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NIA क्या CBI की ही तरह सरकार का दूसरा 'तोता' है?

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, बुधवार, 18 सितम्बर 2019 (15:38 IST)
रजनीश कुमार

चार जून, 2011। लखनऊ में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी। तब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मोदी ने एनआईए यानी नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी पर जमकर हमला बोला। तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी ने कहा कि एनआईए का गठन संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ है और यह राज्यों की कानून-व्यवस्था में दख़ल देती है।
मोदी ने कहा कि केंद्र राज्यों को किनारे कर आतंकवाद से अकेले लड़ना चाहती है और यह संघीय ढांचे के लिए सही नहीं है।
 
तारीख़ बदली और मोदी मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बन गए। इसके साथ ही एनआईए पर उनकी पुरानी सोच भी बदल गई है। पिछले महीने ही मोदी सरकार ने संसद में एनआईए संशोधन बिल 2019 पास कराया।
 
बिल के पास होने के बाद से एनआईए को और ज़्यादा अधिकार मिल गए हैं। अब आतंकवादी हमलों की जांच में एनआईए को केंद्र सरकार के आदेश की ज़रूरत है, न कि राज्य सरकारों के आदेश की। अब बिना राज्यों के आदेश के भी एनआईए को इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसिक्युशन का अधिकार मिल गया है।
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गृहमंत्री अमित शाह ने इस बिल को संसद में रखते हुए कहा कि इसका हर कोई समर्थन करे ताकि एक संदेश जाए कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत की संसद एकसाथ खड़ी है।
 
विपक्षी पार्टियों ने आरोप लगाया कि सरकार एनआईए के ज़रिए भारत को 'पुलिस स्टेट' में तब्दील कर देगी। विपक्ष की इस चिंता पर अमित शाह वैसे ही मुस्कुराए, जैसे जून 2011 में सीएम मोदी की चिंता पर तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार की प्रतिक्रिया थी।
इन्वेस्टिगेशन या प्रॉसिक्यूशन एजेंसी?
 
एनआईए का गठन 2008 में मुंबई में आतंकवादी हमले के बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने किया था। इसे नेशनल इन्वेस्टिगेशन बिल 2008 कहा जाता है। एनआई में इन्वेस्टिगेशन यानी 'जांच' शब्द है तो क्या एनआईए केवल जांच एजेंसी ही है? नहीं, एनआईए केवल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी ही नहीं है, बल्कि प्रॉसिक्यूशन एजेंसी भी है।
 
इन्वेस्टिगेशन यानी किसी भी मामले की जांच और सबूत इकट्ठा करने से है और प्रॉसिक्यूशन मतलब मुकदमा दर्ज होने की बाद की कार्रवाई, जिसमें चार्जशीट दायर करना भी शामिल है।
 
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में इंसाफ़ की गारंटी के लिए इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसिक्यूशन को अलग-अलग रखने की बात कही जाती है। पश्चिम के कई देशों में ऐसा है भी। लेकिन एनआईए के साथ ऐसा नहीं है। सीबीआई के साथ भी ऐसा नहीं है। दोनों इन्वेस्टिगेशन के साथ-साथ प्रॉसिक्यूशन एजेंसी भी हैं यानी एनआईए केंद्र सरकार के आदेश पर जांच शुरू करेगी और जांच के बाद प्रॉसिक्यूशन में भी सरकार का दख़ल होगा।
 
अमेरिका में प्रॉसिक्यूशन का काम एफ़बीआई जैसी एजेंसी के पास न होकर जस्टिस डिपार्टमेंट के पास है, इसी तरह ब्रिटेन में मुकदमे चलाने का काम क्राउन प्रॉसीक्युशन सर्विस (सीपीएस) के पास है। मालेगांव धमाका (2008) की स्पेशल प्रॉसिक्यूटर रोहिणी सालियन ने 2015 में आरोप लगाया था कि इस हमले के अभियुक्तों को लेकर नरमी बरतने के लिए उन पर दबाव बनाया गया।
 
