आलोक जोशी, पूर्व संपादक, सीएनबीसी-आवाज़
करना था इनक़ार मगर इक़रार... के अंदाज़ में आख़िरकार रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया को ये बात कहनी पड़ गई कि भारत में मंदी आ गई है।
रिज़र्व बैंक के मासिक बुलेटिन में कहा गया है कि इतिहास में पहली बार भारत में टेक्निकल रिसेशन आ गया है। बात बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन समझनी ज़रा मुश्किल हो रही है।
समझने में मुश्किल की एक वजह तो रिसेशन या मंदी के साथ टेक्निकल शब्द का जुड़ जाना है और दूसरी वजह है रिज़र्व बैंक की शब्दावली में आया एक नया शब्द - नाउकास्ट।
जैसे फ़ोरकास्ट का अर्थ भविष्यवाणी होता है, वैसे ही नाउकास्ट का अर्थ तो वर्तमान बताना ही है। लेकिन जानकारों का कहना है कि इसका अर्थ बहुत निकट भविष्य का अनुमान लगाना है, जो इतना निकट है कि उसे वर्तमान जैसा मान लेना ही बेहतर है। शायद इसीलिए इसे नाउकास्ट या आजकल के हालात का जायज़ा कहना बेहतर समझा गया।
हालांकि रिज़र्व बैंक से यह बुलेटिन हर महीने जारी होता है, लेकिन अर्थशास्त्रियों और बैंकरों के अलावा शायद ही कोई इसपर ध्यान देता हो। इस बार भी हिंदी के अधिकतर अख़बारों ने इसे नज़रअंदाज ही किया। लेकिन कोरोना महामारी से पैदा हुए आर्थिक संकट के बीच अर्थव्यवस्था की नब्ज़ पकड़ने वाले किसी भी संकेत को नज़रअंदाज करना समझदारी नहीं है।
ख़ासकर इस वक़्त जब सबकी नज़र इसपर टिकी हुई है कि इकोनॉमी को पटरी पर लौटने में कितना वक़्त लगेगा और इसके लिए सरकार जो कुछ कर रही है वो कितना कारगर साबित होगा।
रिज़र्व बैंक के इस महीने के बुलेटिन में विस्तार से समझाया गया है कि वो क्यों इतने निकट की भविष्यवाणी या वर्तमानवाणी करने की स्थिति में आया है। उसका कहना है कि अर्थव्यवस्था के कारकों और कारणों का हिसाब जोड़ने की विद्या यानी इकोनॉमीट्रिक्स में हुई तरक्की का फल है कि जीडीपी या आर्थिक विकास के तमाम दूसरे पैमानों को बहुत जल्दी पढ़ना संभव है, इसलिए जिन अनुमानों में पहले काफ़ी लंबा समय लगता था, अब उनका हिसाब तेज़ी से जोड़कर सामने रखा जा सकता है।
इसी का फल है कि अर्थव्यवस्था की रफ़्तार समझने के लिए जो जटिल गणित जोड़ना पड़ता था वो अब लगभग साथ-साथ होना संभव हो रहा है। हालांकि अब भी ऐसा नहीं हुआ है कि शेयर बाज़ार के इंडेक्स की तरह जीडीपी का मीटर भी लगातार चलता रहे और दिखता रहे। और नवंबर के दस दिन बीतने के बाद आए आरबीआई के बुलेटिन में भी इस बात का अनुमान ही है कि अक्टूबर के अंत में जीडीपी में 8.6% की गिरावट दिखाई पड़ सकती है।
इसका साफ़ अर्थ तो यही है कि भारत की अर्थव्यवस्था इतिहास में पहली बार मंदी की चपेट में आ गई है।क्योंकि मंदी की अर्थशास्त्रीय परिभाषा यही है कि लगातार दो तिमाही में अगर अर्थव्यवस्था बढ़ने के बजाय कम होने या सिकुड़ने लगे तब माना जाएगा कि मंदी आ चुकी है। लेकिन साथ ही उम्मीद की किरण भी दिखाई पड़ती है।
