चंदन कुमार जजवाड़े, बीबीसी संवाददाता, पटना
1990 के दशक में जब अयोध्या में राम मंदिर बनाने को लेकर आंदोलन शुरू हुआ था, उस वक़्त बिहार में मंडल की राजनीति चल रही थी। राम मंदिर आंदोलन में बीजेपी के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को बिहार में ही 23 अक्टूबर 1990 को गिरफ़्तार किया गया था। तब बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव थे।
लालू यादव अब भी आडवाणी की गिरफ़्तारी का श्रेय लेते हैं और कहते हैं कि उन्होंने बिहार को सांप्रदायिक तनाव से बचा लिया था।
सोमवार को अयोध्या में जब राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हो रही थी तब बिहार की सड़कों पर भी इसका असर दिख रहा था।
हालाँकि बिहार उन राज्यों में शामिल रहा, जिसने अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर किसी तरह की छुट्टी की घोषणा नहीं की थी।
पटना के मशहूर महावीर मंदिर में आमतौर पर मंगलवार और शनिवार को भक्तों की भीड़ ज़्यादा देखी जाती है पर सोमवार को यहाँ बड़ी संख्या में लोग पहुँचे।
मंदिर से पूजा कर लौटे एक बुज़ुर्ग केशवानंद कहते हैं, “मैं रोज़ मंदिर आता हूँ, मंदिर आना मेरे लिए कोई नई या ख़ास बात नहीं है। लेकिन आज विशेष दिन है। आज अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो रही है, इसलिए यहाँ भी मंदिर में ज़्यादा भीड़ उमड़ रही है।”
आम लोगों पर असर
महावीर मंदिर से दर्शन कर लौट रहीं दो बहनें प्रतिमा देवी और रागिनी देवी काफ़ी ख़ुश नज़र आ रही हैं। अयोध्या में मंदिर बनने की वजह से वो हनुमान जी के दर्शन के लिए आई हैं।
उनका कहना है कि "अब 500 साल का इंतज़ार ख़त्म हो गया है। अयोध्या में मंदिर बनने से 22 जनवरी 2024 का दिन इतिहास में दर्ज हो गया है।"
इस मौक़े पर बीजेपी सांसद संजय जायसवाल कहते हैं, “हमने कभी ऐसे दिन की कल्पना नहीं की थी। मैंने अपने क्षेत्र में देखा कि ऐसा कोई घर नहीं है, जहाँ दीपक प्रज्वलित नहीं किया गया हो। यह अकल्पनीय और अभूतपूर्व है। ऐसा कोई स्तंभ नहीं दिख रहा जिस पर झंडा न लहराया गया हो।”
पटना रेलवे स्टेशन और महावीर मंदिर के पास ही इस शहर का सबसे मशहूर डाक बंगला चौराहा भी है। डाक बंगला चौराहे पर सोमवार के पहले से ही बड़े आयोजन की तैयारी की गई थी। यहाँ शाम में आतिशबाज़ी के अलावा 51 हज़ार दिए भी जलाए गए।
इस आयोजन में बीजेपी के कई नेता शामिल हुए और पटना के लोग भी बड़ी तादाद में यहाँ पहुँचे। हालाँकि पटना में लोगों की रोज़ाना ज़िंदगी आमतौर पर बरक़रार दिखी। बिहार सरकार के दफ़्तर, दुकानें और कोचिंग सेंटर सब खुले हुए थे।
अयोध्या बनाम कर्पूरी जन्म शताब्दी
बीजेपी के स्थानीय कार्यालय से बाहर ही बिहार के एक अलग रंग से परिचय होता है। यहाँ बीजेपी ने कई गाड़ियों पर कर्पूरी जयंती के बैनर और पोस्टर लगवाए हैं, जो घूम-घूमकर कर्पूरी ठाकुर की जयंती का प्रचार कर रहे हैं।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की पहचान अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के बड़े नेता के तौर पर है। बिहार में बीते साल जारी किए गए जातिगत जनगणना के आँकड़ों के मुताबिक़ राज्य में इस वर्ग की आबादी क़रीब 36 फ़ीसद है।
एक तरफ़ राम मंदिर के उद्घाटन का समारोह और दूसरी ओर 24 जनवरी की कर्पूरी जन्म शताब्दी समारोह की तैयारियाँ। यह ऐसी तस्वीर है जो बिहार की अलग राजनीतिक सच्चाई पेश करती है। कर्पूरी ठाकुर बिहार के पहले ग़ैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे।
अपने दो कार्यकाल में कुल मिलाकर वो ढाई साल मुख्यमंत्री रहे। फिर भी उनका राज्य की राजनीति और समाज पर बड़ा असर देखने को मिलता है।
1977 में उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य की नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए 27 फ़ीसद आरक्षण लागू किया गया था।
कर्पूरी ठाकुर की विरासत
इस फ़ैसले से कर्पूरी ठाकुर सवर्णों के निशाने पर आ गए थे। भारत में सवर्णों को आमतौर पर बीजेपी का वोट बैंक माना जाता है, ऐसे में बीजेपी की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर का महत्व क्या दिखाता है?
राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, “मंडल आयोग ने जो नहीं किया वह कर्पूरी ठाकुर ने कर दिया था। आरक्षण देने की वजह से उनको सवर्णों ने बहुत अपशब्द कहे थे। लेकिन अब समय बदल गया है और कर्पूरी ठाकुर की विरासत को कोई छोड़ना नहीं चाहता।”
वहीं बीजेपी सांसद और बिहार बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष संजय जायसवाल कहते हैं, “कर्पूरी ठाकुर हम सब लोगों के लिए श्रेष्ठ पुरुष हैं। उन्होंने हम सभी के लिए बहुत कुछ किया है। हम लोग हर साल कर्पूरी जयंती मनाते हैं।”
राजनीतिक विश्लेषक और पटना के एनएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर का मानना है कि "बीजेपी के पास अपनी कोई विरासत नहीं है। बीजेपी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करती है, इसलिए कर्पूरी ठाकुर को अपना दिखाना चाहती है।"
उनके मुताबिक़, “कर्पूरी ठाकुर बिहार के पहले जन नेता थे। बीजेपी आरक्षण और जातिगत जनगणना का विरोध करने वाली पार्टी रही है। आज हर राजनीतिक दल को पता है कि पिछड़ों के समर्थन के बिना वो कुछ नहीं कर सकती, इसलिए कर्पूरी ठाकुर को छोड़ नहीं सकती।”
राजनीतिक दलों के दावे
डीएम दिवाकर का मानना है कि "कर्पूरी के बाद लालू प्रसाद यादव जनमानस के दूसरे बड़े लीडर के तौर पर उभरे। आज भी लालू यादव के पास पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों का बड़ा वोट बैंक है और उसी को कमज़ोर करने की कोशिश बीजेपी भी कर रही है। नीतीश कुमार ने भी ऐसा ही किया है।"
वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी कहते हैं, “बीजेपी को पता है कि बिहार की जातीय सोच चुनावों पर भारी पड़ेगी, इसलिए कर्पूरी जन्म शताब्दी समारोह मनाते हैं। बिहार में अति पिछड़ी जातियों में 27 फ़ीसद हिन्दू हैं। बीजेपी को पता है कि कुछ सवर्णों को छोड़कर मंदिर को लेकर अन्य लोगों में बहुत उत्साह नहीं है।”
सोमवार को अयोध्या में राम मंदिर को लेकर समारोह के बीच बिहार में सत्ता पर बैठी जेडीयू लगातार बिहार में नौकरियों और कर्पूरी जयंती समारोह को लेकर सोशल मीडिया एक्स पर अपने दावे पेश करती रही है।
बिहार सरकार में मौजूद दोनों प्रमुख पार्टियाँ आरजेडी और जेडीयू की कोशिश दिखती है कि वह पूरी बहस को रोज़गार के मुद्दे की तरफ़ ले जाए।
यूं तो बिहार में बीजेपी, आरजेडी या जेडीयू सभी दल कर्पूरी ठाकुर की विरासत को अपने-अपने तरीक़े से परिभाषित करते और उस पर दावा करते नज़र आते हैं। लेकिन इसमें सबसे ऊपर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू दिखती है।
डीएम दिवाकर के मुताबिक़, “नीतीश कुमार ने निश्चित तौर पर लालू के वोट बैंक को थोड़ा नुक़सान पहुँचाया है और सेक्युलर वोटों का विभाजन किया है। लेकिन उन्होंने एक और काम किया कि राज्य में बीजेपी नीतीश के भरोसे ही रही है। इसलिए बीजेपी आज भी उन पर डोरे डालती दिखती है।”
राजधानी पटना के वेटनरी कॉलेज के विशाल मैदान में जेडीयू ने कर्पूरी जन्म शताब्दी समारोह की बड़ी तैयारी की है। एक तरफ़ सड़कों पर राम मंदिर के झंडे लगे हैं, वहीं इसके समानांतर कर्पूरी ठाकुर और जेडीयू के झंडों, बैनरों और पोस्टरों से पटना की सड़कें पटी नज़र आती हैं।
