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'ये दिल मांगे मोर' कहकर कैप्टन विक्रम बत्रा बन गए थे कारगिल युद्ध का चेहरा

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, मंगलवार, 30 जुलाई 2019 (10:41 IST)
रेहान फ़ज़ल
बीबीसी संवाददाता
 
कारगिल की लड़ाई से कुछ महीने पहले जब कैप्टन विक्रम बत्रा अपने घर पालमपुर आए थे तो वे अपने दोस्तों को 'ट्रीट' देने 'न्यूगल' कैफ़े ले गए। जब उनके एक दोस्त ने कहा, "अब तुम फ़ौज में हो। अपना ध्यान रखना..." तो उन्होंने जवाब दिया था, 'चिंता मत करो। या तो मैं जीत के बाद तिरंगा लहरा कर आऊंगा या फिर उसी तिरंगे में लिपट कर आऊंगा, लेकिन आऊंगा ज़रूर।'
 
परमवीर चक्र विजेताओं पर किताब 'द ब्रेव' लिखने वाली रचना बिष्ट रावत बताती हैं- ''विक्रम बत्रा कारगिल की लड़ाई का सबसे जाना पहचाना चेहरा थे।"
 
"उनका करिश्मा और शख़्सियत ऐसी थी कि जो भी उनके संपर्क में आता था, उन्हें कभी भूल नहीं पाता था। जब उन्होंने 5140 की चोटी पर कब्ज़ा करने के बाद टीवी पर 'ये दिल मांगे मोर' कहा था, तो उन्होंने पूरे देश की भावनाओं को जीत लिया था।"
 
"वो कारगिल युद्ध के उस सिपाही का एक चेहरा बन गए थे जो अनी मातृभूमि की रक्षा के लिए सीमा पर गया और शहीद हो गया।"
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बस से गिरी बच्ची की जान बचाई
विक्रम बत्रा बचपन से ही साहसी और निडर बच्चे थे। एक बार उन्होंने स्कूल बस से गिरी एक बच्ची की जान बचाई थी। विक्रम बत्रा के पिता गिरधारी लाल बत्रा याद करते हैं, "वो लड़की बस के दरवाज़े पर खड़ी थी, जो कि अच्छी तरह से बंद नहीं था। एक मोड़ पर वो दरवाज़ा खुल गया और वो लड़की सड़क पर गिर गई। विक्रम बत्रा बिना एक सेकंड गंवाए चलती बस से नीचे कूद गए और उस लड़की को गंभीर चोट से बचा लिया।"
 
"यही नहीं वो उसे पास के एक अस्पताल ले गए। हमारे एक पड़ोसी ने हमसे पूछा, क्या आपका बेटा आज स्कूल नहीं गया है? जब हमने कहा कि वो तो स्कूल गया है तो उसने कहा कि मैंने तो उसे अस्पताल में देखा है। हम दौड़कर अस्पताल पहुंचे तो हमें सारी कहानी पता चली।"
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परमवीर चक्र सीरियल से मिली सेना में जाने की प्रेरणा
भारतीय सेना में जाने का जज़्बा विक्रम में 1985 में दूरदर्शन पर प्रसारित एक सीरियल 'परमवीर चक्र' देखकर पैदा हुआ था। विक्रम के जुड़वाँ भाई विशाल बत्रा याद करते हैं, "उस समय हमारे यहां टेलीविजन नहीं हुआ करता था। इसलिए हम अपने पड़ोसी के यहां टीवी देखने जाते थे। मैं अपने सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस सीरियल में देखी गई कहानियां एक दिन हमारे जीवन का हिस्सा बनेंगीं।"
 
"कारगिल की लड़ाई के बाद मेरे भाई विक्रम भारतीय लोगों के दिलो-दिमाग़ में छा गए थे। एक बार लंदन में जब मैंने एक होटल रजिस्टर में अपना नाम लिखा तो पास खड़े एक भारतीय ने नाम पढ़कर मुझसे पूछा, 'क्या आप विक्रम बत्रा को जानते हैं?' मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी कि सात समुंदर पार लंदन में भी लोग मेरे भाई को पहचानते थे।"
 