इसी बुलेटिन में आरबीआई यह भी कहता है कि अर्थव्यवस्था में गिरावट ज़्यादा वक्त नहीं चलेगी क्योंकि धीरे धीरे आर्थिक गतिविधियों में सुधार के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। हालांकि सुधार पर भी सवाल उठ रहे हैं और इस बात पर भी कि रिज़र्व बैंक को इस समय ही नाउकास्टिंग करने के लिए सही वक़्त क्यों नज़र आया। लेकिन बुलेटिन पर और चर्चा होती उसके पहले ही वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण की तरफ़ से एक और स्टिमुलस पैकेज का एलान आ गया।
आत्मनिर्भर भारत पैकेज की तीसरी किस्त, दो लाख पैंसठ हज़ार करोड़ रुपए का खर्च। वित्तमंत्री ने बताया कि इसे मिलाकर सरकार अब तक कुल तीस लाख करोड़ रुपए सिस्टम में डालने का इंतज़ाम कर चुकी है।
इसे दीवाली गिफ़्ट मानें या धनतेरस का तोहफ़ा लेकिन इस किस्त पर भी वो सवाल उठने लाज़मी हैं जो इससे पहले के हिस्सों पर उठ चुके हैं, कि इस पैकेज में कितनी हक़ीक़त है और कितना फ़साना।
एक बात साफ़ है कि सबसे ज़्यादा ज़ोर रोज़गार बढ़ाने पर ही है। इसके लिए ऐसी कंपनियों या कारोबारियों को सीधी राहत का एलान किया गया है जो दो या दो से ज़्यादा लोगों को नौकरी देने का इतंज़ाम करेंगे। और यह नौकरी भी ऐसी जिसमें महीने की तनख़्वाह पंद्रह हज़ार रुपए से कम होनी चाहिए।
घर खऱीदने में सर्किल रेट से बीस पर्सेंट तक का फ़र्क सरकार मान लेगी। इसके दो फायदे होंगे। एक तो स्टैंप ड्यूटी कम चुकानी पड़ेगी और दूसरा फ़ायदा, इनकम टैक्स विभाग अब इस फ़र्क को आपकी उस साल की कमाई में जोड़कर आपसे एक्स्ट्रा टैक्स नहीं वसूल पाएगा।
पहली नज़र में तो यह बिल्डरों के फ़्लैट बिकवाने और मध्यवर्ग के घर ख़रीदने के सपने को राहत देने का ही इंतज़ाम दिखता है। लेकिन दस चैंपियन सेक्टरों को कर्ज़ दिलवाना, पीएफ़ की रकम सरकार की तरफ़ से भरने का प्रस्ताव और हाउसिंग पर हुए एलान में समान बात यही है कि इन सबके ज़रिए रोज़गार पैदा हो सकते हैं।
शर्त भी यही है कि या तो नए रोज़गार हों या फिर जो लोग कोरोना के बाद बेरोज़गार हुए हैं उनको दोबारा काम मिले तभी यह सब्सिडी या राहत मिल पाएगी।
इरादा अच्छा है। तमाम छोटे बड़े उद्योग संगठन मुक्त कंठ से प्रशंसा भी कर रहे हैं। लेकिन रिज़र्व बैंक के आंकड़ों में और सरकार के एलान में कुछ ऐसे संकेत भी छिपे हैं जिनसे लगता है कि चिंता त्यागने का समय अभी दूर है।
वित्तमंत्री ने सरकार की उपलब्धियां गिनाने में शेयर बाज़ार की तेज़ी और रिकॉर्ड मार्केट कैप का नाम भी लिया। दोनों ही मोर्चों पर सरकार ने क्या किया यह सवाल पूछा जा सकता है लेकिन दोनों का ही पिछले छह महीने का प्रदर्शन तो नाम कमाने लायक रहा ही है।
मगर सबसे चिंताजनक आंकड़ा यह है कि जुलाई से सितंबर के बीच देश की सारी लिस्टेड कंपनियों की बिक्री और ख़र्च में गिरावट के बावजूद उनके मुनाफ़े में तेज़ उछाल दिखाई पड़ा है।
इसकी वजह भी साफ है। कंपनियां बिक्री बढ़ाने और मुनाफ़ा कमाने के बजाय ख़र्च घटाकर यानी कॉस्ट कटिंग का रास्ता अपना रही हैं। और आगे इससे बड़ी चिंता यह है कि अगर मिडिल क्लास या किसी भी क्लास के परिवारों ने भी यही रास्ता सही माना और अपने अपने ख़र्च में कटौती का ही रास्ता पकड़ लिया तो फिर सरकार उन्हें कैसे मनाएंगी और कैसे उनके मन में यह विश्वास जगाएगी कि इस वक़्त सभी लोग हाथ खींचने के बजाय हाथ खोलकर ख़र्च करें तभी इकोनॉमी पटरी पर लौट पाएगी।