रोहिणी ने एनआईए के एसपी सुहास वर्के पर यह आरोप लगाया था। रोहिणी ने कहा था कि ऐसा केस को कमज़ोर बनाने के लिए किया गया ताकि सभी अभियुक्त बरी हो जाएं। इस ब्लास्ट में भोपाल से बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर भी अभियुक्त हैं।
रोहिणी ने 'इंडियन एक्सप्रेस' को दिए इंटरव्यू में कहा था, 'एनडीए सरकार आने के बाद मेरे पास एनआईए के अधिकारियों का फ़ोन आया। जिन मामलों की जांच चल रही थी उनमें हिन्दू अतिवादियों पर आरोप थे। मुझसे कहा गया वो बात करना चाहते हैं। एनआईए के उस अधिकारी ने कहा कि ऊपर से इस मामले में नरमी बरतने के लिए कहा गया है।'
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लोकसभा में एनआईए संशोधन बिल 2019 पर बहस करते हुए कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने भी कहा कि इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसिक्यूशन बिलकुल अलग होने चाहिए।
 
इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसिक्यूशन का साथ होना ख़तरनाक?
 
तिवारी ने कहा, '1997 में विनीत नारायण जजमेंट आया था। इस जजमेंट के आए 22 साल हो गए लेकिन इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसिक्यूशन को अब तक अलग नहीं किया जा सका है। इन्वेस्टिगेशन सरकार के फ़ैसले से होगा और प्रॉसिक्यूशन पर भी आलाकमान का नियंत्रण होगा तो इंसाफ़ कैसे किसी को मिलेगा? मैं किसी सरकार को दोषी नहीं ठहरा रहा हूं बल्कि यह भारत के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का अहम मुद्दा है।'
 
मनीष तिवारी ने कहा कि अगर सरकार बिल लेकर आई है तो उसे सुनिश्चित करना चाहिए कि इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसिक्यूशन पर नियंत्रण किसी एक का नहीं हो बल्कि दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र हों। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण भी मानते हैं क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को सरकार से स्वतंत्र होना चाहिए।
 
प्रशांत भूषण ने बीबीसी से कहा, 'इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसिक्यूशन को स्वतंत्र इसलिए रखा जाता है ताकि मनमानी रोकी जा सके और एक किस्म का चेक रहे। अब सरकार ही जांच का आदेश देगी, सरकार ही चार्जशीट दायर करवाएगी। कायदे से इन्वेस्टिगेशन और प्रॉसिक्यूशन को न्यायपालिका के तहत होना चाहिए, लेकिन वह है सरकार के अधीन।'
 
एनआईए के बने 10 साल हो गए हैं। इन 10 सालों में एनआईए ने 244 मामलों की जांच की। एनआईए की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार चार्जशीट दायर होने के बाद इनमें से 37 मामलों पर पूर्णत: या आंशिक रूप से जांच के बाद फ़ैसले आए।
 
इनमें से 35 मामलों में सज़ा मिली। इस तरह से देखें तो एनआईए की दोषियों को सज़ा दिलाने की दर 91.2 फ़ीसदी है। एनआईए बनने के बाद 5 साल तक यानी 2009 से 2014 के बीच इस अहम एजेंसी को महज एक आतंकवादी हमले की जांच को अंजाम तक पहुंचाने में सफलता मिली थी। वो मामला था कोझीकोड बस डिपो ब्लास्ट। इसमें 2 लोगों को आजीवन कैद की सज़ा मिली थी।
 
राज्यसभा में 17 जुलाई को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी ने कहा कि 2009 में एनआईए बनी। रेड्डी ने कहा, '2009 से 2014 तक कांग्रेस की सरकार थी और इस दौरान एनआईए ने 80 मामले दर्ज किए। इनमें से 38 मामलों में फ़ैसले आए, 33 मामलों में सज़ा हुई और कन्विक्शन रेट 80 फ़ीसदी रहा। 2014 मई में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद से अब तक 195 मामले एनआईए ने दर्ज किए और इनमें से 15 पर फ़ैसले आए और सबमें सज़ा हुई। 100 फ़ीसदी कन्विक्शन रेट रहा।'
 