मर्चेंट नेवी में चयन हो जाने के बाद भी सेना को चुना
दिलचस्प बात ये है कि विक्रम का चयन मर्चेंट नेवी में हांगकांग की एक शिपिंग कंपनी में हो गया था, लेकिन उन्होंने सेना के करियर को ही तरजीह दी।
 
गिरधारी लाल बत्रा बताते हैं, "1994 की गणतंत्र दिवस परेड में एनसीसी कैडेट के रूप में भाग लेने के बाद विक्रम ने सेना के करियर को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था। हांलाकि उनका चयन मर्चेंट नेवी के लिए हो गया था। वे चेन्नई में ट्रेनिंग के लिए जाने वाले थे। उनके ट्रेन के टिकट तक बुक हो चुके थे।"
 
"लेकिन जाने से तीन दिन पहले उन्होंने अपना विचार बदल दिया। जब उनकी मां ने उनसे पूछा कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, तो उनका जवाब था, ज़िंदगी में पैसा ही सब कुछ नहीं होता। मैं ज़िंदगी में कुछ बड़ा करना चाहता हूं, कुछ आश्चर्यचकित कर देने वाला, जिससे मेरे देश का नाम ऊंचा हो। 1995 में उन्होंने आईएमए की परीक्षा पास की।"
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माता-पिता से आख़िरी मुलाकात
साल 1999 की होली की छुट्टियों में विक्रम आख़िरी बार पालमपुर आए थे। तब उनके माता-पिता उन्हें छोड़ने बस अड्डे गए थे। उन्हें यह पता नहीं था कि वे अपने बेटे को आख़िरी बार देख रहे थे।
 
गिरधारी लाल बत्रा को वो दिन अभी तक याद हैं, "ज़्यादातर समय उन्होंने अपने दोस्तों के साथ ही बिताया। बल्कि हम लोग थोड़े परेशान भी हो गए थे। हर समय घर में उनके दोस्तों का जमघट लगा रहता था। उनकी मां ने उनके लिए उनके पसंदीदा व्यंजन राजमा चावल, गोभी के पकौड़े और घर के बने 'चिप्स' बनाए।"
 
"उन्होंने उनके साथ घर का बनाया आम का अचार भी लिया। हम सब उसे बस स्टैंड पर छोड़ने गए। जैसे ही बस चली उसने खिड़की से अपना हाथ हिलाया। मेरी आँखें नम हो गई। मुझे क्या पता था कि हम अपने प्यारे विक्रम को आख़िरी बार देख रहे थे और वो अब कभी हमारे पास लौट कर आने वाला नहीं था।"
 
सुबह 4 बजकर 35 मिनट पर वायरलेस पर आवाज़ गूंजी 'ये दिल मांगे मोर'
कारगिल में उनके कमांडिग ऑफ़िसर कर्नल योगेश जोशी ने उन्हें और लेफ़्टिनेंट संजीव जामवाल को 5140 चौकी फ़तह करने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी।
 
रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "13 जैक अलाई जो कि विक्रम बत्रा की यूनिट थी, को ये ज़िम्मेदारी दी गई थी कि वो 5140 पर पाकिस्तान की पोस्ट पर हमला कर उसे फिर से भारत के कब्ज़े में लाए। कर्नल योगेश जोशी के पास दो युवा अफ़सर थे, एक थे लेफ़्टिनेंट जामवाल और दूसरे थे कैप्टेन विक्रम बत्रा।"
 
"उन दोनों को उन्होंने बुलाया और एक पत्थर के पीछे से उन्हें दिखाया कि वहां तुम्हें चढ़ाई करनी है। रात को ऑपरेशन शुरू होगा। सुबह तक तुम्हें वहाँ पहुंचना होगा।"
 
