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क्या नए आर्मी चीफ़ की तैनाती पाकिस्तान में राजनीतिक संकट ख़त्म कर देगी?

हमें फॉलो करें क्या नए आर्मी चीफ़ की तैनाती पाकिस्तान में राजनीतिक संकट ख़त्म कर देगी?

BBC Hindi

, शनिवार, 19 नवंबर 2022 (07:57 IST)
फ़रहत जावेद, बीबीसी उर्दू डॉट कॉम, इस्लामाबाद
अपने शासन काल में पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने एक इतालवी पत्रकार ओरयाना फ़लासी को इंटरव्यू देते हुए आर्मी चीफ़ जनरल टिक्का ख़ान की तैनाती का बचाव इन शब्दों में किया था-
 
"टिक्का ख़ान ने (पूर्वी पाकिस्तान में) वही किया जिसका उन्हें हुक्म मिला था, चाहे वह (दिल में) इस हुक्म को सही न मानते हों। और मैंने उन्हें इसलिए चुना है कि मुझे यह पता है कि वह मेरे आदेशों को भी उसी अनुशासन के साथ मानेंगे।" 
 
पांच दशकों के बाद पिछले साल बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उस समय के केंद्रीय सूचना मंत्री फ़वाद चौधरी ने एक सवाल के जवाब में कहा था-
 
“फ़ौज पाकिस्तान में एक स्टेकहोल्डर है, कोई माने या न माने। जैसे बाक़ी देशों में, अमेरिका में और दूसरे देशों में, यहां भी फ़ौज एक हितधारक है।”  
 
ये दोनों बयान पाकिस्तान में कमोबेश हर राजनीतिज्ञ की उस सोच को दर्शाते हैं जो वे फ़ौजी नेतृत्व और राष्ट्रीय राजनीति में उनके कथित 'प्रभाव व प्रभुत्व' के बारे में रखते हैं। 
 
उस समय जब लोकतंत्र नया-नया स्थापित हुआ था और आज जबकि यह कई कटु अनुभवों से गुज़र चुका है, एक सवाल नहीं बदला यानी नए आर्मी चीफ़ का राजनीतिक झुकाव किस तरफ़ होगा।
 
थल सेनाध्यक्ष का चुनाव अलग क्यों?
किसी भी लोकतांत्रिक समाज में सैन्य सेवाओं के प्रमुख यानी सेनाध्यक्षों की तैनाती एक सामान्य कार्रवाई होती है।
 
पाकिस्तान में सशस्त्र सेनाओं के प्रमुख ग्रेड 22 के अफ़सर होते हैं और उन जैसे दर्जनों दूसरे अफ़सर विभिन्न संस्थाओं में तैनात होते रहते हैं मगर उनकी तैनाती ख़बरों में कम ही जगह बनाती है। 
 
पाकिस्तान में भी वायु सेना और नौसेना के प्रमुखों की तैनाती की जानकारी एक प्रेस रिलीज़ से मिलती है मगर थल सेना के अध्यक्ष का मामला बिल्कुल अलग है।
 
यहां तक कि नया आर्मी चीफ़ तैनात होते ही 'अगला सेना प्रमुख कौन होगा' की बहस शुरू हो जाती है। 
 
एक तरफ़ पत्रकार इस सवाल के जवाब की खोज करते फिरते हैं कि अगले सेना प्रमुख के लिए कौन सीनियर होगा, किसने किस तारीख़ को कौन सी कमान संभाली और किसे, कब और कितने बजे रिटायरमेंट के कारण सेनाध्यक्ष की दौड़ से बाहर हो जाना है।
 
तो दूसरी तरफ़ राजनेता यह ख़बरें जमा करने में लगे नज़र आते हैं कि कौन सा लेफ़्टिनेंट जनरल किस नेता का रिश्तेदार है, या किस राजनीतिक परिवार के लिए नरम सोच रखता है।  
 
अफ़वाहों का बाज़ार गर्म होता है और ऐसी अफ़वाहें कभी-कभी ऐसे फ़ैसले भी कराती हैं जिनके बारे में पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने एक बार कहा था- "मैंने जनरल मुशर्रफ़ को तैनात करने का फ़ैसला जल्दबाज़ी में किया था, मुझे ग़लत सलाह दी गई थी।"
 
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सेना के 'न्यूट्रल' होने पर सवाल
शुज़ा नवाज़ अपनी किताब 'क्रॉस्ड स्वोर्ड्स' में लिखते हैं कि नवाज़ शरीफ का इशारा उन अफ़वाहों की ओर था जो उस समय लेफ़्टिनेंट जनरल अली क़ुली ख़ान और कुछ दूसरे अफ़सरों के बारे में फैली हुई थी कि वे राजनीतिक झुकाव रखते हैं। 
 
