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मंज़ूर पश्तीनः पाकिस्तान की नाक में दम करने वाला पठान

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, गुरुवार, 30 मई 2019 (17:40 IST)
- टीम बीबीसी हिंदी (नई दिल्ली)
 
पाकिस्तानी सेना का कहना है कि बीते रविवार को पाकिस्तान के उत्तरी वज़ीरिस्तान के खार कमर इलाक़े में कुछ प्रदर्शनकारियों और सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई, जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई और दर्जन भर से अधिक घायल हुए हैं। सेना का कहना है कि प्रदर्शनकारियों के एक समूह ने सेना के एक चेक पोस्ट पर हमला कर दिया था। ये प्रदर्शनकारी पश्तून तहफ़्फ़ुज़ मूवमेंट (पीटीएम) से जुड़े हुए थे।
 
 
हालांकि पीटीएम का कहना है कि वो शांतिपूर्ण तरीक़े से अपनी मांगों के लेकर प्रदर्शन कर रहे थे और सेना ने उनके निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर फ़ायरिंग शुरू कर दी, जिसमें दर्जनों घायल हो गए। हमले के बाद पाकिस्तान के ट्विटर पर #StateAttackedPTM ट्रेंड करने लगा। हालांकि पाकिस्तान के न्यूज़ चैनलों पर दूसरी ख़बरें दिखाई जा रही थीं।
 
 
सरकार की तरफ़ से जारी सूचना के मुताबिक़ घायलों में उनके पांच सैनिक भी शामिल हैं। पाकिस्तान की न्यूज़ वेबसाइट डॉन ने सेना के हवाले से लिखा है कि मोहसिन डावर और अली वज़ीर हमला करने वाले समूह की अगुवाई कर रहे थे और ये पीटीएम से जुड़े हैं।
 
 
पाकिस्तान के मनवाधिकार आयोग ने मौत के इन मामलों की जांच करने को कहा है। आयोग का कहना है कि हिंसक झड़प से पीटीएम समर्थकों और सेना के बीच तनाव बढ़ेंगे।
 
 
पुराना संघर्ष
पीटीएम और सेना के बीच का संघर्ष का यह मामला नया नहीं है। जब पाकिस्तानी सरकार ने चरमपंथ गुटों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी थी तो उस मुहिम का केंद्र था पाकिस्तान का वो इलाक़ा जो अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से सटा हुआ है।
 
 
इन क़बायली इलाक़ों पर नियंत्रण करने के लिए सरकार लंबे समय से जद्दोजहद करती रही है। सेना की इस मुहिम को कुछ हद तक सफल माना जा रहा है लेकिन वहां रह रहे पश्तून समुदाय के लोग मानते हैं कि इस दौरान उनके और उनके साथ बहुत ग़लत हुआ।

 
पश्तून समुदाय इसके ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहा है। उनकी मांग है कि अफ़ग़ान सीमा से लगे क़बायली इलाक़ों में अंग्रेज़ों के दौर का काला क़ानून ख़त्म कर वहाँ भी पाकिस्तानी संविधान लागू कर वज़ीरिस्तान और दूसरे क़बायली इलाक़ों को वही बुनियादी हक़ दिए जाएं जो लाहौर, कराची और इस्लामाबाद के नागरिकों को हासिल हैं।
 
 
तालिबान के ख़िलाफ़ फ़ौजी ऑपरेशन में आम लोगों के जो घर और कारोबार तबाह हुए उनका मुआवज़ा दिया जाए और इन इलाक़ों में चेक पोस्टों पर वहाँ के लोगों से अच्छा सलूक किया जाए। लेकिन राष्ट्रीय संस्थाओं को शक है आंदोलन की अगुवाई कर रहे पीटीएम के तार राष्ट्र विरोधी ताक़तों से जुड़े हुए हैं।
 
 
पश्तून तहफ़्फ़ुज़ मूवमेंट की शुरुआत साल 2014 में मंज़ूर पश्तीन नाम के एक नौजवान ने की थी। शुरुआत में यह लोगों को ख़ुद से जोड़ने में बहुत सफल नहीं रहा, लेकिन धीरे-धीरे इसके समर्थक इतने बढ़ गए कि यह पाकिस्तानी सरकार के लिए एक चुनौती बन गया।
 
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कौन हैं मंज़ूर पश्तीन
25 साल के मंज़ूर पश्तीन पाकिस्तान के युद्ध ग्रस्त इलाक़े दक्षिणी वज़ीरिस्तान से ताल्लुक़ रखते हैं। यह इलाक़ा पाकिस्तानी तालिबान की मज़बूत पकड़ के लिए जाना जाता रहा है। मंज़ूर पश्तीन पाकिस्तान के अख़बारों की सुर्खियों में तब आने लगे जब पिछले साल जनवरी में दक्षिणी वज़ीरिस्तान के रहने वाले एक युवक नकीबुल्लाह मेहसूद की कराची में हुए पुलिस एनकाउंटर में मौत हो गई थी।
 
