श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे इस वक़्त भारत की पांच दिवसीय यात्रा पर हैं। उन्होंने शनिवार को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मुलाक़ात की। इस दौरान दोनों देशों के बीच संयुक्त आर्थिक परियोजनाओं, व्यापार, निवेश, कनेक्टिविटी बढ़ाने, सुरक्षा और आतंकवाद जैसे मसलों पर चर्चा हुई।
राजपक्षे के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी यह पहली विदेश विदेश यात्रा है। उनके आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से ट्वीट करते हुए पीएम मोदी और उनके बीच हुई मुलाक़ात पर ख़ुशी ज़ाहिर की गई है और इस दौरे से सहयोग के नए रास्ते बनाने और संबंधों को मज़बूत करने की बात कही गई है।
वहीं, भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने ट्वीट किया, ''प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर श्रीलंका के प्रधानमंत्री भारत पहुंचे। उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। यह कार्यभार संभालने के बाद उनकी पहली विदेश यात्रा है जिससे दोनों देशों के संबंधों को ऊर्जा मिलेगी।''
भारत-श्रीलंका बदलते रिश्ते
भारत और श्रीलंका के बीच दिख रहे ये मज़बूत संबंध और सहयोग उन अनुमानों से बिल्कुल उलट हैं जो श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनावों के दौरान लगाए जा रहे थे। नवंबर 2019 में हुए राष्ट्रपति चुनावों में गोटोभाया राजपक्षे का तत्कालीन राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना से मुक़ाबला था जिसमें गोटोभाया ने जीत हासिल की।
महिंदा राजपक्षे को चीन के क़रीब बताया जाता है। उनके भाई गोटोभाया राजपक्षे का भी चीन के प्रति झुकाव होने की बात की जाती थी। ऐसे में भारत के लिए श्रीलंका के साथ संबंधों को सकारात्मक दिशा में ले जाना मुश्किल रहने का अनुमान था।
चीन श्रीलंका में लगातार अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करता रहा है और श्रीलंका में उसका स्वागत भी हुआ है। ऐसे में श्रीलंका की विदेश नीति चीन और भारत में से किस और झुकेगी ये कहना मुश्किल था। लेकिन, फ़िलहाल हालात बदले नज़र आ रहे हैं। मौजूदा स्थिति देखें तो श्रीलंका के नए राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक ने अपनी पहली विदेश यात्रा भारत की है। ऐसे में सवाल उठता है कि इन बदले हालात की क्या वजहें हैं?
'चीन कीकर्ज़ नीति को समझ गया श्रीलंका'
इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार टीआर रामचंद्रन कहते हैं कि श्रीलंका की विदेश नीति में बदलाव देखने को मिल रहा है। चीन की तरफ़ जाता श्रीलंका अब भारत के साथ संबंध बेहतर बनाने की कोशिश कर कर रहा है। इसके पीछे चीन की क़र्ज़ नीति और भारत की सकारात्मक पहल जैसे कारण ज़िम्मेदार हैं।
रामचंद्रन कहते हैं, ''कुछ समय से भारत और श्रीलंका के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं रहे थे और इस बीच में जब मैत्रीपाला सिरीसेना वहां के राष्ट्रपति बने तो देखा गया कि उनके कार्यकाल में श्रीलंका का चीन की तरफ़ झुकाव हुआ।''
''लेकिन, चीन की नीति है कि जब वो किसी छोटे देश को अपने साथ करना चाहता है तो वहां इतना पैसा लगा देता है कि वो देश उसके क़र्ज़ के जाल में फंस जाए। ऐसे कई उदाहरण अफ़्रीका में देखने को मिले हैं, जहां चीन ने कई छोटे देशों को अपने क़र्ज़ तले दबा दिया।''
टीआर रामचंद्रण के मुताबिक़, ''जब श्रीलंका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई और पूर्व रक्षा मंत्री गोटाभाया राजपक्षे राष्ट्रपति चुने गए तो ऐसा लग रहा था कि श्रीलंका में भी ये दिक़्क़त हो सकती है। लेकिन, श्रीलंका को भी समझ आ गया था कि अगर वो चीन से ऐसे लगातार मदद लेते रहेंगे तो वो भी चीन के एक 'सेटेलाइट स्टेट' बन जाएंगे। इस बदलते रुख़ का एक उदाहरण है हम्बनटोटा बंदरगाह।''
