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काश ऐसी 'चुड़ैल' हर गांव में होती!

हमें फॉलो करें काश ऐसी 'चुड़ैल' हर गांव में होती!
, गुरुवार, 20 जुलाई 2017 (12:59 IST)
आलिया नाज़की (डोडा)
आज आपको एक बहुत ही अलग तरह के स्कूल की सैर कराते हैं। यह स्कूल भारत प्रशासित कश्मीर के पहाड़ी ज़िले डोडा के एक दूरदराज गांव में है। यह गांव हिमालय के एक उच्च और बीहड़ पहाड़ी पर स्थित है। इतना बीहड़ कि वहां न गाड़ी है न बस, क्योंकि सड़क है ही नहीं। ऐसे गांव में बच्चे अगर आपसे शेक्सपियर और हैरी पॉर्टर के साथ फ्रेंच में गायकी की बात करें तो असामान्य बात तो हुई न।
 
आपको ऊंचाई से डर लगता है? मुझे लगता है। आप कभी घोड़े पर बैठे हैं? मैं नहीं बैठी। आप कभी घोड़े पर बैठ कर पहाड़ पर चढ़े हैं? मैं नहीं चढ़ी।
 
ब्रेसवाना जाने को लेकर बहुत ख़ुशी थी कि एक दिलचस्प और अनूठा कहानी बीबीसी के पाठकों तक पहुंचाऊं। लेकिन यह नहीं सोचा कि वहां का सफर तय कैसे किया जाए। डोडा में यात्रा तय हो गई। चिनाब सुंदर आकर्षक घाटी में सड़क तंग ज़रूर थी, लेकिन चिकनी और अच्छी थी।
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डोडा से आगे यात्रा हम अपनी कार में नहीं तय कर सकते थे। डोडा से आगे सड़क बस नाम की ही है और ऐसी ख़तरनाक कि केवल इसी इलाक़े के रहने वाले ड्राइवर उस पर गाड़ी चलाते हैं। पतली, तंग और नाम मात्र की सड़क जो कभी नाले में तब्दील हो जाती तो कभी ग़ायब ही हो जाती है। जैसे-तैसे तीन घंटे बाद हम वहां सरीनी पहुंचे जहां पर सड़क ख़त्म हो जाती है।
 
वहाँ से आगे? अल्लाह का नाम लेकर, खच्चर पर चढ़ी, और दोनों हाथों से ज़ीन को पकड़े रखा! डेढ़ घंटे की ख़ासी ऊंची और कठिन चढ़ाई के बाद हम अंततः ब्रेसवाना पहुंचे। छोटा सा बहुत ही सुंदर पहाड़ों में घिरा हुआ ब्रेसवाना। हमारी टीम घोड़े से जैसे ही गांव में पहुंची कि चारों ओर से छोटे बच्चों के चेहरे घरों की खिड़कियों से झांकने लगे।
 
हर चेहरा मुस्कुराता दिखा। बच्चों ने अपनी बुलंद आवाज़ से 'गुड इवनिंग मैम और गुड इवनिंग सर कहा। उन्होंने ऐसा कहकर मेरा स्वागत किया। ये बच्चे फर्राटेदार इंग्लिश बोलते हैं। अंग्रेज़ी बोलने के कारण इनके आत्मविश्वास भी सातवें आसमान पर है।
 
ये अपने घरों से स्कूल जाने वाले पहले बच्चे हैं। अगर यह स्कूल ना होता तो गांव में रंग नहीं होता। इस स्कूल को हाजी फाउंडेशन ने 2009 में केवल 30 से 32 बच्चों के साथ शुरू किया था। आज की तारीख में इस स्कूल में लगभग 500 बच्चों को आठवीं क्लास तक शिक्षा दी जाती है। ब्रेसवाना के अलावा आसपास के पंद्रह गांवों के बच्चे ख़तरनाक पहाड़ी वाले रास्ते तय कर हर दिन सुबह हाजी पब्लिक स्कूल आते हैं।
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दूसरे गांव के कई लोग केवल इस स्कूल के कारण ब्रेसवाना आकर रहने लगे हैं। कई लोगों ने अपने बच्चों को वहां भेज दिया है ताकि वह हाजी पब्लिक स्कूल में शिक्षा हासिल कर सकें। जब आप स्कूल जाएंगे को अहसास होगा कि आप किसी बड़े शहर के अच्छे स्कूल भी बढ़िया स्कूल में हैं। 
 
कश्मीर के इस दूरदराज इलाक़े में शिक्षा प्रणाली वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिए, लेकिन हाजी पब्लिक स्कूल के बच्चों से बात करके, उनसे मिलकर आप हैरत में पड़ जाएंगे। सबा हाजी, हाजी पब्लिक स्कूल की निदेशक हैं और वहाँ बच्चों को पढ़ाती भी हैं। वह ट्विटर पर ख़ुद को 'चिनाब की चुड़ैल' कहती हैं! ब्रेसवाना सबा के पिता सलीम हाजी का पैतृक गांव है, लेकिन सबा का जन्म और परवरिश दुबई में हुई।
 
15 साल की उम्र में वह शिक्षा हासिल करने के लिए बेंगलुरु चली गईं। सबा 10 सालों तक बेंगलुरु में रहीं। वहीं से एक संस्था में वरिष्ठ संपादक के रूप में काम शुरू कर दिया। फिर अचानक 2008 में वह नौकरी छोड़ कर वापस डोडा आ गईं और वहीं रहने का फ़ैसला किया। 2008 में कश्मीर में हालात एक बार फिर काफ़ी ख़राब हो गए थे। अमरनाथ मंदिर बोर्ड को ज़मीन हस्तांतरण पर शुरू हुआ विवाद बढ़ता गया और उसके ख़िलाफ़ होने वाले विरोध में कई लोगों की जानें गईं।
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सबा उन दिनों बेंगलुरु में थीं और उनके माता-पिता कश्मीर में। एक दिन उनके मामा ने उन्हें किश्तवाड़ से फ़ोन किया और बिगड़ते हुए हालात के बारे में बताया। तब उन्हें अहसास हुआ कि वह अपने माता-पिता से बहुत दूर थीं जबकि वह ज़ाहिरा तौर पर ख़तरे में थे। इस घटना के बाद सबा ने फ़ैसला किया कि वह अपने माता-पिता के पास रहना चाहती हैं और वे वापस कश्मीर आ गईं। 2008 में एक छोटा सा स्कूल खोलने की बात हुई और निर्णय लिया गया कि अपने ही पैतृक गांव में इसे खोला जाए।
 
जब सबा ने स्कूल शुरू किया तो वह और उनकी मां तसनीम हाजी ही बच्चों को पढ़ाती थीं। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए स्कूल भी बड़ा होता गया और उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि इतने दूरदराज क्षेत्र में अच्छे शिक्षक मिलना बहुत मुश्किल हो जाता है। स्थानीय लोग इतने पढ़े-लिखे नहीं थे और शहर से आकर कोई ब्रेसवाना जैसे गांव में रहना नहीं चाहता था।
 
तब सबा के मन में यह विचार आया कि क्यों न एक स्वयंसेवी कार्यक्रम शुरू किया जाए यानी स्वयंसेवकों को आमंत्रित किया जाए कि वह ब्रेसवाना आकर रहे और बच्चों को पढ़ाएं एक तरह से देखा जाए तो इस पहल की शुरुआत मजबूरी के तहत की गई थी, लेकिन यही कार्यक्रम उस समय इस स्कूल को अद्वितीय बनाता है।

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