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जब ब्रितानी अफसरों ने मरने दिए दस लाख भारतीय

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, शनिवार, 11 जून 2016 (14:03 IST)
- दिनयार पटेल (असिस्टेंट प्रोफेसर, यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ कैरोलीना)
 
ये गर्मियां भारत के लिए ख़ासी मुश्किल हैं। सूखे और भीषण गर्मी के कारण देश भर में 33 करोड़ लोगों की एक बड़ी आबादी प्रभावित है। लेकिन इन्हीं गर्मियों में उस भयानक त्रासदी को भी 150 साल पूरे हो रहे हैं, जो ओडिशा में 1866 में देखने को मिली थी।
मुश्किल से ही कोई आज इस सूखे के बारे में जानता है। भारतीय इतिहास की मोटी मोटी किताबों में भी इसका ज़्यादा जिक्र नहीं मिलता है। अगर कोई जानता भी है, तो ऐसे लोगों की तादाद बहुत कम है। लेकिन पूर्वी भारत में ओडिशा के इस अकाल ने लगभग दस लाख लोगों की जानें ली थीं।
आज जो ओडिशा हमारे सामने है, वो इस अकाल से सबसे ज्यादा प्रभावित था। वहां रहने वाला हर तीन में से एक व्यक्ति इस सूखे की भेंट चढ़ गया था।
 
ओडिशा का अकाल भारत के राजनीतिक विकास में भी एक अहम मोड़ साबित हुआ, जिससे भारत में गरीबी पर राष्ट्रवादी बहसों का जन्म हुआ। इन बहसों की थोड़ी बहुत गूंज आज भी सूखा-राहत प्रयासों में सुनाई देती है।
 
भारतीय उपमहाद्वीप में अकाल कोई नई बात नहीं, लेकिन ब्रितानी राज के आने से ये न सिर्फ जल्दी जल्दी आने लगे, बल्कि पहले से कहीं घातक भी हो गए। कभी मजबूत रहे भारत के कपड़ा उद्योगों को बर्बाद करने में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसीलिए बहुत सारे लोग खेती-बाड़ी करने को मजबूर हो गए। ऐसे में, भारतीय अर्थव्यवस्था मॉनसून पर पहले से कहीं ज्यादा निर्भर हो गई।
 
डेढ़ सौ साल पहले आज जैसा ही सूखा पड़ा था। एक ख़राब मानसून ने ओडिशा को सूखे की ओर धकेल दिया था। 1865 में कोलकाता के अख़बार 'इंग्लिशमैन' ने घोषणा की थी, 'इस बात को अब और नहीं छुपाया जा सकता है कि हम बुनियादी चीज़ों की बड़ी किल्लत के मुहाने पर खड़े हैं।' भारतीय और ब्रितानी मीडिया लगातार बढ़ते दामों, अनाज के भंडार में कमी और किसानों की हताशा के बारे में लिख रहा था।
 
लेकिन तब की औपनिवेशिक सरकार ने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। 19वीं सदी के मध्य में आर्थिक तौर पर यह आम धारणा थी कि अकाल के मामले में सरकार का दखल न सिर्फ गैरजरूरी, बल्कि नुकसानदेह भी होता है। बाज़ार ख़ुद को संतुलित कर लेता है और अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस के सिद्धांत के अनुसार अकाल से होने वाली मौतें अधिक आबादी को संतुलित करने का प्रकृति का अपना तरीक़ा है।
 
इससे दो दशक पहले इस तर्क को अज़माया जा चुका था जब आयरलैंड में विनाशकारी अकाल पड़ा था। तब ब्रितानी सरकार ने वहां तय किया था कि किसी तरह की मदद न देना ही सबसे बड़ी मदद है। फरवरी 1866 में बंगाल के अंग्रेज गवर्नर सेसिल बीडन ने ओडिशा का दौरा किया था। तब ओडिशा बंगाल में ही आता था।
 
बीडन ने ओडिशा में आयरलैंड जैसा रुख़ अपनाया और कहा था, 'किसी भी सरकार के बस में नहीं है कि वो इस तरह के हालात को पैदा होने से रोक पाए या उन्हें कुछ कम कर सके।' उनके मुताबिक़ अनाज के बढ़ते दामों को नियंत्रित किया गया तो इससे अर्थशास्त्र के स्वाभाविक क़ानूनों में छेड़छाड़ का ख़तरा पैदा होगा।
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उन्होंने कहा, 'अगर मैं अकाल के हालात में कुछ करने की कोशिश करता हूं तो मैं ख़ुद को एक डकैत या चोर से कम नहीं समझूंगा।' उसके बाद वे ओडिशा को उसके हाल पर छोड़कर कोलकाता लौट गए और निजी स्तर पर हो रही राहत की कोशिशों को ख़त्म करने में लग गए।
 
