-कृतिका कन्नन
"जब मेरी पत्नी घर के पास सरकारी नल से पानी लेने गई थी, हमारा बेटा वहां खेल रहा था और एक ही मिनट में अपहरणकर्ता ने उसे उठा लिया।" अविनाश के पिता नागेश्वर राव उस पल को याद करते हुए ये बात बताते हैं। 18 फ़रवरी 1999 को उनके डेढ़ साल के बेटे का अपहरण हो गया था। सारे लोगों ने उसे बहुत खोजा लेकिन अपने बेटे को हम तलाश नहीं पाए।
तमिलनाडु में चेन्नई के पुलियांथोप इलाक़े में नागेश्वर राव और सिवागामी रहते हैं। सुभाष उनका सबसे छोटा बेटा था। नागेश्वर राव कहते हैं, "हमने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। बेटे को तलाशने के लिए हर संभव कोशिश की। बेटे को वापस पाने के लिए हमने क़ानूनी विकल्प भी देखे और मंदिरों के चक्कर भी लगाए।"
लेकिन पुलिस की जांच बहुत धीमी रफ़्तार में आगे बढ़ रही थी इसलिए नागेश्वर राव के वकील ने साल 2006 में हाईकोर्ट में हैबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) की याचिका दायर की।
इस बीच सीबीआई भी ग़ायब बच्चों पर आपनी जांच कर रही थी और उसकी नज़र मलेशियन सोशल सर्विस नाम के एक फ़र्म पर थी। उसने कुछ बच्चों के बारे में जानकारियां जुटाईं, जिन्हें अपहृत कर गोद देने के लिए भेज दिया गया था। साल 2009 में सुभाष के मामले में सीबीआई भी सक्रिय हो गई।
नागेश्वर राव के वकील मोहनवेदिवेलन कहते हैं, "जब हम सुभाष को खोज रहे थे, उसी दौरान अमरीका में रह रहे एक बच्चे अविनाश के बारे में हमें पता चला। एक पत्रकार स्कॉट कार्ने के ज़रिए हमने अमेरिकी मीडिया में एक कहानी प्रकाशित कराने की कोशिश की और बाद में हमने उनसे कहा कि वो अविनाश के परिजनों से बात करें।"
असल में चेन्नई से अपहृत बच्चा सुभाष मलेशियन सोशल सर्विस फ़र्म को दे दिया गया था। बाद में एक अमेरिकी दंपत्ति ने उसे गोद ले लिया और उस बच्चे को नया नाम दिया अविनाश। वकील के अनुसार, "जब हमने डीएनए टेस्ट के बारे में अमेरिकी दंपत्ति से संपर्क किया तो उनकी तरफ़ से कोई ठीक ठीक जवाब नहीं आया।"
इसके बाद इंटरपोल के ज़रिए बच्चे के ख़ून का नमूना उन्होंने हासिल किया और चेन्नई में उसका टेस्ट हुआ। जांच में उस बच्चे और परिवार के बीच क़रीबी की पुष्टि हुई।
नागेश्वर राव कहते हैं, "ये साबित होने के बावजूद कि वो हमारा बच्चा है, हमारे अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी कि हम गोद लेने वाले परिजनों से झगड़ा कर उसे वापस ले आते। उन्होंने उसे बहुत प्यार से पाला पोसा था। इसलिए हमने इंतज़ार किया वे ख़ुद ही बच्चे को इस बारे में बताएं और तब वो ख़ुद हमसे मिलने के बारे में फ़ैसला ले सके।"
अविनाश की अमेरिकी ज़िंदगी : अविनाश अमेरिका में अपने परिजनों के साथ तीन भाइयों और बहनों के साथ रह रहे थे। 13 साल की उम्र में उन्हें भारत में रह रहे अपने असली मां बाप के बारे में पता चला। अविनाश बताते हैं, "इस तरह की सूचना के लिए ये बहुत नाज़ुक उम्र थी। मैंने कुछ नहीं किया। जो भी सूचनाएं मुझ तक आती थीं, उन्हें बस देख रहा था।" चार-पाँच साल पहले अविनाश ने भारत में रह रहे अपने बायोलॉजिकल माता-पिता से मिलने का फ़ैसला किया।
वो कहते हैं, "जब मैंने अमेरिका में अपने परिजनों को बताया तो गोद लेने वाले मेरे माता-पिता और भाई बहनों ने मुझे पूरा सहारा दिया।" आठ सितंबर म्बर 2019 को नागेश्वर राव का परिवार 20 साल बाद अपने बेटे से मिल रहा था। राव बताते हैं कि चेन्नई में जो भी जगह वो देखना चाहता था, हम उसे लेकर गए। हमने अपने लिए कुछ और नहीं सोचा। उसने जो भी खाने की इच्छा जताई हमने उसे मुहैया कराया और जहां जाना चाहा हम लेकर गए।"
दूसरी तरफ़ अविनाश का कहना है कि इस मुलाक़ात से उन्हें शांति मिली है। वो कहते हैं, "अपने बॉयोलॉजिकल मां बाप से मिलना, उनके शहर को जानना, जैसे वे बड़े हुए, मेरी संस्कृति और बाक़ी चीज़ें बहुत ही अच्छा अनुभव रहा। ये जानकर कि आख़िर मैं कहां से आया हूं, इसने मेरे अंदर एक शांति की अनुभूति पैदा की है।" अपने परिवार के साथ कुछ दिन बिताने के बाद अविनाश अब फिर अमेरिका लौट रहे हैं।
नागेश्वर राव कहते हैं, "अपने गुम हुए बेटे को पाकर मेरी पत्नी वाक़ई बहुत ख़ुश हैं। हालांकि बेटे के वापस जाने को लेकर वो दुखी भी हैं लेकिन साथ ही वो बेटे को समझा भी रही हैं कि वहां उसका परिवार है।"
भाषाई बाधा : मुलाक़ात से पहले अविनाश अपने परिवार के वकील मोहनवेदिवेलन के सम्पर्क में थे। इस मुलाक़ात में परिवार को भाषा के रूप में सबसे बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा। अविनाश तमिल नहीं जानते और नागेश्वर राव के परिवार को कोई सदस्य अंग्रेज़ी नहीं जानता। इसलिए दोनों पक्षों के बीच पुल का काम किया उनके वकील ने।
वकील मोहनवेदिवेलन के अनुसार, "जब दोनों पक्ष मिले, तो उन्हें समझ नहीं आया कि कैसे बात करें। उनकी मां ने गले लगाया और रोने लगीं। उन्हें पता नहीं था कि शब्दों से कैसे बयां करें। हालांकि मैं उनके लिए अनुवाद कर रहा था, लेकिन भावनात्मक पक्ष को शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता।"
लेकिन अविनाश ने पहले ही तमिल सीखने का संपकल्प ले लिया था। जब हमने उनसे परिवार के साथ संवाद की मुश्किलों के बारे में पूछा तो उनका कहना था, "अमेरिका पहुंचने के बाद मैंने तमिल सीखने का फैसला किया है। भले ही मैं फर्राटे से न बोल पाऊं, मैं निश्चित तौर पर कुछ बुनियादी चीज़ें सीखूंगा ताकि हमारे बीच ट्रांसलेटर की ज़रूरत न पड़े।"