"उन्होंने दोनों अफ़सरों से पूछा कि मिशन की सफलता के बाद आपका क्या कोड होगा? दोनों अलग-अलग तरफ़ से चढ़ाई करने वाले थे। लेफ़्टिनेंट जामवाल ने कहा 'सर मेरा कोड होगा 'ओ ये ये ये।' उन्होंने जब विक्रम से पूछा कि तुम्हारा क्या कोड होगा तो उन्होंने कहा 'ये दिल मांगे मोर।'"
 
कारगिल का 'शेरशाह'
रचना बिष्ट रावत आगे बताती हैं, "लड़ाई के बीच में कर्नल जोशी ने एक वॉकी-टॉकी का एक 'इंटरसेप्टेड' संदेश सुना। इस लड़ाई में विक्रम का कोड नेम 'शेरशाह' था।"
 
"पाकिस्तानी सैनिक उनसे कह रहे थे, "शेरशाह तुम वापस चले जाओ, नहीं तो तुम्हारी लाश वापस जाएंगी।" मैंने सुना कि विक्रम की आवाज़ थोड़ी तीखी हो गई थी। उन्होंने कहा था कि "एक घंटे रुक जाओ। फिर पता चलेगा कि किनकी लाशें वापस जाती हैं।"
 
"साढ़े तीन बजे उन्हें लेफ़्टिनेंट जामवाल से वो संदेश सुनाई दिया, 'ओ ये ये ये', जिससे पता चला कि जामवाल वहां पहुंच गए थे। थोड़ी देर बाद 4 बजकर 35 मिनट पर विक्रम का भी सफलता का कोड आ गया, 'ये दिल मांगे मोर।'"
 
4875 का दूसरा मिशन
विक्रम की सफलता पर उस समय के सेना प्रमुख जनरल वेदप्रकाश मलिक ने उन्हें ख़ुद फ़ोन कर बधाई दी थी। कैप्टन बत्रा ने जब सेटेलाइट फोन पर अपने पिता को 5140 पर कब्ज़े की सूचना दी तो वो उसे ढ़ंग से नहीं सुन पाए।
 
उन्हें ख़राब टेलीफ़ोन लाइन पर 'कैप्चर' शब्द सुनाई पड़ा। उन्हें लगा कि कैप्टन बत्रा को पाकिस्तानियों ने 'कैप्चर' कर लिया है। बाद में विक्रम ने उनकी ग़लतफ़हमी दूर की। अब विक्रम बत्रा को अगला लक्ष्य दिया गया 4875 को जीतने का।
 
उस समय उनकी तबीयत ख़राब थी। उनके सीने में दर्द था और आंख सुर्ख़ लाल हो चुकी थी। कर्नल योगेश जोशी उन्हें ऊपर भेजने में झिझक रहे थे लेकिन बत्रा ने ही खुद ज़ोर दे कर कहा कि वो इस काम को पूरा करेंगे।
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साथी को सुरक्षित स्थान पर लाने के चक्कर में गोली लगी
रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "4875 मुश्को वैली के पास है। पहला ऑपरेशन द्रास में हुआ था। ये लोग पत्थरों का कवर लेकर दुश्मन पर फ़ायर कर रहे थे, तभी उनके एक साथी को गोली लगी और वो उनके सामने ही गिर गया। वो सिपाही खुले में पड़ा हुआ था। विक्रम और रघुनाथ चट्टानों के पीछे बैठे थे।"
 
"विक्रम ने रघुनाथ से कहा कि हम अपने घायल साथी को सुरक्षित स्थान पर लाएंगे। रघुनाथ ने उनसे कहा कि मुझे नहीं लगता कि वो ज़िंदा बच पाएंगे। अगर आप बाहर निकलेंगे तो आपके ऊपर फ़ायर आएगा।"
 
