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नजरिया : रामनाथ कोविंद ने कैसे दिग्गजों को पछाड़ा?

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, सोमवार, 19 जून 2017 (21:09 IST)
राम बहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
भारतीय जनता पार्टी की ओर से रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने का फैसला चौंकाने वाला है। जो नाम पिछले दो महीने से चल रहे थे, उसमें मेरी जानकारी में कहीं से भी रामनाथ कोविंद का नाम नहीं था। 
जो नाम चल रहे थे, उसमें दो तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं। एक तो ये कि दक्षिण भारत से कोई नाम होगा क्योंकि भारतीय जनता पार्टी दक्षिण भारत में पांव पसारना चाहती है।
 
दक्षिण भारत की एक पत्रिका ने तो यह भी लिखा है कि नारायण मूर्ति और अज़ीम प्रेमजी इन दो नाम में से कोई एक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होंगे। बीजेपी के भीतर भी कई बड़े नेताओं के अपने अनुमान में रामनाथ कोविंद का नाम नहीं थी। एक शादी में कई बड़े नेताओं से मुलाकात हुई थी, तो कई लोग कह रहे थे कि अमित शाह ने पहले ही कह दिया है कि कोई भी जो पहले से पद पर हैं, उनमें से किसी का चुनाव नहीं होगा।
 
जो बात कोविंद के पक्ष में गई : तो एक तरह से पहले से यह मान लिया गया था कि वैंकैया नायडू, सुषमा स्वराज और सुमित्रा महाजन का नाम होड़ से बाहर हो गया। राज्यपालों में जिनका नाम सबसे मज़बूती से उभरा था वो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक थे। झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का नाम भी चला था, लेकिन इन नामों से बिलकुल अलग रामनाथ कोविंद का नाम आना अचरज़ भरा है, लेकिन मेरे ख्याल से बेहतर नाम है। ऐसे में बड़ा सवाल यह जरूर है कि उनका नाम अचानक सबसे आगे हो गया?
 
पहली नज़र में देखें तो रामनाथ कोविंद के पक्ष में तीन चीज़ें गई हैं- एक तो बिहार के राज्यपाल के तौर पर उनका अपना कामकाजी अनुभव है, दूसरी पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा और वे जिस समुदाय से आते हैं, ये तीन बातें उनके पक्ष में रही हैं। 
 
अगर इसको राजनीतिक तौर पर देखें तो रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाने में उत्तरप्रदेश की राजनीति की अहम भूमिका रही है। उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में जातीय संघर्ष शुरू हो गया है।
 
दलित राजनीति की भूमिका : मुख्यमंत्री तो संन्यासी हैं। संन्यासी तो सबके होते हैं, उन्हें जाति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए, लेकिन उत्तरप्रदेश में वास्तविक धरातल पर संघर्ष तो हो रहा है और ये संघर्ष राजपूत बनाम दलितों का है। सहारनपुर से शुरू हुई घटना का पूरे राज्य में असर दिख रहा है। पूरे राज्य में जातीय संघर्ष के लक्षण दिख रहे हैं और हर जगह यह संघर्ष राजपूत और दलितों के बीच ही हो रहा है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश को संभालने के लिए भी कोविंद को सामने लाने की रणनीति अपनाई है।
 
चन्द्रशेखर युवा नेता के तौर पर पहचान बनाते जा रहे हैं और उनमें बहुजन समाज पार्टी की जगह लेने की संभावना भी लोग देखने लगे हैं। ऐसे में जो दलित पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़े थे, उनकी भावनाओं पर मरहम लगाने के लिए एक दलित नेता को सामने लाने की कोशिश दिखती है ताकि ये कहा जा सके कि हमने दलित को राष्ट्रपति तो बनाया है।
 
मिल जाएगा बहुमत : इसी वजह से पहले सोचे गए नाम में बदलाव किया गया है। वैसे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुरू से ही भीमराव अंबेडकर को पुनर्स्थापित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं, तो ये भी एक वजह होगी।
रामनाथ कोविंद के नाम सामने आने का एक पहलू और है। मौजूदा समय में यह साफ था कि एनडीए के पास राष्ट्रपति बनाने लायक बहुमत थोड़ा कम पड़ रहा था, लोग कांटे की टक्कर की उम्मीद लगा रहे थे, लेकिन कोविंद के सामने आने से उनका बहुमत से राष्ट्रपति बनना तय हो गया है। 
 
रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार का भी साथ मिलेगा। बिहार के राज्यपाल के तौर पर रामनाथ कोविंद की नीतीश कुमार के साथ अच्छी केमेस्ट्री देखने को मिली है।
ख़ासकर शिक्षा की स्थिति में सुधार के लिए दोनों एक तरह की सोच से काम करते रहे हैं, पिछले दिनों राज्य में वाइस चांसलरों की नियुक्ति में भी कोई विवाद देखने को नहीं मिला है।
(आलेख बीबीसी संवाददाता प्रदीप कुमार से बातचीत पर आधारित।)

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