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शाही दरबारों के लाडले थे तुनकमिजाज़ ख़ानसामे

हमें फॉलो करें शाही दरबारों के लाडले थे तुनकमिजाज़ ख़ानसामे
, सोमवार, 2 जनवरी 2017 (12:16 IST)
- सलमा हुसैन (फ़ूड हिस्टोरियन)
 
पूर्व रियासतों और इनके राजाओं को लेकर कई कहानियां इतिहास के पन्नों में हैं, लेकिन शाही रसोइयों के क़िस्से भी कम रोचक नहीं। शाही रसोइयों ने बेहतरीन ख़ानसामों की प्रतिभाओं को निखारा। रसोई के ख़ानसामों को बहुत लाड़-प्यार से रखा जाता था और नए व्यंजनों और रचनात्मकता के लिए राजा थैलियां खोल देते थे। भारत की आलीशान रसोइयां लज़ीज़ पकवानों से भरी रहती थीं। हैरानी नहीं कि इन रसोइयों ने खाने की लंबी रेंज पेश की, जो बाद में उनके मूल स्थानों की पहचान के साथ जुड़ गए। मसलन हैदराबादी बिरयानी, लखनवी कबाब आदि।
भारत राजाओं, महाराजाओं और नवाबों की भूमि रही है। यहाँ सम्राटों और सुल्तानों का राज रहा जो अपने साथ सभ्य, शिष्टाचार और अभिजात्य वर्ग के साथ खाना पकाने और परोसने की कला भी लेकर आए। मुग़ल शासन से अंत के बाद शाही ख़ानसामों को निज़ाम, अवध, रामपुर, कश्मीर और राजस्थान के राजघरानों में संरक्षण मिला।
 
शायद मुग़लों के बाद सबसे मशहूर रसोई अवध के नवाबों की थी। यह शुजाउद्दौल्लाह का समय था, जिसमें व्यंजनों को संरक्षण मिलना शुरू हुआ। नवाब ने ख़ुद छह रसोई रखनी शुरू की और हर महीने खाने पर 60 हज़ार रुपए की बड़ी राशि ख़र्च की।
 
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लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा बनाने के दौरान खाने की दमपुख़्त शैली का श्रेय नवाब आसिफ़उद्दौल्लाह को जाता है। अवध के सभी राजा और नवाब पाक कला के पारखी थे। दिन में भव्य भोजन का आदेश होता था और शाही ख़ानसामे की कोशिश होती थी कि वे मेहमानों को अपनी नई डिश से ताज्जुब में डाल दें। कहते हैं कि एक बार नवाब वाजिद अली शाह ने राजकुमार मिर्ज़ा आस्मां क़द्र को खाने की दावत दी। इसमें मुख्य खाने में मुरब्बा पेश किया गया, जिससे राजकुमार बेहद ग़ुस्सा हुए, लेकिन जब उन्होंने इसे चखा तो यह क़ोरमा निकला।
 
इस चालाकी से राजकुमार शर्मिंदा हुए। उन्होंने भी नवाब को खाने की दावत दी और उन्हें 'पहेली का झना' पेश किया। मेज़ पर परोसे गए सभी व्यंजन चीनी से बने थे, यहाँ तक कि प्लेट और कटोरे भी। नवाबी रसोई में सबसे ऊँचा ओहदा रकाबदार का था, जो सभी तरह के खाने का अच्छा जानकार होता था, जबकि अन्य ख़ास तरह के पकवान में पारंगत होते थे। रकाबदार का सम्मान नवाब करते थे। इन ख़ानसामों ने न केवल शाही परिवारों के लिए नए व्यंजन खोजे और पकाए, बल्कि उन्हें परोसने की नई शैली भी तैयार की।
 
एक शाही ख़ानसामा (जिन्होंने दाल पकाने में महारत हासिल की थी) ने ज़ोर दिया कि खाना तैयार होते ही नवाब को खाना चाहिए ताकि स्वाद का पूरा आनंद उठाया जा सके। एक मौक़े पर नवाब को देरी हो गई और नाराज़ ख़ानसामा ने दाल को किचन की खिड़की से बाहर फेंक दिया। ये दाल एक सूखे पेड़ पर गिरी थी और आश्चर्यजनक रूप से कुछ ही समय में पेड़ हरा हो गया।
 
