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#UnseenKashmir: 'कभी भारतीय कश्मीरी से शादी मत करना'

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, मंगलवार, 30 मई 2017 (11:37 IST)
- शहनाज़ भट्ट (भारतीय से ब्याही पाकिस्तानी औरत)
"मैं पाकिस्तानी साइड (पाकिस्तान प्रशासित) के कश्मीर से हूं लेकिन भारत के कश्मीर से आए हिज़्बुल मुजाहिदीन के एक मिलिटेंट से मेरी शादी हुई। फिर उमर अब्दुल्लाह सरकार के वक़्त 2011 में 'सरेंडर स्कीम' के चक्कर में मेरे पति ने भारत लौटने की ज़िद की और इनके साथ मैं और हमारे बच्चे भी भारत वाले कश्मीर आ गए।
 
'हमने नहीं बनाया आतंकवादी'
पर अब यहां फंस गए हैं, चाहकर भी वापस उस तरफ़ वाले कश्मीर में नहीं जा पा रहे हैं। मैं पाकितान की तरफ़ वाले कश्मीर की सभी औरतों को कहूंगी कि कभी अपना रिश्ता इधर न करें, और अगर अभी है तो उसे फ़ौरन तोड़ दें। सरकार मेरे पति को आतंकवादी मानती है पर हमारा क्या कसूर है। हमने तो इन्हें आतंकवादी नहीं बनाया। हमने तो सिर्फ़ शादी की और फिर यहां चले आए। हमें बांधकर क्यों रखा है?
 
मौक़ा नहीं मिला
इन साढ़े पांच सालों में एक बार भी वापस अपने वतन, अपने परिवार के पास जाने का मौका नहीं मिला। इस दौरान मेरे वालिद चल बसे और मुझे एक साल बाद ख़बर मिली। मेरे जैसी हज़ारों लड़कियां हैं मुज़फ़्फ़राबाद में, जिन्होंने भारतीय कश्मीरियों से शादी की है। आख़िर दोनों हिस्से हैं तो एक ही कश्मीर के।
 
सरेंडर स्कीम
भारत से ये सब कश्मीरी कम उम्र में मिलिटेंट बनने पाकिस्तान आते हैं और फिर कुछ साल में वो सब छोड़कर आम ज़िंदगी बिताने लगते हैं। मेरे पति भी सब्ज़ी-फल की दुकान लगाने लगे थे। मां-बाप की रज़ामंदी से हमारी शादी हो गई।
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फिर साल 2011 में 'सरेंडर स्कीम' आई और इन्होंने ज़िद की कि वे अपने मां-बाप, भाई-बहन से मिलना चाहते हैं। मेरे मां-बाप ने बहुत मना किया और कहा कि उन्हें डर है कि वापस आने का रास्ता नहीं मिलेगा। मुझे यक़ीन नहीं हुआ। मुझे भारत का कश्मीर देखने का बड़ा शौक भी था। तो इनकी बात मान ली।
 
मुक़दमा
ये चाहते थे कि इनके घरवाले भी मुझसे मिलें, एक शादीशुदा औरत के पास और क्या चारा था। ना कहने से घर टूट सकता था जिससे बच्चों की ज़िंदगी बर्बाद हो जाती। हम 10 दिसंबर 2011 को नेपाल के रास्ते से कश्मीर आए।
 
'सरेंडर स्कीम' में बताए गए चार आधिकारिक रास्तों में ये नहीं था पर उन रास्तों से हमें पाकिस्तानी प्रशासन जाने ही नहीं दे रहा था। यहां भारत के कश्मीर में आने के बाद हमें गिरफ़्तार कर लिया गया और ग़ैर-क़ानूनी तरीके से सीमा पार करने का मुकदमा दायर कर दिया। वो आज भी चल रहा है।
 
मैं जब यहां आई थी तो सोचा था एक महीने बाद लौट जाऊंगी, पर थाने और अदालत के ही चक्कर काट रही हूं। अब तक पहचान का कोई कार्ड नहीं मिला है। जब भी कोई बात उठाते हैं आने-जाने की, पासपोर्ट बनवाने की, तो कह दिया जाता है कि आप ग़ैरक़ानूनी हैं।
 
अगर हम इतने ही ग़ैरक़ानूनी हैं तो हमें वापस क्यों नहीं भेज देते? और सारे मुल्कों में भी तो यही किया जाता है। एक तरफ़ तो भारत-पाकिस्तान दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं, और फिर हम आम जनता को मुकदमों में उलझाया जाता है।
भरोसा नहीं
यहां के लोगों पर भरोसा नहीं होता। यहां सहेलियां हैं पर दिल की बात किसी से नहीं कर पाती हूं। लोगों के चेहरे कुछ और हैं और लगता है कि अंदर से वो कुछ और हैं। साढ़े पांच सालों से हमें लग रहा है कि हमें किसी जेल में बंद कर दिया है। इस बीच छोटे भाई की शादी हो गई और मुझे पता ही नहीं चला।
 
अभी क़रीब आठ महीने से इंटरनेट और व्हाट्सऐप के ज़रिए उस तरफ़ बात हो जाती है। पर यहां सरकार बार-बार इंटरनेट बंद कर देती है तो उसका भी आसरा नहीं रहता। हर व़क्त यहां हिंसा होती रहती है, हर व़क्त ख़तरे का अहसास रहता है। टेंशन रहती है।
 
परिजनों की कमी
खेत में काम करना पड़ता है जो पहले कभी नहीं किया था। भाषा और तौर-तरीके भी अलग हैं। पाकिस्तान में छूट गए परिवार की कमी उन्हें बहुत खलती है। कई और लड़कियां भी हैं जो आज़ाद कश्मीर से बाहर के देशों में शादी कर जाती हैं पर उन्हें वापस आने में कोई दिक्कत नहीं होती।
 
हम यही सोचते हैं कि भारत क्यों आए? इन लोगों पर गुस्सा आता है कि क्यों लाए थे? हमें झूठ बोलकर वहां से क्यों ले आए? मन करता है कि इनके साथ (अपने पति के साथ) कुछ ऐसा करूं, ऐसा इलाज करूं कि याद रखें। फिर सोचती हूं कि उससे क्या होगा? सब कुछ बस झूठ ही लगता है।
 
(बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य और माजिद जहांगीर से बातचीत पर आधारित)

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