पाकिस्तानी सेना ने हर समय उन आरोपों का ज़ोरदार ढंग से खंडन किया है कि उनका नेतृत्व राजनीति में हस्तक्षेप करता है या उनके किसी भी राजनेता, चाहे वह सरकार से हो या विपक्ष से, के साथ अच्छे या बुरे संबंध हैं। 
 
मगर हाल के कुछ महीनों में आरोपों, उनके जवाबों और बयानों का सिलसिला बढ़ गया है। सेना के प्रवक्ता कई बार दोहरा चुके हैं कि वह अब 'न्यूट्रल' हैं और राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। 
 
लेकिन राजनीति के दांव-पेच समझने वाले अब भी सैन्य नेतृत्व के समर्थन को महत्वपूर्ण समझते हैं और उन्हें राजनीति से अलग नहीं कर पाते।
 
जैसा कि वरिष्ठ विश्लेषक आमिर ज़िया कहते हैं कि ख़ुद को अराजनीतिक कहने वाली फ़ौज अराजनीतिक होकर भी राजनीतिक ही है, तो क्या वर्तमान राजनीतिक संकट उस समय ख़त्म हो जाएगा जब एक नए आर्मी चीफ़ अपना पद संभाल लेंगे?
 
इस सवाल का जवाब समझने से पहले एक नज़र वर्तमान सेना प्रमुख और नई तैनाती के संबंध में राजनीतिक दलों के रुख़ पर भी डाल लेते हैं।
 
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सेना का हस्तक्षेप
पिछले कई दशकों में सेना पर बड़े राजनेताओं को दरकिनार करने और चुनावों में हस्तक्षेप जैसे आरोप लगते रहे हैं।
 
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान सरकार में आए तो उस समय के विपक्षी दलों, ख़ासकर मुस्लिम लीग नून (यानी नवाज़ गुट) ने भी यही आरोप दोहराए थे।
 
इसी तरह आईएसआई के वर्तमान प्रमुख की तैनाती के समय पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और आर्मी चीफ़ जनरल क़मर जावेद बाजवा के बीच मतभेद सार्वजनिक तौर पर सामने आए थे। 
 
इस मामले के कुछ महीने बाद वो ही विपक्षी दल एक सफल अविश्वास प्रस्ताव लाए जो कुछ समय पहले इस्टैब्लिशमेंट (सैन्य संस्था) के ख़िलाफ़ 'वोट को इज़्ज़त दो' का नारा लगा रहे थे।
 
इमरान ख़ान को इस अविश्वास प्रस्ताव के नतीजे में प्रधानमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था। 
 
आज जब इस पद पर तैनाती का समय आया तो पीडीएम (पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट) गठबंधन सरकार में है जिसमें मुस्लिम लीग नून को बढ़त प्राप्त है।
 
आर्मी चीफ़ की तैनाती के मामले पर एक रस्साकशी जारी है जिसने देश में एक राजनीतिक संकट का रूप ले लिया है। यह तैनाती इतनी महत्वपूर्ण है कि अविश्वास प्रस्ताव के दौरान मुस्लिम लीग नून के एक सीनियर नेता से जब मैंने यह प्रस्ताव लाने का कारण पूछा तो उनका जवाब कुछ इस तरह था-
 
"इस समय पीडीएम का कोई दल यह नहीं चाहता कि वह व्यक्ति सेना प्रमुख बने जिसको इमरान ख़ान तैनात करना चाहते हैं क्योंकि ऐसा होने की स्थिति में हम अगला इलेक्शन हार जाएंगे।" यह उस समय की बात है जब इस तैनाती में कई महीने बाक़ी थे।
 
तो क्या तैनाती के बाद देश में राजनीतिक संकट ख़त्म हो जाएगा?
वर्तमान सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा की तैनाती 2016 में हुई थी। 2019 में इमरान ख़ान ने उनके सेवाकाल को विस्तार दिया तो उस समय भी यह मामला गंभीर बहस का मुद्दा बना था। मगर जो संकट आज है, उसकी मिसाल हाल के दिनों में नहीं मिलती।
 
इस सवाल का जवाब जानने के लिए बीबीसी ने कई राजनीतिक विश्लेषकों और पूर्व फ़ौजी अफ़सरों से उनकी राय जाननी चाही। 
 
