हेलियर चेंग
बीबीसी न्यूज़
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का एक साक्षात्कार सुर्ख़ियों में है। इसमें उन्होंने कहा है कि उदारवाद बेकार हो गया है।
फ़ाइनेंशियल टाइम्स को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि शरणार्थियों, प्रवासियों और एलजीबीटी जैसे मुद्दों पर उदारवादी विचारों को अब 'अधिकतर आबादी ने नकार दिया है।'
पुतिन ने कहा है कुछ पश्चिमी शक्तियों ने निजी तौर पर ये स्वीकार किया है कि 'बहुसंस्कृतिवाद अब स्थायी नहीं रह गया है।' लेकिन यूरोपीय परिषद के अध्यक्ष डोनल्ड टस्क उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने पुतिन की इस टिप्पणी की आलोचना करते हुए कहा है, "जो भी ये दावा करता है कि उदारवादी प्रजातंत्र अप्रचलित हो गया है, वो ये भी दावा करता है कि आज़ादी विलुप्त हो गई है, क़ानून के शासन का कोई मतलब नहीं है और मानवाधिकार बेकार है।"
तो पुतिन अब ये क्यों कह रहे हैं और क्या वो सही हैं?
सबसे पहली बात- उदारवाद है क्या?
ये जटिल है क्योंकि अलग-अलग लोगों के लिए इसके अलग-अलग मायने हैं, लेकिन अगर मौटे तौर पर देखा जाए तो इसकी तीन परिभाषाएं हैं।
एक है आर्थिक उदारवाद, मेर्रियम-वेबस्टर शब्दकोश के मुताबिक, ये 'खुली प्रतियोगिता' और 'मुक्त बाज़ार' पर ज़ोर देता है। ये भूमंडलीकरण और अर्थव्यवस्था में सरकार के कम दख़ल से जुड़ा है।
एक है राजनीतिक उदारवाद, शब्दकोश में जिसकी परिभाषा है कि ये, 'आर्थिक प्रगति में विश्वास, मानव जाति की ज़रूरी अच्छाई और व्यक्ति की स्वायत्तता के साथ राजनीतिक और नागरिक आज़ादी की सुरक्षा पर आधारित है।'
और एक है सामाजिक उदारवाद, जो एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के मुताबिक, अल्पसंख्यक समूहों की सुरक्षा, एलजीबीटी जैसे मुद्दों और समलैंगिक शादियों को बढ़ावा देने से जुड़ा है।
कुछ लिबरल यानी उदारवादी शब्द का इस्तेमाल एक गाली के तौर पर भी करते हैं, हालांकि इसके भी मायने अलग-अलग हैं। इस मामले में, पुतिन ने कुछ पश्चिमी सरकारों के रवैये की आलोचना की है और विशेष तौर पर प्रवासियों, बहुसंस्कृतिवाद और एलजीबीटी जैसे मुद्दों का उल्लेख किया है। ऐसे में ये लगता है कि वो सामाजिक और राजनीतिक उदारवाद की बात कर रहे थे।
वो दुनिया के ऐसे पहले नेता नहीं है जो इस शब्द को पसंद नहीं करते हैं। हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ख़ास तौर पर कह चुके हैं कि वो 'एक ग़ैर उदारवादी राष्ट्र' का निर्माण करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि चीन और रूस जैसी तानाशाही पश्चिमी लोकतंत्र से बेहतर हैं।
तो क्या उदारवाद का युग बीत गया है?
हाल के सालों तक उदारवाद को कई देशों में आदर्श माना जाता रहा था। फ़ाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक़ उदारवाद 'दूसरे विश्व युद्ध के बाद से प्रभावशाली पश्चिमी विचारधारा रही है।' हालांकि, बहुत से लोग ये मान रहे हैं कि उदारवाद अब पतन की ओर है। ब्रिटेन में जनमत संग्रह में ब्रेक्ज़िट का समर्थन या अमरीका में डोनल्ड ट्रंप और इटली में मैतियो सालवीनी जैसे जनवादी नेताओं का उभार भी इसके उदाहरण हैं।
लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर माइकल कॉक्स ने इस बारे में बीबीसी से कहा, "ये स्पष्ट है कि साल 2008 तक जो उदारवादी व्यवस्था थी वो अब ख़तरे में है।"
वे कहते हैं कि 2008 में आई आर्थिक मंदी इसकी बड़ी वजह थी। भूमंडलीकरण और ये तथ्य कि 'बाज़ारों को सब कुछ तय करने दिया गया' से भी 'पहचान और संस्कृति से जुड़े कई बड़े सवाल खड़े हुए हैं। कई लोगों को लगा कि उनका अपना देश अब अपना नहीं रहा है।'
लेकिन उनका तर्क है कि अब भी हम एक 'उदारवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था में रह रहे हैं' और 'दुनिया के अधिकतर देश अब भी उदारवादी प्रजातंत्र ही हैं न की तानाशाही।'
हालांकि वे ये मानते हैं कि उदारवाद को कुछ मुद्दों पर काम करने की ज़रूरत है जैसे कि वेतन का ठहर जाना और सामुदायिक भावना का कम होना।
क्या उदारवाद पर पुतिन की राय सही है?