"ये सुनते ही विक्रम बहुत नाराज़ हो गए और बोले, "क्या आप डरते हैं?" रघुनाथ ने जवाब दिया, "नहीं साहब मैं डरता नहीं हूं। मैं तो सिर्फ़ आपको आगाह कर रहा हूं। आप आज्ञा देंगे तो हम बाहर जाएंगे।" विक्रम ने कहा‍ कि "हम अपने सिपाही को इस तरह अकेले नहीं छोड़ सकते।"
 
"जैसे ही रघुनाथ चट्टान के बाहर कदम रखने वाले थे, विक्रम ने उन्हें कॉलर से पकड़ कर कहा, "साहब आपके तो परिवार और बच्चे हैं। मेरी अभी शादी नहीं हुई है। सिर की तरफ़ से मैं उठाउंगा। आप पैर की तरफ़ से पकड़िएगा।" ये कहकर विक्रम आगे चले गए और जैसे ही वो उनको उठा रहे थे, उनको गोली लगी और वो वहीं गिर गए।"
 
साथियों को सदमा
विक्रम की मौत का सबसे ज़्यादा दु:ख उनके साथियों और कमांडिंग ऑफ़िसर कर्नल जोशी को था। मेजर जनरल मोहिंदर पुरी को भी ये सुन कर गहरा सदमा लगा था।
 
जनरल पुरी याद करते हैं, "विक्रम बहुत ही डैशिंग यंग ऑफ़िसर था। हम लोगों के लिए ये बहुत दुख की बात होती है कि आप सुबह यूनिट में जाएं और शाम को वो यूनिट अटैक में जा रही है। सुबह आप सबके साथ हाथ मिलाते हैं और रात को आपके पास संदेश आता है कि वो शख़्स लड़ाई में शहीद हो गया।"
 
जब बुरी ख़बर उनके माता-पिता को मिली
कैप्टेन विक्रम बत्रा के बलिदान की ख़बर जब उनके घर पहुंची, तो उनके पिता गिरधारीलाल बत्रा घर पर मौजूद नहीं थे। सीनियर बत्रा बताते हैं कि हमें विक्रम की शहादत की ख़बर 8 जुलाई को मिली। मेरी पत्नी कमल कांता स्कूल से अभी घर लौटी ही थीं कि हमारे पड़ोसियों ने उन्हें बताया कि सेना के दो अफ़सर घर पर आए थे, लोकिन घर पर कोई मौजूद नहीं था।"
 
"ये सुनते ही मेरी पत्नी रोने लगीं, क्योंकि उन्हें अंदाज़ा था कि इस तरह अफ़सर कोई ख़राब ख़बर ही देने आते हैं। उन्होंने भगवान को याद किया और मुझे फ़ोन मिला कर फ़ौरन घर आने के लिए कहा। मैं जब घर पहुंचा तो अफ़सरों को देखकर ही समझ गया कि विक्रम अब इस दुनिया से जा चुके हैं।"
 
"इससे पहले कि वो अफ़सर मुझसे कुछ कहते, "मैंने उनसे इंतज़ार करने के लिए कहा। मैं अपने घर के अंदर पूजा के कमरे में गया। मैंने भगवान के सामने माथा टेका। जब मैं बाहर आया तो उन अफ़सरों ने मेरा हाथ पकड़कर अलग आने के लिए कहा। फिर उन्होंने मुझसे कहा, "बत्रा साहब विक्रम अब इस दुनिया में नहीं हैं।" ये सुनते ही मैं बेहोश हो कर नीचे गिर गया।"
 
दूसरा बेटा देश के लिए...
जब उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया तो शहर का लगभग हर शख़्स वहां मौजूद था। रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "सेना प्रमुख जनरल वेदप्रकाश मलिक जब विक्रम के माता-पिता से शोक प्रकट करने उनके घर गए तो उन्होंने कहा कि विक्रम इतने प्रतिभाशाली थे कि अगर उनकी शहादत नहीं हुई होती तो वो मेरी कुर्सी पर बैठे होते एक दिन।"
 