सरकार के दावे पर राज्यसभा में कांग्रेस के नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि जहां 100 फ़ीसदी कन्विक्शन की बात की जा रही है, उनमें सारी जांच और गिरफ़्तारी राज्यों की पुलिस ने की और उन्होंने उन गिरफ़्तारियों को एनआईए के पास ट्रांसफर कर दिया। एनआईए ने उस पर कुछ नहीं किया। सिंघवी ने कहा, 'आतंकवाद के बड़े मामलों में एनआईए की भूमिका बहुत ही ख़राब है।'
 
क्या एनआईए के कन्विक्शन रेट की सराहना होनी चाहिए? स्विटज़लैंड की बर्न यूनिवर्सिटी में 'टेरर प्रॉसिक्यूशन इन इंडिया' विषय पर पीएचडी कर रहे शारिब ए. अली कहते हैं, 'एनआईए के प्रॉसिक्यूशन में प्ली बार्गेनिंग को आज़माया जा रहा है। प्ली बार्गेनिंग का मतलब है कि अभियुक्त ख़ुद को बिना अदालती सुनवाई के गुनाहगार मान लेता है और इसके बदले में उसे कुछ छूट दी जाती है। यह भारत के लिए बिलकुल नया है जबकि अमेरिका में ख़ूब चलता है। इसमें अभियुक्त को बताया जाता है कि कानूनी प्रक्रिया काफ़ी लंबी चलेगी और बहुत खर्च होगा इसलिए अपना गुनाह ख़ुद ही कबूल कर लो।'
 
शारिब कहते हैं, 'एनआईए की प्रक्रिया और चार्जशीट में काफ़ी लंबा वक़्त लगता है। किसी एक मामले में एनआईए चार्जशीट दायर करने में औसत 4 से 5 साल का वक़्त लेती है। इस दौरान अभियुक्त 5 से 6 साल जेल काट लेता है। ऐसे में ऑफर किया जाता है कि अब इतने साल जेल में रह ही लिए तो ख़ुद को गुनाहगार मान लो। अब ये सब मामले भी कन्विक्शन में आ जाते हैं। टाडा का कन्विक्शन रेट 1 फ़ीसदी से भी कम था। आतंकवाद को लेकर कानून का इतिहास रहा है कि कन्विक्शन रेट काफ़ी नीचे रहा है। लेकिन एनआईए का कन्विक्शन रेट अचानक बढ़ गया।'
 
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि जिन आतंकवादी हमलों में हिन्दू संगठनों से जुड़े लोगों के नाम आए उनमें एनआईए की भूमिका संदिग्ध रही।
 
2004 से 2008 के बीच 7 बम ब्लास्ट किए गए। 2006 और 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव में, 2006 में समझौता एक्सप्रेस में, 2007 में अजमेर दरगाह में, 2007 में हैदराबाद की मक्का मस्जिद में और 2008 में गुजरात मोडासा में।
 
इन धमाकों में हिन्दूवादी संगठन 'अभिनव भारत' के नेता अभियुक्त बने और इनमें से कइयों के वर्तमान की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी से संबंध रहे हैं। ये नाम हैं- मेजर रमेश उपाध्याय, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, सुधाकर चतुर्वेदी, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, इंद्रेश कुमार, स्वामी असीमानंद और सुनील जोशी। इन मामलों में पहली गिरफ़्तारी के ठीक बाद सुनील जोशी की 2007 में हत्या कर दी गई थी। असीमानंद ने 2011 में हमले का गुनाह कबूल लिया था लेकिन वे बाद में मुकर गए थे।
 