 
नकीबुल्लाह एक उभरते हुए मॉडल थे। उनकी मौत के ख़िलाफ़ लोगों ने प्रदर्शन शुरू कर दिया, जिसमें मंज़ूर पश्तीन शामिल हो गए और बहुत ही कम वक़्त में वे सुर्खियों में छा गए। मंज़ूर पश्तीन की पहचान पाकिस्तान के पिछड़े और दबे-कुचले समाज की आवाज़ के रूप में की जाती है। पाकिस्तान में दूसरे सबसे बड़े जातीय समूह पश्तून लगातार अपनी सुरक्षा, नागरिक स्वतंत्रता और समान अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
 
 
मंज़ूर पश्तीन ने साल 2014 में पश्तून तहफ़्फ़ुज़ मूवमेंट की शुरुआत की थी, लेकिन यह अभियान बहुत ज़्यादा कमाल नहीं दिखा पाया। जनवरी 2018 में हुए नकीबुल्लाह की मौत के बाद वो एक ख़ास वर्ग समूह के लिए एकाएक हीरो बन गए। मौत के ख़िलाफ़ शुरू हुआ आंदोलन देश के कई हिस्सों में फैलने लगा।
 
 
इन विरोध प्रदर्शनों के बीच मंज़ूर पश्तीन ने सोशल मीडिया के जरिए अपनी पहुंच पश्तून युवाओं तक बनानी शुरू कर दी और अपने भाषणों को इनके बीच शेयर करने लगे। इन भाषणों में वो क़बायली समुदाय विशेषकर पश्तूनों के हक़ की मांग करते दिखे। युवा इन भाषणों से प्रभावित होकर उनके आंदोलन से जुड़ते चले गए।
 
 
बाद में उनके आंदोलन से युद्धग्रस्त इलाक़ों से लापता हुए लोगों के परिजन भी जुड़ने लगे और मंज़ूर पश्तीन इनकी मुश्किलों और ड्रोन हमलों के पीड़ितों के मुद्दे भी उठाने लगे। आंदोनल का अंत होते-होते पूरे पाकिस्तान में पश्तूनों के अभियान को नया स्वरूप मिल गया। ये आंदोलन ज़मीन के साथ-साथ सोशल मीडिया पर भी चल रहे थे।
 
 
पिछले साल बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में मंज़ूर पश्तीन ने कहा था, "मैंने कुछ भी नहीं किया, इन लोगों (आदिवासी इलाकों के लोग) का लगातार शोषण हुआ है, उनकी ज़िंदगी दूभर हो चुकी है, वे सभी दबे-कुचले लोग हैं उन्हें सिर्फ एक आवाज़ चाहिए थी जो मैं दे रहा हूं।"

 
सरकार के लिए चुनौती
मंज़ूर पश्तीन की आवाज़ जैसे-जैसे मज़बूत हो रही थी, पाकिस्तानी सरकार के लिए वो एक चुनौती बन कर उभर रहे थे। आरोप हैं कि आंदोलन को बड़ा रूप न मिल सके, इसके लिए सरकार ने पीटीएम से जुड़ी ख़बरों के प्रकाशन पर रोक लगा दी है। यह भी आरोप हैं कि यह सबकुछ सेना के कहने पर किया जा रहा है, लेकिन इसके कोई सबूत नहीं मिलते हैं।
 
 
मंज़ूर पश्तीन ने बीबीसी से कहा था कि आदिवासी लोगों को चरमपंथियों जैसा समझा जाता रहा है। उन्होंने कहा था, "हम सिर्फ़ अपनी इज़्ज़त और सम्मान वापिस पाना चाहते हैं, हम सड़कों की मांग नहीं कर रहे, विकास नहीं चाहते, हम सिर्फ़ अपने जीने का अधिकार मांग रहे हैं।"
 
 
स्वाभिमान को ठेस
पश्तूनों को यह लगता है कि वो सेना और चरमपंथियों के बीच पिस रहे हैं। स्थिति यह है कि एक ही रास्ते पर तालिबान और पाक सेना, दोनों के चेक पोस्ट हैं। अगर इस रास्ते पर कोई दाढ़ी वाला चलता दिखता है तो पाक सेना उसे चरमपंथी बताती है और अगर आपकी दाढ़ी नहीं है तो तालिबानी आपको सरकार का समर्थक बताते हैं।

 
मंज़ूर पश्तीन पश्तो में बोलते हैं लेकिन दूसरे क़बायली युवाओं से उलट वो शिक्षित हैं और उर्दू और अंग्रेजी में आसानी से बात करते हैं। मंज़ूर पश्तीन का कहना है कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं थी कि उन्हें इतना बड़ा समर्थन मिलेगा, लेकिन उनको यक़ीन है कि उन्हें क्या करना है।
 
 
उन्होंने एक बार बीबीसी पश्तो से कहा था, "लोगों पर ज़ुल्म किया जा रहा है। उनका जीवन असहनीय हो गया था। कर्फ्यू और अपमान ने उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाया है।" मंज़ूर पश्तीन के आंदोलन को धीरे-धीरे राजनेताओं का भी समर्थन मिलने लगा है और यह पाकिस्तान सरकार से सामने आने वाले वक़्त में एक बड़ी राष्ट्रीय चुनौती के रूप में उभर सकता है।
 

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