मई 1866 में ओडिशा में बढ़ती त्रासदी को नज़रअंदाज करना आसान नहीं रह गया था। ब्रितानी प्रशासकों ने कटक में देखा कि उनके सैनिक और पुलिस अफ़सर भूख से मर रहे हैं। पुरी में बचे लोग लाशों के ढेर को दफ़नाने के लिए गड्ढे खोद रहे थे। एक प्रत्यक्षदर्शी ने कहा था कि "आप मीलों तक खाने के लिए उनकी चीत्कारें सुन सकते थे।"
 
कोलकाता और लंदन में हाहाकार मचने के बाद बीडन ने ओडिशा के लिए चावल मंगाने की कोशिश की। लेकिन मौसम की विडंबना देखिए कि उस राहत को मिलने में भी सूखे के बाद अत्यधिक बारिश और बाढ़ की वजह से बाधा आई। लोगों को बहुत देर से और बहुत कम राहत मिली। जब तक उन्हें चावल मिलता वो सड़ चुका था। ओडिशा के लोगों ने लालफीताशाही की क़ीमत अपनी जान गंवाकर चुकाई।
 
पश्चिम में पढ़े-लिखे भारतीय सालों तक अंग्रेजी शासन पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि अंग्रेजों ने भारत को ग़रीब बनाया। ओडिशा का अकाल इस दलील को मानने के लिए मजबूर करता है। इसने दादाभाई नौरोजी जैसे शुरुआती राष्ट्रवादियों को भारत की ग़रीबी पर जीवन भर काम करने की प्रेरणा दी। वर्ष 1867 की शुरुआत में जब अकाल का असर कम होने लगा तो, तो दादाभाई नौरोजी ने अपनी 'ड्रेन थ्योरी' का शुरुआती संस्करण पेश किया था।
 
इस सिद्धांत के अनुसार ब्रिटेन भारत का ख़ून चूसकर ख़ुद को समृद्ध कर रहा था। उन्होंने माना था कि, "इसमें कोई संदेह नहीं है कि जीवन और संपत्ति की सुरक्षा इस दौर में बेहतर हुई हैं लेकिन एक अकाल में लाखों लोगों की मौत ने इस बेहतरी की एक विचित्र तस्वीर पेश की है।"
 
वो बहुत ही सामान्य सी बात कर रहे थे। भारत के पास अपने भूखे लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त अनाज था। फिर क्यों सरकार ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। जब ओडिशा के लोग 1866 में भूख से मर रहे थे तब नौरोजी ने इस बात का उल्लेख किया था कि भारत ने बीस करोड़ पाउंड चावल ब्रिटेन को निर्यात किया था।
 
उन्होंने पाया कि अकाल के अन्य सालों में भी भारत से बड़े पैमाने पर सरकार ने निर्यात किया।
उन्होंने कहा था, "हे भगवान, यह कब बंद होगा?" ये सिलसिला आने वाले सालों में भी ख़त्म नहीं हुआ। 1869 और 1874 में भी अकाल पड़ा। 1876 और 1878 के बीच मद्रास में आए अकाल के दौरान चालीस से पचास लाख लोग अकाल में मारे गए थे। उस वक्त भी वायसरॉय लॉर्ड लिट्टन ने वहीं रवैया अपनाया था जो आयरलैंड और ओडिशा में अपनाया गया था।
 
1901 में जब एक अन्य राष्ट्रवादी नेता रमेश चंद्र दत्त ने 1860 के दशक और उसके बाद पड़े दस अकालों का मूल्यांकन किया तो पाया कि इन अकालों में डेढ़ करोड़ लोग मारे गए थे। भारतीय उस वक़्त बहुत गरीब थे और चूंकि उस वक़्त सरकार का रवैया भी उदासीनता भरा था इसलिए रमेश चंद्र दत्त ने कहा था, 'सूखे का हर साल अकाल का साल होता था।'
 
आज भारत ये सुनिश्चित कर सकता है कि ऐसा ना हो क्योंकि डेढ़ सौ साल पहले के मुक़ाबले भारत अब कहीं ज्यादा समृद्ध है और कृषि पर भी उसकी निर्भरता कम हुई है। लेकिन बुनियादी समस्याएं अपनी जगह बनी हुई हैं। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ राज्यों को सूखे के प्रति उनके 'शुतुरमुर्गी रवैए' के लिए फटकार लगाई है।
 
इसी वजह से ओडिशा के उस अकाल को याद करना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इस मानवीय संकट और इसके बाद आए अन्य इसी तरह के संकटों ने भारत को ब्रितानी राज के खिलाफ़ लड़ने की ताक़त को मज़बूत किया था। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि सूखे पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार की जाए और ये उन लाखों लोगों को याद करने का सबसे अच्छा तरीक़ा होगा जो डेढ़ सौ साल पहले अकाल में मारे गए थे।

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