कभी नीतीश कुमार के क़रीबी रहे आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी के मुताबिक़ पहले पिछड़ों को सवर्णों के सामने कुर्सी पर बैठने का अधिकार नहीं था, लालू प्रसाद यादव ने समाज के इस सामंती ढाँचे को तोड़ा था। वहीं नीतीश कुमार ने भी महिलाओं के उत्थान के लिए बहुत काम किया है, उनको नौकरी में आरक्षण दिया है।
उनका कहना है, “नीतीश कुमार ने भी भेदभाव वाली राजनीति और व्यवस्था के ख़िलाफ़ काम किया है। उन्होंने आरक्षण के आधार पर ख़ूब नौकरी दी है। महिलाओं के लिए काम किया है। आज बिहार पुलिस में जितनी महिलाएँ हैं, उतनी किसी अन्य राज्य में नहीं हैं।”
मंडल की राजनीति तब और अब
साल 1970 के दशक के अंत में बने मंडल आयोग ने उस वक़्त 52 फ़ीसद की पिछड़ों की आबादी को 27 फ़ीसद आरक्षण की सिफ़ारिश की थी। इस सिफ़ारिश को अगस्त 1990 में केंद्र की तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने लागू करने का फ़ैसला किया था। बिहार में लालू प्रसाद यादव मंडल की इस राजनीति के समर्थक थे।
केंद्र सरकार के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ देश के कई इलाक़ों में प्रदर्शन और हिंसक घटनाएँ हुई थीं। उसी समय सितंबर महीने में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी अयोध्या के राम मंदिर के मुद्दे पर सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा पर निकले थे। इसे ही भारत में कमंडल की राजनीति के तौर पर जाना जाता है।
शिवानंद तिवारी याद करते हैं, “जब मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने के विरोध में अयोध्या में मंदिर के लिए आंदोलन खड़ा किया गया था और आडवाणी रथ यात्रा पर निकले थे। वह एक उन्माद का समय था। आडवाणी राजधानी एक्सप्रेस से धनबाद स्टेशन पर उतरे थे, लेकिन वहाँ के ज़िलाधिकारी उनको गिरफ़्तार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे।”
बाद में यात्रा के दौरान 23 अक्टूबर को बिहार के समस्तीपुर में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार किया गया था। उन्हें वहां से दुमका (अब झारखंड में) के पास मसानजोर के एक गेस्ट हाउस में रखा गया था।
बीजेपी को साल 1984 में हुए लोकसभा चुनावों में महज़ दो सीटें मिली थीं जबकि उसने 224 सीटों पर चुनाव लड़ा था। लेकिन अयोध्या के बाबरी मस्जिद और राम मंदिर आंदोलन की राजनीति से उसे साल 1989 में बड़ा राजनीति फ़ायदा हुआ था और उसके लोकसभा सीटों की संख्या दो के बढ़कर सीधा 85 तक पहुँच गई थी।
कन्हैया भेलारी कहते हैं, “जब लालू ने आडवाणी को गिरफ़्तार करवाया था, उस वक़्त बीजेपी ने पूरे देश को राममय बनाने का प्रयास किया था लेकिन वो संयुक्त बिहार में भी साल 1991 के चुनाव में केवल 5 सीटें जीत पाई थी। अब भी मंदिर को लेकर जितना दावा किया जा रहा है, मेरा मानना है कि बिहार में इसका उतना असर नहीं है।”
हालाँकि मंडल की राजनीति के दौर में आडवाणी की रथ यात्रा का भी बीजेपी को अच्छा फायदा होता दिखा था। साल 1991 में हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी की सीट 120 तक पहुँच गई थी। बाद में बीजेपी ने साल 1998 और 1999 में केंद्र में गठबंधन की सरकार भी बनाई थी।