श्रीलंका ने चीन का क़र्ज़ न चुका पाने के कारण हम्बनटोटा बंदरगाह चीन की मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड कंपनी को 99 साल के लिए लीज पर दे दिया था। साल 2017 में इस बंदरगाह को 1।12 अरब डॉलर में इस कंपनी को सौंपा गया। इसके साथ ही पास में ही क़रीब 15,000 एकड़ जगह एक इंडस्ट्रियल ज़ोन के लिए चीन को दी गई थी।
चीन के क़र्ज़ में उलझ रहा था श्रीलंका'
इस बंदरगाह को मिसाल के तौर पर पेश किया जाता रहा है कि श्रीलंका किस तरह चीन के क़र्ज़ में उलझता जा रहा है और अपनी राष्ट्रीय और सामरिक महत्व से जुड़ी संपत्ति चीन को सौंपने पर मजबूर हो रहा है।
ये भी कहा गया कि हम्बन्टोटा बंदरगाह के निर्माण के लिए श्रीलंका ने चीन से जितना क़र्ज़ लिया है, वो उसे नहीं चुका पाएगा और इसी वजह से इस बंदरगाह का स्वामित्व चीन के हाथों में दे दिया है
महिंदा राजपक्षे के कार्यकाल के आख़िरी साल में चीन ने हम्बनटोटा बंदरगाह, एक नया एयरपोर्ट, एक कोल पावर प्लांट और सड़क के निर्माण में 4।8 अरब डॉलर का निवेश किया था। 2016 के आते-आते यह क़र्ज़ छह अरब डॉलर का हो गया। राजपक्षे 2005 से 2015 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे थे।
वहीं, रणनीतिक तौर पर त्रिन्कोमाली पोर्ट प्रोजेक्ट पर भारत की नज़र थी लेकिन सिरिसेना के शासनकाल में इसे विकसित करने का काम भारत को नहीं मिला। हालांकि अब श्रीलंका हम्बनटोटा बंदरगाह को वापस चाहता है।
महिंदा राजपक्षे की सरकार के दौरान सेंट्रल बैंक के गवर्नर रहे अजीत कबराल ने पिछले साल नवंबर में कहा था कि हम उसे वापस लेना चाहेंगे। आदर्श स्थिति ये है कि यथास्थिति में वापस आया जाए। जैसी कि सहमति जताई गई थी, हम बिना किसी बाधा के क़र्ज़ वापस कर देंगे।
हम्बनटोटा बंदरगाह भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। इसलिए चीन को पट्टे पर दिए जाने से भारत की भी चिंताएं बढ़ गई थीं।
टीआर रामचंद्रन का कहना है कि बंदरगाह हिंदुस्तान के लिए एक बड़ी समस्या बनकर खड़ा हो रहा था।
अगर ये बंदरगाह चीन के पास 99 साल के लिए रह गया तो उसकी नौसेना का पूरा ध्यान वहां पर होगा। ये हिंद महासागर क्षेत्र के लिए एक गेटवे है। वहीं, चीन के क़र्ज़ से श्रीलंका की हालत भी काफ़ी ख़राब हो सकती है। इस कारण भी गोटोभाया राजपक्षे भारत आए और रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिश की।
भारत की ओर से भी पहल
विशेषज्ञ भारत और श्रीलंका की क़रीबी की एक और वजह मानते हैं और वो है राष्ट्रपति चुनाव के बाद भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर का श्रीलंका दौरा।
दरअसल, श्रीलंका में नई सरकार बनने पर भारत ने भी दोस्ती का हाथ बढ़ाने में देरी नहीं की। गोटाभाया राजपक्षे के राष्ट्रपति पद संभालते ही अगले दिन भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर श्रीलंका दौरे पर पहुंच गए थे। उन्होंने गोटाभाया राजपक्षे से मुलाक़ात की और उन्हें भारत आने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से न्यौता भी दिया।
इसके बाद गोटाभाया राजपक्षे नवंबर में भारत के दौरे पर आए और दोनों देशों के बीच गर्मजोशी देखने को मिली। इस दौरे को लेकर श्रीलंका की विदेश नीति पर नज़र रखने वाले जानकारों ने हैरानी भी जताई थी क्योंकि गोटाभाया चीन के क़रीब बताए जाते थे।
इसके बाद जनवरी में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की श्रीलंका यात्रा के दौरान भारत की ओर से श्रीलंका को 50 मिलियन डॉलर की मदद देने का वादा भी किया गया था।
भारत के इस क़दम पर रामचंद्रन कहते हैं, ''विदेश मंत्री एस जयशंकर का श्रीलंका जाना महत्वपूर्ण रहा और फिर पीएम मोदी के न्यौते पर गोटाभाया का भारत आना अहम था। इसके बाद दोनों देशों के बीच बातचीत अच्छी चली और ख़राब हो रहे रिश्ते सुधरने के कुछ आसार नज़र आए।''