हैदराबाद के निज़ामों के क़िस्से तो काफ़ी मशहूर हैं। उनकी आलीशान दावतें और शाही रसोई में तैयार ज़ायक़ेदार खाना। हैदराबाद के अंतिम निज़ाम उस्मान अली ख़ान अपने और नौकरों समेत पूरे महल के लिए ख़ुद पूरे दिन का मेन्यू लिखते थे। उनका मेन्यू फ़रमान या शाही दस्तावेज़ की तरह देखा जाता था।
 
निज़ाम के पास खाना पकाने के लिए अलग टीम थी। उनके विभाग को आमरा कहा जाता था, जिस पर शाही खानपान की ज़िम्मेदारी होती थी और इसमें हैदराबादी और पश्चिमी व्यंजनों के लिए आला दर्जे के पेशेवर और प्रशिक्षित ख़ानसामे होते थे।
 
आमरा ख़ानसामे शाही रसोई का ख़ास हिस्सा थे। निज़ाम की शाही रसोई में मुर्ग़ मुसल्लम, बकरा ख़ोरी, सफ़ेद मुर्ग़, बिरयानी और पुलाव, मिर्ची का सालन, हलीम और अशरफ़ी तैयार की जाती थी जिसे सिटी पैलेस के एक बड़े हॉल में क़रीब 400 लोगों को परोसा जाता था।
 
इस खाने में अरबी, तुर्की और फ़ारसी व्यंजनों का ख़ासा असर था। 1890 के अंत में जब लॉर्ड कर्ज़न हैदराबाद के निज़ाम से मिलने गए, तो उनकी नाश्ते की मेज़ पर सैकड़ों चीज़ें रखी थीं और वायसराय को निज़ाम से दृढ़तापूर्वक कहना पड़ा कि वो सिर्फ़ ब्रितानी नाश्ता ही करेंगे।
 
मैसूर, त्रावणकोर और अरकोट से भी खाने के कई क़िस्से हैं। मैसूर महल के ख़ज़ांची ने एक बार एक बड़ा भोज किया। रात के भोजन से कुछ घंटे पहले, वह तैयारियों का जायज़ा लेने शाही रसोई में गए। एक कोने में कटी सब्ज़ियों का ढेर लगा देख उन्होंने रसोइये से पूछा, ''ये क्या है?''
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रसोइये ने जवाब दिया, ''सब्ज़ियों के कुछ कटे हिस्से- जो हमें नहीं चाहिए।'' ख़ज़ांची ने पूछा, ''तुम इनका क्या करोगे?'' रसोइये ने कहा, ''फेंक देंगे। वो किसी काम के नहीं हैं।'' ख़ज़ाची ने तब कहा, ''लेकिन तुम इन टुकड़ों को यूं ही बर्बाद नहीं कर सकते। तुम्हें इन्हें इस्तेमाल करने का उपाय ढूंढना चाहिए।'' और यह कहते हुए वो निकल गए।
 
इसके बाद रसोइया सब्जियों के इन टुकड़ों को देखकर सोचने लगा कि इनका क्या करे। आख़िरकार उन्होंने नारियल के टुकड़ों से सॉस बनाया। फिर सारी सब्ज़ियों को धोया और उन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा। कुछ मसाला डाला और इस मिश्रण को पकाया।
 
रात में उन्होंने यह डिश परोसी। मेहमानों को वह बेहद पसंद आई और उन्होंने इसका नाम पूछा। उन्होंने इसे 'अवियल' कहा। उस दिन के बाद से यह डिश न केवल महल बल्कि दूसरी जगहों पर भी लोकप्रिय हो गई। कभी रियासत रहे केरल के त्रावणकोर के राम वर्मा अब भी महल में रहते हैं। वह अब भी पुराने ज़माने में रसोई से उठती पकवानों की ख़ुशबुएं याद करते हैं।
 
''हमारे परिवार की एक शख्सियत थी महारानी सेतु पार्वती बाई, जो महाराजा चित्रा तिरुनल बाला राम वर्मा की मां थीं। मैं पुराणों और स्वादिष्ट खाने के प्रति उनके प्यार के लिए उन्हें याद करता हूँ।'' 1983 में उनके निधन तक सभी दूध के उत्पाद हमारे घर में बनते थे। यहाँ तक कि उनकी दही कुछ हटकर होती थी, ठोस और मीठी। उनकी मेहमाननवाज़ी बेहतरीन थी।
 