"विक्रम की मां ने मुझसे कहा कि उनकी दो बेटियाँ थीं और वो चाहती थीं कि उनके एक बेटा पैदा हो, लेकिन उनके जुड़वां बेटे पैदा हुए। मैं हमेशा भगवान से पूछती थी कि मैंने तो एक ही बेटा चाहा था। मुझे दो क्यों मिल गए? जब विक्रम कारगिल की लड़ाई में मारे गए, तब मेरी समझ में आया कि एक बेटा मेरा देश के लिए था और एक मेरे लिए।"
 
विक्रम बत्रा की लव स्टोरी
कैप्टेन विक्रम बत्रा की एक गर्लफ़्रेंड हुआ करती थी डिंपल चीमा, जो चंडीगढ़ में रहती थीं। इस समय उनकी उम्र 46 साल है, वे पंजाब सरकार के एक स्कूल में कक्षा 6 से 10 के बच्चों को समाज विज्ञान और अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं।
 
रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "उन्होंने मुझसे स्वीकार किया कि पिछले 20 सालों में कोई भी ऐसा दिन नहीं बीता जब उन्होंने विक्रम को याद नहीं किया हो।''
 
"एक बार नादा साहेब गुरुद्वारे में परिक्रमा के बाद विक्रम ने मुझसे कहा था, "बधाई हो मिसेज़ बत्रा। हमने चार फेरे ले लिए हैं और आपके सिख धर्म के अनुसार अब हम पति और पत्नी हैं।" डिंपल और विक्रम कॉलेज में एक साथ पढ़ते थे। अगर विक्रम कारगिल से सही-सलामत वापस लौटे होते तो उन दोनों की शादी हो गई होती।"
 
"विक्रम की शहादत के बाद उनके पास उनकी एक दोस्त का फ़ोन आया कि विक्रम बुरी तरह से घायल हो गए हैं और उन्हें उनके माता-पिता को फ़ोन करना चाहिए। जब वेपालमपुर पहुंचीं तो उन्होंने ताबूत में विक्रम के पार्थिव शरीर को देखा। वे जान-बूझकर उसके पास नहीं गईं क्योंकि वहाँ पर मीडिया के बहुत से लोग मौजूद थे।"
 
"उसके बाद वो चंडीगढ़ लौट आईं और उन्होंने तय किया कि वो किसी से शादी करने की बजाय अपनी पूरी ज़िंदगी विक्रम की यादों में बसर करेंगी। डिंपल ने मुझे बताया कि कारगिल पर जाने से पहले विक्रम मुझे ठीक साढ़े सात बजे फ़ोन किया करते थे, चाहे वो देश के किसी भी कोने में हों।" "आज भी जब मैं कभी घड़ी की तरफ़ देखती हूं और उसमें साढ़े सात बजे हों तो मेरे दिल की एक धड़कन मिस हो जाती है।"
 
हज़ारों लोगों के सामने राष्ट्रपति ने दिया परमवीर चक्र
कैप्टेन विक्रम बत्रा को मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया। 26 जनवरी, 2000 को उनके पिता गिरधारीलाल बत्रा ने हज़ारों लोगों के सामने उस समय के राष्ट्रपति के आर नाराणयन से वो सम्मान हासिल किया।
 
गिरधारी लाल बत्रा याद करते हैं, "बेशक ये हमारे लिए बहुत गौरव का क्षण था। अपने बेटे की बहादुरी के लिए राष्ट्रपति से परमवीर चक्र ग्रहण करना। लेकिन जब हम इस समारोह के बाद गाड़ी में बैठकर वापस आ रहे थे, मेरा दूसरा बेटा विशाल भी मेरी बग़ल में बैठा हुआ था। रास्ते में मेरी आंखों से आंसू निकलने लगे।"
 
"विशाल ने मुझसे पूछा डैडी क्या बात है? मैंने कहा- बेटा मेरे मन में ये बात आ रही है कि अगर इस अवॉर्ड को विक्रम ने अपने हाथों से लिया होता तो हमारे लिए बहुत ही खुशी की बात होती।"

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