18 मई 2007 को हैदराबाद की 4 सदी पुरानी मक्का मस्जिद में जुमे की नमाज़ के वक़्त धमाका किया गया था। इसमें 9 लोगों की मौत हुई थी और 58 लोग ज़ख़्मी हुए थे। करीब 11 साल बाद 16 अप्रैल 2018 को एनआईए की विशेष अदालत ने मक्का मस्जिद धमाके के सभी 5 अभियुक्तों को बरी कर दिया।
 
अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि मस्जिद में धमाका किसने किया था? जस्टिस के. रवीन्द्र रेड्डी ने पांचों अभियुक्तों को बरी करने का फ़ैसला देने के बाद अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। जब उनके इस्तीफ़े को स्वीकार नहीं किया गया तो उन्होंने स्वेच्छा से रिटायर होने का आवेदन दे दिया। उन्होंने कहा कि वे अब न्यायिक पेशे में और काम नहीं करना चाहते हैं।
 
समाचार एजेंसी पीटीआई की 22 सितंबर 2018 की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस रेड्डी ने पद छोड़ने के बाद बीजेपी में शामिल होने की इच्छा जताई। तब रेड्डी ने कहा था कि उन्होंने बीजेपी प्रमुख अमित शाह से मुलाकात भी की थी। आख़िर जज ने इस्तीफ़ा क्यों दिया? इसका जवाब आज तक नहीं मिल सका है।
 
एनडीए सरकार के आते ही बदली गई जांच?
 
2014 में एनडीए जब प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आया तो उसके बाद से हिन्दू संगठनों से जुड़े जिन व्यक्तियों पर आतंकवादी हमले के आरोप लगे थे, उन मुकदमों की दिशा बदलती गई।
 
एनडीए सरकार के आए 3 महीने ही हुए थे कि असीमानंद को समझौता एक्सप्रेस धमाके में अगस्त 2014 में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट से ज़मानत मिल गई। एनआईए ने ज़मानत का विरोध नहीं किया। इसके साथ ही एनआईए ने कर्नल पुरोहित को क्लीनचिट दे दी जिनके ख़िलाफ़ एटीएस ने आरोप पत्र दाख़िल किए थे। आख़िरकार 21 मार्च 2019 को असीमानंद समेत सभी 4 अभियुक्तों को बरी कर दिया गया। समझौता एक्सप्रेस धमाके में कुल 68 लोगों की जान गई थी।
 
अजमेर ब्लास्ट 2007-2017 में स्थानीय अदालत ने असीमानंद को इस मामले से बरी कर दिया। सुनील जोशी की 2007 में हत्या कर दी गई थी, उन्हें इसमें एनआईए की विशेष अदालत ने दोषी ठहराया। इसके अलावा आरएसएस के पूर्व प्रचारक देवेंद्र गुप्ता और भावेश पटेल को आजीवन कैद की सज़ा मिली। इसमें साध्वी प्रज्ञा और इंद्रेश कुमार के बरी होने को लेकर एनआईए पर सवाल उठे।
 
मालेगांव ब्लास्ट : 2016 में एनआईए ने साध्वी प्रज्ञा का नाम आरोपपत्र में शामिल नहीं करते हुए क्लीन चिट दे दी थी। 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने प्रज्ञा ठाकुर को ज़मानत दी। इसी साल इस मामले के मुख्य अभियुक्त कर्नल पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली। मोडासा ब्लास्ट केस को एनआईए ने 2015 में सबूत के अभाव में बंद करने का फ़ैसला किया था।
 
लोग सवाल पूछते हैं कि मोदी सरकार के आने के बाद इन आतंकवादी हमलों में हिन्दू संगठनों के जुड़े अभियुक्त बरी क्यों हो गए? राज्यसभा में यही सवाल पिछले महीने एनआईए संशोधन बिल 2019 पर हो रही बहस के दौरान कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने गृहमंत्री अमित शाह से पूछा था।
 
इस सवाल के जवाब में अमित शाह ने कहा कि अदालत फ़ैसला चार्जशीट के आधार पर देती है और इन सभी मामलों में चार्जशीट मोदी सरकार आने से पहले यानी कांग्रेस की सरकार में दायर की गई थी। अमित शाह ने कहा कि कांग्रेस ख़ुद से सवाल पूछे कि चार्जशीट इतनी कमज़ोर क्यों थी?
 
