारा पहले से मौजूद थी।
यहूदियों का देश
यहूदीवाद का आंदोलन यूरोप में 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जिसका मक़सद यूरोप और दूसरी जगहों में रहने वाले यहूदियों को उनके 'अपने देश इसराइल' वापस भेजना था। यहूदियों का अपना कोई देश नहीं था। यहूदियों को यूरोप के अलग-अलग देशों में रहना पड़ रहा था जहाँ उनके लिए यहूदियत को महफूज़ रखना मुश्किल हो रहा था।
बाद में, यानी 1948 में यहूदियों के लिए अलग देश इसराइल की स्थापना हुई। जयदीप प्रभु के अनुसार हिंदुत्व ने अपना सियासी मक़सद अब तक पूरा नहीं किया है यानी भारत को एक हिंदू राष्ट्र अब तक नहीं बनाया है।
हैदराबाद में हिंदुत्व पर काम करने वाले प्रसिद्ध विशेषज्ञ ज्योतिर्मय शर्मा ने इस विचारधारा पर किताबें भी लिखी हैं। वे कहते हैं कि हिंदुत्व और यहूदीवाद में समानता तो है, लेकिन वो नकारात्मक है। उन्होंने दो समानताओं का ज़िक्र किया, "बहुमत का वर्चस्व और दूसरा असुरक्षा का एहसास।"
ज्योतिर्मय शर्मा का कहना है कि भारत की तरह ही इसराइल में भी बहुमत हर चीज़ अपने तरीके से चलाना चाहता है। दोनों विचारधाराएं इस पर यक़ीन करती हैं कि लोगों के दिल और दिमाग़ में एक तरह की असुरक्षा की भावना पैदा कर दी जाए जिससे फिर आप उनसे कुछ भी करवा सकते हैं। उनके अनुसार इसराइल तो फिर भी असुरक्षित महसूस कर सकता है क्योंकि वो फ़लीस्तीन और दूसरे विरोधी देशों से घिरा है, लेकिन भारत को असुरक्षित महसूस करने का कोई कारण नहीं है।
ज्योतिर्मय शर्मा के अनुसार हिंदुत्ववादी विचारधारा और यहूदीवाद के बीच समानता खोजना बेकार है। ये केवल सतही तुलना है। दोनों विचारधाराओं के बीच साझे इतिहास और साझे अनुभव की मिसाल नहीं मिलती। दोनों के असर का दायरा दुनिया के दो अलग-अलग क्षेत्रों में है।
जयदीप प्रभु स्वीकार करते हैं कि दोनों विचारधाराएं अलग-अलग जगहों पर पनपी हैं, लेकिन उनके अनुसार भारत में यहूदी 2000 से रहते चले आ रहे हैं। उन्हें भारत में रहने का अनुभव है।
जयदीप प्रभु का कहना है कि हिंदुत्व और यहूदीवाद के बीच समानताएं हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि "हर मामले में हमारा दृष्टिकोण एक ही हो।" कुछ विशषज्ञ मानते हैं कि दोनों विचारधाराओं में असमानता समानताओं से अधिक है। उनके विचार में रक्षा के मामले में इसराइल भारत का सामरिक पार्टनर तो बन सकता है, लेकिन भारत का असली हित अरब देशों से संबंध रखने में है।