पूर्व फ़ौजी जनरल अमजद शोएब कहते हैं, "इस समय किसी का नाम मरियम नवाज़ ने ले लिया है कि वह राजनीति में हस्तक्षेप करते हैं, किसी का संबंध आसिफ़ अली ज़रदारी से जोड़ा जा रहा है, किसी का मुस्लिम लीग नून से। तो ऐसी स्थिति में बेहतरीन हल यही है कि एक अविवादित अफ़सर को आर्मी चीफ़ तैनात किया जाए।" 
 
"यह संकट पूरी तरह तब भी ख़त्म नहीं होगा मगर एक अविवादित व्यक्ति के लिए यह कहीं आसान ज़रूर हो जाएगा।" 
 
उनके विचार में, "इस समय यह जानना महत्वपूर्ण है कि सैन्य नेतृत्व के संबंध में आवाम में क्या राय पाई जाती है। एक अविवादित नए आर्मी चीफ़ के लिए भी संकट को पूरी तरह समाप्त करना मुश्किल होगा।"
 
"मगर कम से कम उसका व्यक्तित्व विवादों से परे होगा और फिर वह अगले कुछ महीनों में ख़ुद को और संस्था को राजनीति से पूरी तरह दूर साबित करेगा।"
 
"इस स्थिति में ही राजनीतिक संकट समाप्त होगा लेकिन इस समय तो ऐसा मुश्किल नज़र आ रहा है।"
 
इस सवाल पर कि इमरान ख़ान जो इस समय एक लॉन्ग मार्च का नेतृत्व कर रहे हैं और हाल ही में एक क़ातिलाना हमले में बाल-बाल बचे हैं, इस तैनाती को कैसे स्वीकार करेंगे?
 
लेफ़्टिनेंट जनरल रिटायर्ड अमजद शोएब कहते हैं, "इमरान ख़ान मेरिट को समझते हैं और मेरिट पर तैनाती को लेकर उम्मीद है कि वह आपत्ति नहीं करेंगे। दूसरी तरफ़ नए आर्मी चीफ़ को भी जानते-बूझते कोशिश करनी पड़ेगी कि वास्तव में फ़ौज राजनीति से दूर है और कोई हमारा चहेता नहीं है।"
 
"जिसने डोर उलझाई वही सुलझाएगा"
वरिष्ठ विश्लेषक आमिर ज़िया फ़ौज को अतीत की तुलना में आज कई गुना अधिक विवादास्पद समझते हैं। उनके इस विचार का कारण वह नैरेटिव (राय) है जो पाकिस्तान के मध्य वर्ग में इमरान ख़ान की वजह से 'लोकप्रिय' हो गया है। 
 
इस बारे में अतीत का हवाला देते हुए आमिर ज़िया बीबीसी से कहते हैं कि जब पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की सरकार एक फ़ौजी के ज़रिए ख़त्म हुई तो जनता मिठाइयां बांट रही थी, पनामा लीक्स के बाद जब नवाज़ शरीफ़ प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य घोषित हुए तब भी कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आई थी। मगर आज जो प्रतिक्रिया और सेना विरोधी राय हम देख रहे हैं वह उस वर्ग से है जो कुछ समय पूर्व तक फ़ौज का सबसे बड़ा समर्थक था यानी मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग का शहरी वर्ग। 
 
"यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे इनकार संभव नहीं और अब इस ख़ालीपन को भरने और दूरियां पाटने के लिए सैन्य नेतृत्व को ही कुछ पहल करनी होगी।" 
 
आमिर ज़िया कहते हैं कि नए आर्मी चीफ़ कम से कम राजनीति के मामले में अपने पूर्ववर्तियों की नीतियों का शायद अनुसरण न करें। वह अवामी सतह पर सेना विरोधी प्रतिक्रिया की एक वजह ख़ुद सैन्य नेतृत्व का ही भ्रष्टाचार विरोधी नैरेटिव बनाना और फिर इससे दूर हटना समझते हैं। उनके अनुसार देश को वर्तमान राजनीतिक संकट से सैन्य नेतृत्व ही निकाल सकता है। 
 
"इस समय पाकिस्तान के राजनीतिक संकट ने देश को मुश्किल में डाल रखा है, और इसको हल करने की ज़रूरत है और मेरे विचार में यह राजनीतिक दलों के बस की बात नहीं, जो भी नया सेना प्रमुख होगा उसे ही कुछ न कुछ करना होगा क्योंकि जिसने डोर उलझाई है, वही सुलझाएगा।" 
 
आमिर ज़िया के अनुसार नए सेना प्रमुख के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह भी होगी कि उन्हें अपने व्यक्तित्व को जनता के सामने अविवादास्पद और ग़ैरराजनीतिक साबित करना पड़ेगा।
 