वह अपने मेहमानों को चाहे उत्तर से हों या दक्षिण से, पूर्व से हों या पश्चिम से, सभी का सत्कार एक ही तरह से करती थीं। जिसने भी त्रावणकोर महल में खाना खाया उसका ज़ायक़ा उन्हें ज़िंदगी भर याद रहा। ख़ुद शराब और मांसाहार से दूर रहने के बावजूद उन्होंने महल में मेहमानों के लिए शराब और मांस परोसा। मेहमान जब वोदका पी रहे होते, तो वह उसी तरह के गिलास में पानी पीतीं। अम्मा महारानी के पास मांसाहारी भोजन तैयार करने के लिए अलग रसोई थी, ताकि शाकाहारी भोजन खाने वालों को कोई दिक़्क़त न हो।
 
राम वर्मा कहते हैं, ''आज भी हमारे पास दो रसोइयां हैं। एक में दक्षिण भारतीय व्यंजन तैयार होते हैं और दूसरे में पश्चिमी।'' 'इंग्लिश किचन' के हमारे रसोइए 65 वर्षीय चंद्रन नियमित रूप से रोज़ कुछ अलग पकवान बनाते हैं। ''इनमें एक डिश है, जिसमें गाजर को बीच में खोखला किया जाता है और इसमें नारियल चटनी भरी जाती है। इसे रोटी के टुकड़ों से बंद कर फ्राई किया जाता है। बेहद साधारण व्यंजन है और कह सकता हूँ कि ऐसी स्वादिष्ट डिश मैंने आज तक नहीं खाई।''
 
महमूदाबाद के शाही किचन की कुंदन क़लिया बनाने का तरीक़ा अदरक और लहसुन का पेस्ट बनाकर एक तरफ़ रख दें। टमाटर की प्यूरी बनाकर रख लें। केसर को अनन्नास के पानी में घोलें और एक किनारे रखें। भारी पेंदे के बर्तन में घी धीमी आंच पर गर्म करें। घी में काजू डालें और गहरा रंग होने तक इन्हें भूनें। इसके बाद चम्मच से निकालकर अलग कटोरे में रख लें।
 
आंच को बेहद धीमा कर लें और इसी तरह चिरौंजी को भूनकर काजू वाले कटोरी में डाल लें। इसके बाद इन दोनों को महीन पीसकर पेस्ट बना लें। अब घी वाले बर्तन में प्याज़ डालें और 8-10 मिनट तक धीमी आंच पर तलें। नरम होने के बाद इसमें इलायची, लौंग, तेज पत्ता और दालचीनी मिलाएं और दो मिनट तक तलें। इस मसालेदार प्याज़ को दूसरे कटोरे में डाल दें।
 
चूल्हे की आग तेज़ करें। गोश्त को तीन हिस्सों में तब तक तलें जब तक कि यह पूरी तरह सुनहरा भूरा न हो जाए। (हर हिस्से को 5-8 मिनट तक तलें)। इसके बाद प्याज़ के मिश्रण और मीट को एक साथ बर्तन में डालें और धीमी आंच पर बिना ढके आधा घंटे तक पकाएं। लहसुन के पेस्ट, धनिया, हल्दी, मिर्च पाउडर और एक चम्मच नमक बर्तन में डालकर इसे अच्छी तरह मिलाएं और दो मिनट तक पकने दें। फिर एक-एक चम्मच दही डालें और हर चम्मच दही डालने के बाद अच्छी तरह चलाएं।
 
फिर टमाटर प्यूरी डालें। आंच धीमी कर दें, बर्तन को ढक दें और बीच-बीच में तब तक चलाएं जब तक कि गोश्त पक न जाए। इसमें क़रीब दो घंटे लगेंगे। इसके बाद इसमें नट पेस्ट डालें, ढक दें और 10 मिनट तक पकने दें। केसर मिश्रण डालकर अच्छी तरह मिलाएं। क्रीम मिलाएं और कुछ देर पकने दें। इसके बाद इसे आग से उतार दें।
 
गोश्त के टुकड़ों को अलग कर लें और मिश्रण को छान लें। इसमें से प्याज़ और मसालों को अलग कर लें। छाने हुए सॉस को गोश्त के टुकड़ों वाले बर्तन में डाल दें। इसके बाद इसमें 7 स्वर्ण पत्रक डालकर अच्छी तरह चलाएं। हड्डी वाले गोश्त के कुछ टुकड़ों को स्वर्ण पत्रक में लपेटें और तैयार लज़ीज़ कुंदन क़लिया को खाने के लिए परोस दें।


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