इस पर अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि केवल चार्जशीट के आधार पर ही अदालत फ़ैसला नहीं करती है बल्कि जज के सामने माकूल जिरह भी करनी होती है, जो मोदी सरकार ने नहीं किया। सिंघवी ने पूछा कि बरी किए जाने के ख़िलाफ़ एनआईए ने अपील क्यों नहीं की तो शाह ने कहा कि अपील लॉ ऑफिसर के कहने पर होती है और लॉ ऑफिसर ने ऐसा नहीं कहा था।
 
एनआईए की विश्वसनीयता पर संदेह?
 
एनआईए की विश्वसनीयता पर पूछे गए सवाल के जवाब में आतंकवाद पर लिखने वाले जाने-माने लेखक और इंस्टिट्यूट फोर कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट के निदेशक रहे अजय साहनी कहते हैं, 'हिन्दुत्व के मामलों में एनआईए की भूमिका अच्छी नहीं रही है। हम ये नहीं कह सकते कि वो निर्दोष है या दोषी है। लेकिन एक चीज़ बिलकुल साफ़ नज़र आती है कि या तो एनआईए कांग्रेस सरकार में राजनीतिक दबाव के कारण झूठ बोल रही थी या एनडीए सरकार में झूठ बोल रही है। पहले एनआईए कह रही थी कि ये लोग न सिर्फ़ मुज़रिम हैं बल्कि ये फांसी के लायक मुज़रिम हैं। इस सरकार में ये कहने लगे कि उनके पास कोई सबूत ही नहीं हैं।'
 
साहनी कहते हैं, 'यह बिलकुल स्पष्ट है कि इस एजेंसी का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है लेकिन कौन कर रहा है इस पर टिप्प्णी नहीं कर सकता। ये तो स्पष्ट है कि एनआईए या तो पहले झूठ बोल रही थी या अब झूठ बोल रही है। एनआईए ने कांग्रेस की सरकार में कहा था कि इन लोगों को फांसी दी जाए और इनके ख़िलाफ़ पर्याप्त सबूत हैं। जब सरकार बदली तो इनके सारे सबूत ग़ायब हो गए। इस वक़्त मुस्लिम अभियुक्तों के ख़िलाफ़ दुश्मनी बढ़ गई है। मैं एनआईए एक्ट से ही सहमत नहीं हूं। कोई एक ऐसी संस्था खड़ी कर दे जिस पर संवैधानिक प्रश्न खड़े होते हैं, उससे कैसे सहमत हुआ जा सकता है?'
 
साहनी मानते हैं कि अभी हर संस्थान का ग़लत इस्तेमाल हो रहा है। वो कहते हैं, 'आप एक संस्था को इतनी शक्ति दे रहे हैं और उससे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि दुरुपयोग नहीं होगा। मैं मानता हूं कि एनआईए को जितनी ताकत दी गई है वो ठीक नहीं है। एनआईए की शुरुआत कांग्रेस ने की और आज भी उसे अपनी ग़लती का अहसास नहीं हो रहा है। ऐसी संस्थाओं और कानून के ज़रिए सरकार का विरोध करने वालों को फंसाया जा रहा है। मामला वर्षों तक लटका रहता है और उन्हें पूरी तरह से तोड़ दिया जाता है।'
 
कई अहम मामलों में स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर रहे उज्ज्वल निकम नहीं मानते हैं कि राजनीतिक दबाव में किसी को फंसाया जाता है।
 
वो कहते हैं, 'कांग्रेस हो या बीजेपी सब सरकार में इन मामलों की जांच को लेकर प्रॉपेगैंडा चलता है। मैं स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के तौर पर पिछले 30-40 सालों से काम कर रहा हूं और कभी ये नहीं देखा कि कोई सरकार निर्दोष व्यक्ति को अपने स्वार्थ के लिए फंसा रही है। हां, ये हो सकता है कि कम सबूत के बावजूद किसी पर एक्शन लिया जाता है तो विपक्ष आरोप लगाता है कि बदले की भावना से सरकार काम कर रही है। समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद और मालेगांव धमाके के बारे में मुझे बहुत पता नहीं है।'
 
एनआईए में मोदी सरकार ने कौन से बदलाव किए?
 
