शनिवार 4 दिसंबर को साल का अंतिम सूर्यग्रहण होगा। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के मुताबिक ये सूर्यग्रहण दक्षिणी गोलार्ध के कई हिस्सों में दिखाई देगा। हालांकि ये ग्रहण भारत में नहीं दिखेगा क्योंकि भारत दक्षिणी गोलार्ध में नहीं है।
जब चांद धरती और सूर्य के बीच आ जाता है तब सूर्यग्रहण होता है। चंद्रमा की परछाई धरती पर पड़ती है और सूर्य का कुछ हिस्सा या पूरा सूर्य ढक जाता है।
पूर्ण सूर्यग्रहण के लिए धरती, चंद्रमा और सूर्य को एक सीधी रेखा में आना होता है। ये सूर्यग्रहण पूर्ण ग्रहण के रूप में सिर्फ़ अंटार्कटिका में दिखेगा।
कुछ हिस्सों में लोग पूर्ण ग्रहण तो नहीं देख सकेंगे लेकिन उन्हें आंशिक ग्रहण दिखाई देगा। सेंट हेलेना, नामीबिया, लेसेथो, दक्षिण अफ़्रीका, दक्षिण जॉर्जिया और सैंडविच आइलैंड, क्रोज़ेट आइलैंड, फाल्कलैंड आईलैंड, चिली, न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में लोग आंशिक सूर्यग्रहण देख सकेंगे। ये सूर्यग्रहण नासा के लाइवस्ट्रीम चैनल पर भी देखा जा सकेगा।
ग्रहण को लेकर आज भी कायम हैं डराने वाले विश्वास
दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जिनके लिए ग्रहण किसी ख़तरे का प्रतीक है- जैसे दुनिया के ख़ात्मे या भयंकर उथल-पुथल की चेतावनी।
हिंदू मिथकों में इसे अमृतमंथन और राहु-केतु नामक दैत्यों की कहानी से जोड़ा जाता है और इससे जुड़े कई अंधविश्वास प्रचलित हैं। ग्रहण सदा से इंसान को जितना अचंभित करता रहा है, उतना ही डराता भी रहा है।
असल में, जब तक मनुष्य को ग्रहण के वजहों की सही जानकारी नहीं थी, उसने असमय सूरज को घेरती इस अंधेरी छाया को लेकर कई कल्पनाएं कीं, कई कहानियां गढ़ीं।
17वीं सदी के यूनानी कवि आर्कीलकस ने कहा था कि भरी दोपहर में अंधेरा छा गया और इस अनुभव के बाद अब उन्हें किसी भी बात पर अचरज नहीं होगा।
मज़े की बात यह है कि आज जब हम ग्रहण के वैज्ञानिक कारण जानते हैं तब भी ग्रहण से जुड़ी ये कहानियां और ये अंधविश्वास बरक़रार हैं।
कैलिफोर्निया की ग्रिफिथ वेधशाला के निदेशक एडविन क्रप कहते हैं, ''सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षों तक भी अधिकांश लोगों को मालूम नहीं था कि ग्रहण क्यों होता है या तारे क्यों टूटते है। हालांकि आठवीं शताब्दी से ही खगोलशास्त्रियों को इनके वैज्ञानिक कारणों की जानकारी थी।''
क्रप के मुताबिक़, ''जानकारी के इस अभाव की वजह थी- संचार और शिक्षा की कमी। जानकारी का प्रचार-प्रसार मुश्किल था जिसके कारण अंधविश्वास पनपते रहे।"
वो कहते हैं, "प्राचीन समय में मनुष्य की दिनचर्या कुदरत के नियमों के हिसाब से संचालित होती थी। इन नियमों में कोई भी फ़ेरबदल मनुष्य को बेचैन करने के लिए काफ़ी था।''
ग्रहण के बारे में विभिन्न सभ्यताओं का नज़रिया
प्रकाश और जीवन के स्रोत सूर्य का छिपना लोगों को डराता था और इसीलिए इससे जुड़ी तरह-तरह की कहानियां प्रचलित हो गई थीं। सबसे व्यापक रूपक था सूरज को ग्रसने वाले दानव का।
एक ओर पश्चिमी एशिया में मान्यता थी कि ग्रहण के दौरान ड्रैगन सूरज को निगलने की कोशिश करता है और इसलिए वहां उस ड्रैगन को भगाने के लिए ढोल-नगाड़े बजाए जाते थे।
वहीं, चीन में मान्यता थी कि सूरज को निगलने की कोशिश करने वाला दरअसल स्वर्ग का एक कुत्ता है। पेरुवासियों के मुताबिक़, यह एक विशाल प्यूमा था और वाइकिंग मान्यता थी कि ग्रहण के समय आसमानी भेड़ियों का जोड़ा सूरज पर हमला करता है।
खगोलविज्ञानी और वेस्टर्न केप विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर जरीटा हॉलब्रुक कहते हैं, "ग्रहण के बारे में विभिन्न सभ्यताओं का नज़रिया इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ प्रकृति कितनी उदार या अनुदार है। जहां जीवन मुश्किल है, वहाँ देवी-देवताओं के भी क्रूर और डरावने होने की कल्पना की गई और इसीलिए वहाँ ग्रहण से जुड़ी कहानियाँ भी डरावनी हैं। जहां जीवन आसान है, भरपूर खाने-पीने को है, वहाँ ईश्वर या पराशक्तियों से मानव का रिश्ता बेहद प्रेमपूर्ण होता है और उनके मिथक भी ऐसे ही होते हैं।"
मध्यकालीन यूरोप में, प्लेग और युद्धों से जनता त्रस्त रहती थी, ऐसे में सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण उन्हें बाइबल में प्रलय के वर्णन की याद दिलाता था। प्रोफ़ेसर क्रिस फ्रेंच कहते हैं, 'लोग ग्रहण को प्रलय से क्यों जोड़ते थे, इसे समझना बेहद आसान है।
बाइबल में उल्लेख है कि क़यामत के दिन सूरज बिल्कुल काला हो जाएगा और चाँद लाल रंग का हो जाएगा।
सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण में क्रमश: ऐसा ही होता है। फिर लोगों का जीवन भी छोटा था और उनके जीवन में ऐसी खगोलीय घटना बमुश्किल एक बार ही घट पाती थी, इसलिए यह और भी डराती थी।