मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल की जांच के मुताबिक़ रोहिंग्या मुसलमान चरमपंथियों ने पिछले साल अगस्त में दर्जनों हिंदू नागरिकों की हत्या की थी। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले समूह का कहना है आरसा नाम के संगठन ने एक या संभवत: दो नरसंहारों में 99 हिंदू नागरिकों को मार डाला था। हालांकि आरसा ने इस तरह के किसी हमले को अंजाम देने से इनकार किया है।
ये हत्याएं उसी समय की गई थीं जब म्यांमार की सेना के खिलाफ़ विद्रोह की शुरुआत हुई थी। म्यांमार की सेना पर भी अत्याचार करने का आरोप है। म्यांमार में पिछले साल अगस्त के बाद से 7 लाख रोहिंग्या और अन्य को हिंसा के कारण पलायन करना पड़ा है। इस संघर्ष के कारण म्यांमार की बहुसंख्यक बौद्ध और अल्पसंख्यक हिंदू आबादी भी विस्थापित हुई है।
हिंदू बहुल गांवों पर हुआ था हमला
एमनेस्टी का कहना है कि उसने बांग्लादेश और रखाइन में कई इंटरव्यू किए, जिनसे पुष्टि हुई कि अराकान रोहिंग्या सैलवेशन आर्मी (आरसा) ने ये हत्याएं की थीं। यह नरसंहार उत्तरी मौंगदा कस्बे के पास के गांवों में हुआ था। ठीक उसी समय, जब अगस्त 2017 के आख़िर में पुलिस चौकियों पर हमले किए गए थे।
जांच में पाया गया है कि आरसा अन्य इलाकों में भी नागरिकों के खिलाफ़ इसी पैमाने की हिंसा के लिए ज़िम्मेदार है। रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक्र है कि कैसे आरसा के सदस्यों ने 26 अगस्त को हिंदू गांव 'अह नौक खा मौंग सेक' पर हमला किया था।
रिपोर्ट में कहा गया है, "इस क्रूर और बेमतलब हमले मे आरसा के सदस्यों ने बहुत सी हिंदू महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को पकड़ा और गांव के बाहर ले जाकर मारने से पहले डराया।" इस हमले में ज़िंदा बचे हिंदुओं ने एम्नेस्टी ने कहा है कि उन्होंने या तो रिश्तेदारों को मरते हुए देखा या फिर उनकी चीखें सुनीं।
99 हिंदुओं का नरसंहार
'अह नौक खा मौंग सेक' गांव की एक महिला ने कहा, "उन्होंने पुरुषों को मार डाला। हमसे कहा गया कि उनकी तरफ़ न देखें। उनके पास खंजर थे। कुछ भाले और लोहे की रॉड्स भी थीं। हम झाड़ियों में छिपे हुए थे और वहां से कुछ-कुछ देख सकते थे। मेरे चाचा, पिता, भाई...सभी की हत्या कर दी गई।"
यहां पर आरसा के लड़ाकों पर 20 पुरुषों, 10 महिलाओं और 23 बच्चों को मारने का आरोप है जिनमें से 14 की उम्र 8 साल से कम थी। एमनेस्टी ने कहा कि पिछले साल सितंबर में सामूहिक कब्रों से 45 लोगों के शव निकाले गए थे। मारे गए अन्य लोगों के शव अभी तक नहीं मिले हैं, जिनमें से 46 पड़ोस के गांव 'ये बौक क्यार' के थे।
जांच से संकेत मिले हैं कि हिंदू पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का 'ये बौक क्यार' गांव में उसी दिन नरसंहार हुआ था, जिस दिन 'अह नौक खा मौंग सेक' पर हमला किया गया था। इस तरह मरने वालों की कुल संख्या 99 हो जाती है।
पिछले साल सामने आया था मामला
सितंबर 2017 में बड़े स्तर पर रोहिंग्या मुसलमान भागकर बांग्लादेश आए थे। उन्होंने म्यांमार के सुरक्षा बलों द्वारा किए गए अत्याचारों की दास्तां सुनाई थी। ठीक उसी समय म्यांमार की सरकार ने एक सामूहिक क़ब्र मिलने का दावा किया था। सरकार का कहना था कि मारे गए लोग मुसलमान नहीं, हिंदू थे और उन्हें आरसा के चरमपंथियों ने मारा है।
पत्रकारों को क़ब्रों और शवों को दिखाने के लिए ले जाया गया था मगर सरकार ने रखाइन में स्वतंत्र मानवाधिकार शोधकर्ताओं को आने की इजाजत नहीं दी। इस कारण इस बात को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं हो पा रही थी कि आख़िर 'अह नौक खा मौंग सेक' और 'ये बौक क्यार' गांवों में हुआ क्या था।
उस समय म्यांमार की सेनाओं के अत्याचारों के कई गवाह सामने आए थे, मगर वहां की सरकार इन आरोपों से इनकार कर रही थी। ऐसे में सरकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगा हुआ था। उस समय आरसा ने कहा था कि वह इस नरसंहार में शामिल नहीं था। इस संगठन की ओर से पिछले चार महीनों में कोई बयान सामने नहीं आया है।
म्यांमार को शिकायत थी कि रखाइन से एकतरफ़ा रिपोर्टिंग की जा रही है मगर बीबीसी समेत विदेशी मीडिया ने पिछले साल सितंबर में हिंदुओं की हत्या की ख़बर कवर की थी।
म्यांमार के सुरक्षा बलों की भी आलोचना
एमनेस्टी ने म्यांमार के सुरक्षा बलों द्वारा चलाए गए अभियान को ग़ैरक़ानूनी और हिंसक बताते हुए उसकी भी आलोचना की है। मानवाधिकार संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक़ "रोहिंग्या आबादी पर म्यांमार के सुरक्षा बलों के जातीय नरसंहार वाले अभियान के बाद आरसा ने हमले किए थे।"
संगठन का कहना है कि उसे "रखाइन और बांग्लादेश की सीमा पर दर्जनों लोगों के इंटरव्यू और फ़ोरेंसिक पैथलॉजिस्ट्स द्वारा तस्वीरों की जांच के बाद ये बातें पता चली हैं।"
एमनेस्टी के अधिकारी तिराना हसन ने कहा, "यह जांच उत्तरी रखाइन राज्य में आरसा की ओर से मानवाधिकारों के उल्लंघन पर रोशनी डालती है, जिसे ख़बरों में ज़्यादा तरजीह नहीं मिली।"
"जिन ज़िंदा बचे लोगों से हमने बात की, उनके ऊपर आरसा की क्रूरता की जो छाप छूटी है, उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इन अत्याचारों की जवाबदेही उतनी ही ज़रूरी और अहम है, जितनी ज़िम्मेदारी उत्तरी रखाइन प्रांत में म्यांमार के सुरक्षा बलों के मानवता के खिलाफ किए अपराधों की बनती है।"
पिछले साल अगस्त के बाद से सात लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश आ गए हैं जिनमें महिलाएं और बच्चे बड़ी संख्या में हैं। रोहिंग्या, जिनमें ज्यादा अल्पसंख्यक मुस्लिम हैं, म्यांमार में बांग्लादेश के अवैध प्रवासी समझे जाते हैं। जबकि वे कई पीढ़ियों से म्यांमार में रह रहे हैं। बांग्लादेश भी उन्हें नागरिता नहीं देता।