संसद में एनआईए संशोधन बिल 2019 पास होने के बाद एनआईए को और अधिकार मिल गए हैं। उज्ज्वल निकम इसे सही मानते हैं और कहते हैं कि भारत पर आतंकवादी हमले का ख़तरा बरकरार है इसलिए यह ज़रूरी था। वहीं अजय साहनी कहते हैं कि लॉ एंड ऑर्डर राज्यों का विषय है और एनआईए उसमें दख़लअंदाज़ी कर रही है। ज़ाहिर है इसी दख़लअंदाज़ी की बात मोदी साल 2011 में कर रहे थे।
 
एनआईए संशोधन बिल 2019 के ज़रिए 3 अहम बदलाव किए गए हैं-
 
अब एनआईए एटॉमिक एनर्जी एक्ट, 1962 और यूएपीए एक्ट 1967 के तहत होने वाले अपराधों की जांच कर सकती है। इसके अलावा मानव तस्करी, जाली नोट, प्रतिबंधित हथियारों के निर्माण और बिक्री, साइबर-आतंकवाद और एक्सप्लोसिव सबस्टैंस एक्ट, 1908 के तहत आने वाले अपराधों की जांच करेगी। इसके अलावा एनआईए के अधिकारियों के पास दूसरे पुलिस अधिकारियों के समान अधिकार होंगे और यह पूरे देश में लागू होगा।
 
इस बिल के पास होने से एनआईए को यह ताकत भी मिल गई है कि वो विदेशों में जाकर भी भारतीयों के ख़िलाफ़ हुए अपराधों की जांच कर सकती है।
 
इस बिल के पास होने के बाद सेशन कोर्ट को एनआईए का स्पेशल कोर्ट का दर्जा दिया जा सकता है। इनमें जजों की नियुक्ति उस राज्य के हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सिफ़ारिश पर केंद्र सरकार करेगी।
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एनआईए का राजनीतिक इस्तेमाल
 
हैदराबाद से लोकसभा सांसद और कानून की अच्छी समझ रखने वाले असदउद्दीन ओवैसी को लगता है कि एनआईए एक ऐसी एजेंसी बन गई है जिसका इस्तेमाल सरकार राजनीतिक रूप से आराम से करती है।
 
वो कहते हैं, 'किसी भी लोकतंत्र में डायरेक्टर ऑफ पब्लिक प्रॉसिक्यूटर बिलकुल स्वतंत्र होता है लेकिन इसमें इन्होंने एक कर दिया है। इससे इंसाफ़ नहीं बल्कि नाइंसाफ़ी सुनिश्चित होगी।'
 
ओवैसी कहते हैं, 'मक्का मस्जिद धमाके में एक ऐसे प्रॉसिक्यूटर को रखा गया जिसने अपनी ज़िंदगी में क्रिमिनल केस तो छोड़िए एक्सप्लोसिव सब्सटैंस एक्ट का केस भी नहीं लड़ा होगा। कोर्ट ने सारे अभियुक्तों को बरी कर दिया और फिर आप अपील भी नहीं करते। दूसरा समझौता एक्सप्रेस धमाके में भी सारे अभियुक्त बरी हो गए और फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील नहीं की गई। भीमा कोरेगांव मामले में पूना पुलिस ने कहा था कि प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश रची जा रही थी। इसके बाद लोगों ने अदालत के दस्तावेज देखे तो इस बात का कहीं ज़िक्र तक नहीं था। इस मामले के सारे अभियुक्तों पर यूएपीए लगा दिया गया है।'
 
