Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

लोकसभा चुनाव 2019 : पलड़ा किसका भारी है मीडिया को कैसे पता?

हमें फॉलो करें लोकसभा चुनाव 2019 : पलड़ा किसका भारी है मीडिया को कैसे पता?
- शिव जोशी
अख़बार, टीवी, इंटरनेट से लेकर सोशल मीडिया तक कई चुनावी विश्लेषणों, आलेखों, टिप्पणियों और साक्षात्कारों से ऐसा आभास मिल रहा है कि चुनाव के नतीजे जब आएं, तब आएं लेकिन अंजाम तो पहले से पता है।
 
कहीं मद्धम, कहीं स्पष्ट, कहीं इशारों में तो कहीं बेबाक, कहीं बिटवीन द लाइन्स तो कहीं खुलकर कहा जाने लगा है कि इस बार पलड़ा तो सत्तारुढ़ गठबंधन का ही भारी है। अपने तर्कों को सहारा देने के लिए उन नारों के इस्तेमाल से भी परहेज़ नहीं किया जा रहा है जो एक व्यक्ति विशेष पर केंद्रित हैं या उसके नाम से चलाए जा रहे हैं। ये विश्लेषण आनन-फानन और उपलब्ध सुलभता में नतीजा निकालते दिखते हैं।
 
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज़ से ऐसे किसी नज़रिए पर भला क्या ऐेतराज़ हो सकता है, लेकिन एक पत्रकार, लेखक या विश्लेषक के लिहाज़ से देखें तो कुछ सवाल उभरते हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर लेखन या विश्लेषण में कौनसे पैमाने एक पहले से प्रचलित नैरेटिव को ही मजबूती देने या उसे अग्रसर करने के लिए रखे जाते हैं- वो कौनसा दृष्टिकोण होता है जो स्थापित विमर्श से ही अपने लिए सूत्र हासिल करता है।
webdunia
फिर राजनीतिक निरपेक्षता, कथित तटस्थता, पत्रकारीय रणनीति, नैतिकता या लेखकीय उसूलों के प्रश्न भी उठते हैं। इन्हीं उसूलों की छानबीन करते हुए फ्रांसीसी उपन्यासकार और दार्शनिक ज़ुलियां बेन्डअ ने 'बौद्धिक विश्वासघात' जैसी अवधारणा दी थी।
 
चुनावी नतीजे वैसे शायद न हों जैसा कि उनके बारे में कुछ अतिरेक और कुछ उत्साह में दावे किए जाने लगे हैं। ऐसा आकलन कठिन इसलिए नहीं कि जमीन पर ऐसा वास्तव में नहीं है तो कैसे कह दें। कठिन इसलिए है क्योंकि ऐसा न होना 'दिखाया' जा रहा है कि आप इसी गर्दोगुबार और जय जयकार में ही देखिए, वरना आपकी दृष्टि पर ही प्रश्नचिन्ह!
 
कमाल है, आप ये देख रहे हैं जबकि देखिए गली-मोहल्लों से लेकर झंडे-बैनर तक एक ही नाम छाया हुआ है! क्योंकि चारों ओर जिन छवियों का निर्माण किया गया है वे छवि पुरुष की जीत की ओर सघन इशारे करती पेश की गई हैं।
 
थोड़ा ठहरकर मीडिया और कल्चरल स्टडीज से जुड़े सिद्धांतों की ओर देखना चाहिए यानी यूं तो वे सब किताबी बातें हैं, कहकर टाल दी जाती हैं और पत्रकारिता और जनसंचार के छात्रों के रटने-रटाने के लिए बताई जाती हैं लेकिन आप पाएंगे कि वे पाठ्यक्रमों में यूं ही नहीं चली आई हैं।
 
समकालीन वैश्विक राजनीतिक-आर्थिकी के परिदृश्य और पृष्ठभूमि में उनका महत्‍व रहा है। होस्टाइल मीडिया पर्सेप्शन या होस्टाइल मीडिया अफ़ेक्ट एक ऐसी ही अवस्थिति है जो इन्द्रियबोध तक ही सीमित नहीं है बल्कि जिसका संबंध एक बाहरी उद्दीपन या प्रभाव से है।
 
कैसे बनता है मीडिया पर्सेप्शन?
ये पर्सेप्शन चुनिंदा तरीकों में परिलक्षित या घटित होता है। मेनस्ट्रीम मीडिया का निर्मित किया हुआ, मीडिया में विशिष्ट दबाव समूह या शक्तिशाली लॉबी का बनाया हुआ, पत्रकार से होता हुआ, और फिर आम लोगों के पास पहुंचता हुआ जो इस पर्सेप्शन को समाचार सामग्री के रूप में देखते, पढ़ते या सुनते हैं- वे जो उसके आखिरी उपभोक्ता हैं और इस तरह ये उत्पादन और उपभोग का चक्र जारी रहता है।
 
ये गली, नुक्कड़, चौराहे, पान या चाय या मिठाई की दुकान से लेकर मॉल, कॉफी हाउस, क्लब, ऑडिटोरियम, संस्थान, सेमिनार, गोष्ठी से लेकर झंडे, डंडे, पट्टे, जुलूस और जयकार तक जाता है और ज़ाहिर है वहां से लौटता भी है और फैलता भी है।
 
इस तरह व्यक्ति, विषय और बहसें निर्मित की जाती हैं- व्यक्ति की व्यापकता और असाधारण काबिलियतों पर संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती यानी जहां संदेह रखना एक पेशेवर ज़रूरत भी समझी जाती है, वहां से भी उसे ग़ायब कर दिया जाता है। इस तरह मामला 'क्रिस्टल क्लियर' या पानी की तरह साफ हो जाता है। और वो ये कि 'साब! इनका तो मुक़ाबला ही नहीं। यही आगे हैं, और बने रहेंगे।'
 