पुतिन ने कहा है कि जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने 10 लाख से अधिक शरणार्थियों, जिनमें से अधिकतर सीरिया से आए हैं, को जगह देकर एक 'माफ़ न करने लायक़ ग़लती' की है।
"ये उदारवादी विचार मान लेता है कि कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। प्रवासी बिना किसी डर के हत्याएं कर सकते हैं, बलात्कार कर सकते हैं और प्रवासियों की रक्षा ज़रूरी है।"
उन्होंने कहा, "ये बड़ी आबादी के हितों से टकरा रहा है" जनमत सर्वेक्षण और भी सूक्ष्म तस्वीर दिखाते हैं। प्यू रिसर्च सेंटर का एक सर्वे संकेत देता है कि प्रवासियों को स्वीकार करने वाले देशों के अधिकतर नागरिक प्रवासियों को एक ताक़त के तौर पर देखते हैं न कि बोझ।
हालांकि प्यू रिसर्च सेंटर में वैश्विक प्रवासन और जनसांख्यिकी के निदेशक मार्क लोपेज बीबीसी से कहते हैं कि इस बारे में लोगों की राय भी अलग-अलग देशों में अलग-अलग है।
वे कहते हैं कि "ग्रीस, जर्मनी और इटली जैसे यूरोपीय देशों में जहां हाल के सालों में सबसे ज़्यादा शरणार्थी पहुंचे हैं, वहां 2014 के बाद से शरणार्थियों के बारे में लोगों की राय नकारात्मक होने लगी है। हालांकि जर्मनी में अब भी 59 फ़ीसदी लोग शरणार्थियों के बारे में सकारात्मक राय रखते हैं।"
'लेकिन इसके उलट प्रवासियों का पारंपरिक गंतव्य रहे, लेकिन हाल की प्रवासी लहर से अछूते रहे ब्रिटेन, फ्रांस और स्पेन जैसे देशों में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है जो मानते हैं कि प्रवासियों ने उनके देश को मज़बूत किया है।"
1990 के दशक के बाद से अमरीका में भी इस बारे में लोगों का नज़रिया बदला है। लोपेज़ के मुताबिक अब पहले से ज़्यादा अमेरिकी ये मानते हैं कि शरणार्थी सकारात्मक प्रभाव लाते हैं।
इसका सह संबंध इस बात से भी है कि हाल के सालों में अमरीका के अलग-अलग प्रांतों में प्रवासियों की संख्या पहले से ज़्यादा बढ़ी है और 'जो लोग किसी प्रवासी को निजी तौर पर जानते हैं उनका नज़रिया प्रवासियों को लेकर सकारात्मक हुआ है।' हालांकि शरणार्थियों की बात की जाए तो थोड़ा जटिल है।
प्यू के सर्वे के मुताबिक जर्मनी, स्वीडन, फ्रांस, ब्रिटेन, ग्रीस और इटली जैसे यूरोपीय देशों के अधिकतर लोग हिंसा से जान बचाकर भाग रहे शरणार्थियों को स्वीकार करने का समर्थन करते हैं। हालांकि पोलैंड और हंगरी के लोगों की राय अलग है।
हालांकि प्यू के सर्वे में शामिल सभी यूरोपीय देशों के लोगों ने शरणार्थी संकट से निबटने के यूरोपीय यूनियन के तरीक़े को ख़ारिज किया। इससे ये समझ आता है कि यूरोपीय यूनियन की राजनीतिक व्यवस्था और प्रवासन से जुड़े कुछ व्यवहारिक मुद्दों को लेकर असंतोष है लेकिन जिन लोगों का सर्वे किया गया उनमें से अधिकतर अब भी शरणार्थियों को स्वीकार करने के सिद्धांत का समर्थन करते हैं।
एलजीबीटी मुद्दे का क्या?