ओवैसी कहते हैं कि सरकारों के बदलने से इंसाफ़ के हक को ख़त्म नहीं किया जा सकता।
 
वो कहते हैं, 'आप आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई अपनी विचारधारा के हिसाब से नहीं लड़ सकते। मक्का मस्जिद, अजमेर और समझौता एक्सप्रेस में जो मारे गए, हम उनके परिवार वालों को क्या कहेंगे? क्या आतंकवाद के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई सिलेक्टिव लड़ाई है? मालेगांव में जिन मुस्लिम लड़कों को सालों तक जेल में बिना गुनाह के बंद रखा गया उसकी भरपाई कौन करेगा? इस मामले में साध्वी प्रज्ञा पर आज भी केस चल रहा है। जिसके ऊपर आतंकवाद के आरोप हैं उसे आप चुनावी टिकट दे रहे हैं और जीत भी गईं। जिस बहादुर हेमंत करकरे ने पाकिस्तानी आतंकवादियों से लड़ते हुए अपनी जान की कुर्बानी दे दी, उसका साध्वी प्रज्ञा मज़ाक उड़ाती हैं।'
 
ओवैसी कहते हैं कि पहले एनआई का कोई ऑफिसर ग़लत करता था तो उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाती थी लेकिन चिदंबरम ने इसे भी ख़त्म दिया था। वो कहते हैं इस संशोधन के बाद अब राज्य की सरकारों से अनुमति लेने की भी ज़रूरत नहीं रह गई है।
 
एनआईए पर किसका नियंत्रण?
 
शोधकर्ता शारिब ए. अली कहते हैं कि एनआईए पर एग्जीक्यूटिव कंट्रोल है, न कि जुडिशियल कंट्रोल यानी यह सरकार के नियंत्रण में है, न कि न्यायपालिका के नियंत्रण में।
 
शारिब कहते हैं, 'अगर आप एनआईए कोर्ट को देखें तो यहां जजों की नियुक्ति केंद्र सरकार संबंधित राज्यों के हाइ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेकर करती है। मतलब आपका इन्वेस्टिगेशन पर नियंत्रण तो है ही, प्रॉसिक्यूशन पर भी कंट्रोल है। पहले के आतंकवादी मामलों में सरकारी प्रॉसिक्यूटर की ज़िम्मेदारी अलग-अलग वकील ले रहे थे।
 
लेकिन पिछले 20 सालों से देखिए तो उज्ज्वल निकम नाम का व्यक्ति ही प्रॉसिक्यूटर का रोल बन गया है। निकम हमेशा एक आवाज़ में बात करते हैं। अब एनआईए ने बंद लिफ़ाफ़े में जज को सबूत देना शुरू किया है। जैसे किसी जज को लगता है कि केस में कोई दम नहीं है और ज़मानत दी जा सकती है लेकिन एनआईए ज़मानत के ख़िलाफ़ है तो वो बंद लिफ़ाफ़े में जज को कुछ देती है। सील्ड कवर में क्या दिया गया है, इसे बताया नहीं जा रहा है लेकिन ज़मानत रद्द कर दी जाती है।'
 
शारिब कहते हैं कि एनआईए कोर्ट के केवल फ़ाइनल फ़ैसले को ही हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। मतलब सेशन कोर्ट तथ्यों का इस्तेमाल कैसे करता है या किन तथ्यों को शामिल करता है, इससे संतुष्ट नहीं होने पर आप हाई कोर्ट में चुनौती नहीं दे सकते हैं। शारिब कहते हैं कि अगर फ़ाइनल फ़ैसले को चुनौती भी देते हैं तो एनआईए ने फैक्ट का इस्तेमाल कैसे किया इस पर बात नहीं होगी। वहां बात केवल कानूनी नुक्ते पर होगी।

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