वह कहते हैं, "यह बात इमरान ख़ान और शाहबाज़ शरीफ़ को समझनी चाहिए कि सेना प्रमुख किसी का 'अपना बंदा' नहीं होता। वह फ़ौज और देश का प्रतिनिधित्व करता है। जो भी नया आर्मी चीफ़ आएगा वह इस अहसास के साथ आएगा कि उनके बारे में यह राय हो सकती है कि वह किसी दल या राजनीतिक विचारधारा के समर्थक हैं और इस कारण से उन्हें यह पद मिला है। इसलिए नया आर्मी चीफ़ सबसे पहले यही दाग़ धोने की कोशिश करेगा कि वह किसी के समर्थन से आया है।" 
 
लेकिन उन्हें भी राजनीतिक संकट को समाप्त करना एक मुश्किल काम लगता है। 
 
वह कहते हैं, "उम्मीद है कि नया आर्मी चीफ़ इन मामलों को ठीक करेगा और समस्याएं हल करने की कोशिश करेगा। प्यार-मोहब्बत से या छड़ी दिखाकर वह इन राजनीतिक दलों को किसी ऐसे हल की तरफ़ ले जाएं कि कुछ महीने पहले चुनाव हो जाएं और दोनों समूहों के लिए 'विन विन सिचुएशन' पैदा हो जाए।
 
"लेकिन अगर यह संकट अगले साल अगस्त तक जाता है तो नए सेना प्रमुख भी काफी विवादास्पद हो चुके होंगे। तो यह देश किसी संकट में खड़ा होगा। और अर्थव्यवस्था का जो हाल है वह कई गुना बदतर हो चुका होगा।"
 
"समस्या तैनाती नहीं, ताक़त की जंग है"
पूर्व रक्षा सचिव लेफ़्टिनेंट जनरल रिटायर्ड आसिफ़ यासीन की नज़र में राजनीतिक संकट के मूल में आर्मी चीफ़ की तैनाती नहीं बल्कि ताक़त की जंग का त्रिकोण है जिसके तीन किरदार हैं।
 
"अब ऐसा लगता है कि यह ताक़त की जंग है जिसमें एक नाम शहबाज़ शरीफ़, दूसरा इमरान ख़ान और तीसरा नाम जनरल क़मर बाजवा का आता है।"
 
"हर कोई कहता है कि यह सब आर्मी चीफ़ की तैनाती की वजह से है मगर मेरे ख़्याल में ऐसा नहीं, यह ताक़त हासिल करने की कोशिश है। ऐसी स्थिति में मेरी सलाह तो यही होगी कि इस तैनाती की घोषणा जल्द से जल्द कर दी जाए ताकि यह समस्या हल तो हो।"
 
उनकी इस राय से सहमति जताते हुए वरिष्ठ पत्रकार सलीम साफ़ी भी समझते हैं-
 
"राजनीति के मैदान में जारी हलचल और इमरान ख़ान की गतिविधियां वास्तव में नए आर्मी चीफ़ की तैनाती से जुड़ी हैं। इसलिए यह फ़ैसला जितनी जल्द और मेरिट पर हो जाए उतनी ही जल्दी यह राजनीतिक अनिश्चितता समाप्त हो जाएगी।"
 
वह कहते हैं कि नए आर्मी चीफ़ की तैनाती से किस को क्या लाभ होगा, इसकी जानकारी उन्हें नहीं मगर "यह फ़ायदा होगा कि आजकल जो अनिश्चितता फैली है वह ख़त्म हो जाएगी और दूसरे यह कि पाकिस्तानी राजनीति का रुख़ तय हो जाएगा। राजनेता अपनी समस्याओं पर बात करेंगे, और फ़ौजी अफ़सर अपना काम करेंगे।"
 
अतीत में भी सत्तारूढ़ दल यह समझते रहे हैं कि अगर वह सैन्य संस्थान के साथ 'एक पेज पर' होंगे तो यही उनकी सरकार में रहने की गारंटी होगी। जबकि विपक्षी दलों का यह विचार रहा है कि आर्मी चीफ़ उनकी मर्ज़ी का हुआ तो चुनाव में कामयाबी उन्हें मिलेगी। दोनों ही इन सभी अनुभवों से गुज़र चुके हैं।  
 
इस साल अविश्वास प्रस्ताव से पहले मैंने मुस्लिम लीग नून के नेता और राष्ट्रीय असेंबली के सदस्य अहसन इक़बाल से सवाल किया था कि क्या यह प्रस्ताव इसलिए लाया जा रहा है कि नया आर्मी चीफ़ आप अपनी मर्ज़ी से तैनात कर सकें तो उन्होंने कुछ इन शब्दों में जवाब दिया था- "अपना बंदा कोई नहीं होता। हम तो यह अनुभव से भी देख चुके हैं।"

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