मुख्यधारा के टीवी और अखबारों और बड़े अखबारी स्वामित्व वाली समाचार वेबसाइटों और सोशल मीडिया के ज़रिए सायास रचा जा रहा है जो नैरेटिव सजग नागरिक बोध से धीरे-धीरे दूर करता है फिर आगे चलकर ये बोध पूरी तरह 'प्रभाव' में कंवर्ट हो जाता है।
 
समाचार निरपेक्ष उपभोक्ता बना रहा है जो सही या गलत का नहीं स्वाद और क्वालिटी के लिहाज़ से व्यक्ति या घटना पर अपनी राय बनाते हैं चूंकि समाचार एक पीआर उत्पाद की तरह आता है। इस नैरेटिव का दूसरा पहलू है किसी व्यक्ति के पक्ष में 'लार्जर देन लाइफ़' छवि का निर्माण।
 
क्या हमें किसी हीरो की ज़रूरत होती है?
इतालवी लेखक उम्बर्तो इको ने अपनी एक अखबारी टिप्पणी, 'अनहैप्पी इज़ द लैंड' में बताया कि एक अप्रसन्न देश वो है जहां के नागरिक ये नहीं जान पाते कि उनके दायित्व क्या हैं और करिश्मा कर सकने वाले लीडर का इंतज़ार करते रहते हैं कि वही बताएगा उन्हें क्या करना है।
 
इको ने उपरोक्त बात, जर्मन कवि-नाटककार बर्तोल्त ब्रेष्ट के नाटक 'गैलेलियो' में आए एक विख्यात कथन के हवाले से कही थी : 'अनहैप्पी इज़ द लैंड दैट नीड्स हीरोज़।'
 
तो क्या हमें इस बात की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी चाहिए कि फलां का पीआर और विज्ञापनी चातुर्य अव्वल है इसलिए वो आगे है। हम अपना स्टैंड क्यों नहीं लेते और करतबी तौर-तरीकों को अपने मूल्यांकन का आधार बनाने से परहेज़ करने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं? और क्यों नहीं मीडिया संदेशों से प्रभावित हुए बिना अपना विचार रख पाते हैं? इन सवालों से हमें कभी न कभी रूबरू तो होना ही पड़ेगा।
 
कॉर्पोरेट मीडिया और सत्ता राजनीति के गठजोड़ पर अमेरिका से लेकर यूरोप तक बहुत अध्ययन किए जा चुके हैं और चिंताएं भी प्रकट की गई हैं। अमेरिकी चिंतक नॉम चॉमस्की ने जिस मैनुफेक्चरिंग कन्सेंट की बात की थी और जिसका इधर धड़ल्ले से इस्तेमाल साहित्य और पत्रकारिता विधा के पंडित करते रहे हैं, वो बात अंजाने में ही उन पर भी लागू हो रही है, उस उत्पादन के एक टूल वे भी बन रहे हैं।
 
ये कन्सेंट या सहमति उस कल्चरल हेजेमनी या सांस्कृतिक वर्चस्व की ही ताकीद कर रही है जिसका उल्लेख चॉमस्की से बहुत साल पहले अंतोनियो ग्राम्शी ने अपनी एक थ्योरी के ज़रिए किया था। कहने का आशय ये है कि जनता को ये अहसास करा दिया जाता है कि जो आपको उपलब्ध कराया जा रहा है वो सही है और जनता भी इन्हीं सूत्रों को कॉमनसेंस मानकर 'जैसा चलता है चलने दो' के यथास्थितिवाद में अपने लिए या तो सुविधा या कुछ दूरी पर जाकर ढेर हो जाने वाले कच्चे प्रतिरोध चुनती है।
 
और लिखने वालों को एक खास पर्सेप्शन से देखने के लिए विवश किया जाता है लिहाज़ा वो एक कृत्रिम बोध और एक बाहरी उद्दीपन के वश में वही लिखने लगते हैं जो छवियों के उत्पादन से जुड़ी विचार फैक्ट्री चाहती है। इसीलिए वे ये कहने में देर नहीं करते कि पलड़ा फलां का भारी लगता है या फलां बाजी मार रहे हैं या आगे हैं।
 
वे भारी या आगे इसलिए दिखते हैं क्योंकि 24x7 यही दिखाया जा रहा है। पॉलिटिकली करेक्ट रहने की प्रवृत्ति भी लिखने वालों को 'तटस्थ' बने रहने को विवश करती है, जबकि ऐसी कृत्रिम तटस्थता को लेखन के लिए ख़तरनाक माना गया है क्योंकि ये जनपक्ष और जनसरोकार की अनदेखी करती है और पेशेवर मूल्यों से वादाख़िलाफ़ी।
 
मीडिया एकाधिकार और मीडिया स्वामित्व संकेंद्रण ने समाचार उत्पादन की प्रक्रिया को और जटिल बनाया है। हम न चाहते हुए भी इस मैनुफेक्चर्ड नैरेटिव से अपने लिए कुछ बिंदु उठा लेते हैं। जबकि पत्रकारीय उसूलों का इतिहास ही हमें बताता है कि वे कोई वायवीय या अमूर्त फ़ॉर्मूले नहीं हैं। तटस्थ दिखने की कोशिश में जनपक्ष न गंवा बैठे- इस विवेक की हिफ़ाज़त करना, लेखक या पत्रकार के आत्म-संघर्षों में शामिल है।

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

लोकसभा चुनाव 2019 : रविशंकर प्रसाद को इतनी तवज्जो क्यों देती है बीजेपी