म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ जारी हिंसा पर हार्वर्ड केनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट की रिसर्चर डॉ लेन क्यूओक की यह रिपोर्ट बताती है कि आख़िर वहां के बौद्ध चार फ़ीसदी मुसलमानों से क्यों डरे हुए हैं। पढ़िए उनकी रिपोर्ट-
म्यांमार में बौद्धों और मुसलमानों के बीच तनाव का सीधा संबंध देश के पश्चिमी राज्य रखाइन की राजधानी सिटवे में मई 2012 से अरखनीज बौद्ध और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच भड़की हिंसा से है। इसी साल अक्टूबर में रखाइन के अन्य इलाक़ों में हिंसा भड़की। आगे चलकर न केवल रोहिंग्या बल्कि अन्य मुसलमानों को भी निशाना बनाया जाने लगा। इस संघर्ष में अब तक सैकड़ों जानें गईं और हज़ारों लोग विस्थापित हुए हैं। यह आज भी डरावने तरीक़े से जारी है।
साल 2013 में म्यांमार के अन्य इलाक़ों में भी मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़की। संयुक्त राष्ट्र से लेकर दुनिया भर के मानवाधिकार संगठनों ने रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा को नहीं रोक पाने में वहां की सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया। दूसरी तरफ़ म्यांमार की सरकार इन दावों को सिरे से ख़ारिज करती रही।
धार्मिक टकराव का ख़तरा न केवल म्यांमार में है बल्कि सरहद पार भी इसकी आग को महसूस किया जा सकता है। दक्षिण-पूर्वी एशिया धार्मिक रूप से काफ़ी विविध है। सामान्य तौर पर यह इलाक़ा अपनी सहिष्णुता के लिए जाना जाता है। जब म्यांमार में मुस्लिमों को निशाना बनाया गया तो इसकी प्रतिक्रिया मुस्लिम बहुल देशों में भी दिखी।
मलेशिया, बांग्लादेश और इंडोनेशिया में बौद्धों पर हमले हुए। जकार्ता में एक बौद्ध केंद्र को बम से उड़ा दिया गया। इंडोनेशिया स्थित म्यांमार के दूतावास में भी बम प्लांट करने की असफल कोशिश की गई थी। इस तरह की घटनाओं से पूरे इलाक़े में धार्मिक अविश्वास पैदा होने का ख़तरा बढ़ गया है।
तनाव की वजह
म्यांमार में मुस्लिम विरोधी भावना कोई नई बात नहीं है। इसकी ज़ड़ें उपनिवेशवादी नीतियों में हैं। भारत से बड़ी संख्या में म्यांमार में मुस्लिम मज़दूरों को लाया गया था। 1930 में भारतीयों के विरोध में यहां दंगे हुए थे। इनकी मांग थी कि भारतीयों को वापस भेजा जाए।
शिपों में भारतीयों की बहाली के ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा था। इन भारतीयों के ख़िलाफ़ 1938 में भी दंगा हुआ। 1938 में भारतीय मुस्लिमों के ख़िलाफ़ दंगे का संबंध कथित रूप से उस किताब से था जिसे एक भारतीय मुस्लिम ने लिखी थी। कहा जाता है कि इस किताब में बौद्ध धर्म को अपमानित किया गया था।
म्यांमार में आज की तारीख़ में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ भावना और उफान पर है। रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति यहां असाधारण रूप से समर्थन का अभाव है। यहां के बौद्धों और ईसाइयों का मानना है कि रोहिंग्या मुस्लिम अवैध बंगाली प्रवासी हैं। इनका कहना है कि म्यांमार के 1982 के नागरिकता के नियम के तहत ये अयोग्य हैं।
नागरिकता का संकट
1982 के नागरिकता क़ानून के तहत अगर आवेदक म्यांमार में आधिकारिक रूप से रजिस्टर्ड 135 जातीय समूह से ताल्लुक नहीं रखता है तो उसे नागरिता पाने का हक़ नहीं है। इसी नियम के कारण ग़रीब और हाशिए पर खड़े रोहिंग्या मुस्लिम दरबदर हैं। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ ग़ुस्से को उनकी नागरिकता से भी जोड़कर देखा जाता है। यहां मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत लगातार बढ़ती जा रही है।
म्यांमार में मुस्लिम विरोधी भावना के पीछे कारण काफ़ी जटिल है, लेकिन इनसे जुड़ी धारणाएं काफ़ी प्रबल हैं। म्यांमार में धारणा है कि मुस्लिम बहुत ज़्यादा हैं, बहुत अमीर हैं और बहुत अलग हैं। यहां के लोगों के मन में धारणा है कि मुस्लिम बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं और अगर इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो भारत और इंडोनेशिया की तरह बौद्ध विरासत यहां भी ख़त्म हो जाएगी।
रखाइन में ज़्यादातर अरखनीज बौद्धों के मन में यह बात गहराई से पैठ गई है कि रखाइन का इस्लामीकरण और बर्मीकरण हो रहा है। मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत की दूसरी धारणा है कि मुस्लिम अपने धन का इस्तेमाल ज़मीन ख़रीदेने में कर रहे हैं।
म्यांमार का इस्लामीकरण?