पुतिन ने ये भी कहा कि उदारवादी सरकारें एलजीबीटी मूल्यों को थोपना पसंद करती हैं जबकि जनसंख्या में शामिल दसियों लाख लोग इसका विरोध करते हैं।
"हमें एलजीबीटी लोगों से कोई परेशानी नहीं है... लेकिन कुछ बातें हमें बहुत ज़्यादा लगती हैं। वो अब दावा करते हैं कि बच्चों के पांच या 6 तरह की लैंगिक भूमिका हो सकती है।" लेकिन एलजीबीटी मुद्दों को लेकर दुनिया के अलग-अलग देशों में लोगों की राय अलग है।
उदाहरण के तौर पर, प्यू शोध में पता चला है कि पश्चिमी देशों के अधिकतर लोग समलैंगिक विवाहों का समर्थन करते हैं जबकि अधिकतर मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों के लोग इसका विरोध करते हैं।
इसी बीच, 16 देशों, जिनमें फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, हंगरी, पोलैंड, इटली, स्पेन और अमरीका भी शामिल हैं, में किए गए इप्सोस मोरी सर्वे में शामिल अधिकतर लोगों ने माना है कि "लोगों को अपनी मर्ज़ी के लिंग के हिसाब से कपड़े पहनने और जीने की अनुमति दी जानी चाहिए भले ही वो दूसरे लिंग में पैदा हुए हों।"
इस सर्वे में ये भी पता चला है कि लोगों की एक बड़ी आबादी ये चाहती है कि उनका देश ट्रांसजेंडर लोगों की सुरक्षा और सहयोग के लिए और अधिक काम करे। हालांकि हंगरी और पोलैंड के लोगों की राय इस बारे में भी अलग थी।
क्या उदारवादी दल जनवादी दलों से हार रहे हैं?
ये निर्भर करता है- पूरी तस्वीर ज़रा अस्पष्ट है।
हाल ही में यूरोपीय देशों में हुए संसदीय चुनावों में जनवादी और राष्ट्रवादी पार्टियों इटली, फ्रांस और हंगरी में बेहतर प्रदर्शन किया है। लेकिन डेनमार्क और जर्मनी जैसे देशों में उम्मीद से ख़राब प्रदर्शन किया है।
ब्रिटेन में, यूरोपीय संघ विरोधी ब्रेक्ज़िट दल ने अधिकतर सीटें जीतीं, लेकिन ब्रेक्ज़िट विरोधी पार्टियों के पास ब्रेक्ज़िट समर्थक पार्टियों से ज़्यादा वोट थे। ऑस्ट्रिया, हंगरी, इटली और स्पेन में जनवादी पार्टियों का समर्थन बढ़ा है, लेकिन कई देश इस ट्रेंड को तोड़ भी रहे हैं। मार्च में हुए चुनावों में स्लोवाकिया के लोगों ने उदारवादी नेता ज़ुज़ाना कापूतोवा को राष्ट्रपति चुना। स्केनडेनीवियाई देश भी अलग राह पर चल रहे हैं। बीते साल में डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड में वामपंथी सरकारों को चुना गया।
प्रोफ़ेसर कॉक्स कहते हैं कि 'लोकलुभावनवाद का उभार वो घटना है जिस पर कोई शक नहीं कर सकता लेकिन मुझे लगता है कि ये मानना कि लोकलुभावनवाद समूचे यूरोप और पूरी दुनिया पर हावी हो जाएगा, इस विचार का समय बीत गया है।'
पुतिन अब ये बात क्यों कर रहे हैं?
प्रोफ़ेसर कॉक्स कहते हैं कि "पुतिन का मत ये है कि रूस की सभ्यता अलग तरह की है। यहां संप्रभुता लोकतंत्र से ऊपर है और राष्ट्रीय एकता और स्थिरता क़ानून के शासन और मानवाधिकारों से ऊपर।"
"कोई हैरत की बात नहीं है कि वो पश्चिमी उदारवाद के इच्छुक नहीं है, जिसे वो अपनी शैली की सरकार के लिए सीधी चुनौती के तौर पर देखते हैं।"
"मोटे तौर पर कहा जाए तो, वो ये संदेश भी देने की कोशिश कर रहे हैं कि उदारवादी, पूंजीवादी और प्रजातांत्रिक समाज का भी एक विकल्प है।" सभी नेता, ज़ाहिर तौर पर, अपने वैश्विक विचारों को बढ़ावा देते हैं। ऐसे में जी-20 शिखर सम्मेलन से ठीक पहले ये बयान देना, वो भी ऐसे समय में जब उदारवादी व्यवस्थाएं दबाव में दिख रही हैं, पुतिन के लिए अपनी बात रखने का सही समय है।