वे ऐसा करके बर्मीज महिलाओं को शादी के लिए आकर्षित करते हैं और शादी के बाद उनका धर्मांतरण करा मुसलमान बना देते हैं। इन रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि बेहतरीन घर, बंदूक और रॉकेट्स ख़रीद रहे हैं। इसके साथ ही इन पर मस्जिद बनाने का भी आरोप है। अफ़वाहों के कारण मुस्लिमों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा बढ़ रहा है। इनकी संपत्ति का नुक़सान भी लगातार हो रहा है। इन्हें प्रशासनिक अधिकारियों को ख़ुद को बचाने के लिए रिश्वत भी देनी पड़ती है।
जुलाई 2013 में अमेरिकी-एशियाई बिज़नेस काउंसिल में 969 मूवमेंट के बौद्ध भिक्षु ने तीसरा कारण भी बताया था। उन्होंने कहा था कि ऐतिहासिक रूप से हिन्दुओं और ईसाइयों से अच्छे संबंधों की तुलना में मुस्लिमों से तनावपूर्ण संबंध रहे हैं। यहां के बौद्धों का मानना है कि मुस्लिमों की आस्था और परंपरा बिल्कुल अलग है। हालांकि यह बात हिन्दू और ईसाई धर्म के बारे में भी कही जा सकती है। टकराव की वजह अलग धर्म का होना नहीं है बल्कि मामला पहचान और अवधारणा का है। आज की तारीख़ में म्यांमार ऐतिहासिक संक्रमण काल के दौर से गुजर रहा है और इसमें साफ़ नहीं है कि कौन विजेता है और किसके हिस्से में शिकस्त है।
महज चार फ़ीसदी मुसलमानों से डर कैसा?
म्यांमार में यह भावना प्रबल हो चुकी है कि मुस्लिम बाहरी हैं और ये सोने के स्तूपों की ज़मीन पर अतिक्रमण फैला रहे हैं। इसी तर्क की पीठ पर सवार होकर म्यांमार में बौद्ध राष्ट्रवाद का प्रसार हो रहा है। ऐसी भावना तेजी से पैठ रही है कि बर्मीज का बौद्ध होना अनिवार्य है। बौद्ध राष्ट्रवाद की ज़मीन 969 मूवमेंट के दौरान ही तैयार हो गई थी।
कुछ लोगों का कहना है कि सरकार के भीतर के लोग ही मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंसा को हवा दे रहे हैं। अस्थिरता के तर्क पर फिर से म्यांमार में सैन्य तानाशाह के शासन को सही ठहराया जा सकता है। 2015 के चुनाव में विपक्ष की जीत हुई थी। हालांकि इस्लाम और बौद्ध दोनों में ऊंच-नीच की भावना को सिरे से ख़ारिज किया गया है। यहां पर आध्यात्मिक श्रेष्ठता जैसी कोई चीज़ नहीं है और स्वीकार्यता को लेकर प्रतिबद्धता पर ज़ोर है। म्यांमार की सरकार में बौद्ध संगठनों का अच्छा ख़ासा प्रभाव है। ऐसे में सरकार चाहे तो इस समस्या सुलझा सकती है। म्यांमार की सरकार बहुसंख्यक बौद्धों के मन से इस डर को आसानी हटा सकती है कि मुसलमान उन पर हावी नहीं होंगे। म्यांमार में कुल आबादी के महज चार फ़ीसदी ही मुस्लिम हैं।