- राजेश जोशी (रेडियो एडिटर, बीबीसी हिंदी)
उत्तर भारत का शायद ही कोई हिंदू हो जिसने मंदिर में खड़े होकर आरती न गाई हो- मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता। ऐसा धर्मभीरु हिंदू पिछले तीस साल में अचानक मोटरसाइकिलों पर सवार होकर रामनवमी के जुलूस में नंगी तलवारें चमकाता शहर भर में घूमता नज़र आने लगा।
गुजरात से बंगाल तक पंजाब से मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक तमाम शहरों और क़स्बों में रामनवमी के दौरान जुलूसों में हिंदू धर्म की श्रेष्ठता के नारे लगाते नौजवानों की तस्वीर भी अब पुरानी पड़ चुकी है। तीस साल पहले कंधे पर काँवड़ उठाए चुपचाप पदयात्रा करते हुए इक्का-दुक्का काँवड़िए नज़र आते थे, मगर अब हर साल भगवा बरमूडा-टीशर्ट पहने, डीजे की धुन पर नाचते लाखों काँवड़ियों की फौज सावन के महीने में सड़कों पर उतर आती है।
विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार इसे हिंदुओं में गहरे पैठ चुकी "हीन भावना" के कम होने का संकेत मानते हैं। वो कहते हैं, "हज़ार साल की ग़ुलामी से हिंदुओं में हीन भावना पैदा हुई और ये हीन भावना क़रीब सौ-एक साल पहले हिंदुओं की आरती में भी झलकती थी जिसमें कहा जाता था - मैं मूरख खल कामी, मैं अबोध अज्ञानी। इस हीन भावना से हिंदू बाहर आ रहे हैं। उनका आत्मविश्वास जाग रहा है।"
हिंदू अपने धर्म को मंदिर के एकांत से निकाल कर सड़कों की भीड़ तक क्यों ला रहे हैं? हिंदुओं में धार्मिकता के सार्वजनिक प्रदर्शन को पॉपुलर करने में हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा से जुड़े संगठनों का कितना हाथ है?
जवाब तलाशने के लिए मैं दिल्ली के नेहरू नगर में सनातन धर्म मंदिर पहुँचा। यहां हिंदुत्व के योद्धाओं को तैयार किया जाता है जो वैदिक परंपरा की श्रेष्ठता पर विश्वास करते हुए बड़े होते हैं। सिर पर लंबी चोटी रखे, सफ़ेद धोती और लंबा भगवा कुर्ता पहने दस साल का अर्पित त्रिपाठी बड़े होकर सेना में भर्ती होना चाहता है ताकि देश की रक्षा कर सके। लेकिन फ़िलहाल वो दिल्ली में नेहरू नगर के सनातन वेद गुरुकुलम में वेद पाठन सीख रहा है।
अर्पित उन 32 'वैदिक' बालकों में शामिल है जिन्हें वेद पाठ सीखने के लिए हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार से लाया गया है। ये सभी बालक ब्राह्मण हैं, जिन्हें विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के आचार्य समीर वेद पाठ और हिंदू कर्मकांड की शिक्षा देते हैं। वो कहते हैं कि बड़े होने पर ये वेदपाठी बालक वैदिक प्रचारक के तौर पर समाज में जाएंगे ताकि लोगों में धर्म के प्रति झुकाव बढ़े। वो सवाल करते हैं, "लव जिहाद और अन्यान्य घटनाएं क्यों हो रही हैं? वो इसलिए हो रही हैं क्योंकि लोग अपने धर्म से कट गए हैं।"
वेद की दीक्षा ले रहा अर्पित त्रिपाठी समझता है कि सेना में सभी जातियों को अलग-अलग काम दिया जाता है- पंडितों को अलग और दूसरी जातियों को अलग। पर उसे दूसरों के साथ बैठकर खाने में कोई एतराज़ नहीं है क्योंकि "हैं तो वो भी हिंदू।" पर वो मुसलमानों के साथ बैठकर खाने को तैयार नहीं है क्योंकि "मुसलमान मुग़ल हैं, मांस-मच्छी खाते हैं।"
जैसे दस साल का अर्पित त्रिपाठी सभी मुसलमानों को "मुग़ल" समझता है वैसे ही विश्व हिंदू परिषद के नए अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार भी मध्यकाल के सभी मुस्लिम शासकों को मुग़ल कहते हैं। हालाँकि दोनों की उम्र में कोई आधी शताब्दी का अंतर है। आलोक कुमार मानते हैं कि मुग़लों और ब्रिटिश लोगों की "एक हज़ार साल की ग़ुलामी के कारण हिंदुओं में बहुत हीन भावना आ गई थी। मुग़ल काल के आक्रांता बाहर से आए थे, वो एक विदेशी संस्कृति की श्रेष्ठता में विश्वास करते थे।"
पर मुग़ल तो सन 1526 में भारत आए थे, अंग्रेज़ों ने लगभग दो सौ साल राज किया, फिर मुग़लों और ब्रिटिश की ग़ुलामी के एक हज़ार साल कैसे हुए? यह सवाल पूछने पर आलोक कुमार कहते हैं, "उससे पहले शकों के, हूणों के और बाक़ी आक्रमण हुए, मेरी समझ में ये सभी संघर्ष लगभग एक हज़ार साल तक चले।"
'हिंदूओं का आत्मविश्वास जाग रहा है'
यहां इतिहास थोड़ा गड्ड मड्ड हो रहा है। क्योंकि मुग़लों और ब्रिटिश शासकों के साथ शक, हूण और कुषाणों को जोड़ें तो एक हज़ार नहीं बल्कि दो हज़ार साल का इतिहास बन जाता है, क्योंकि शक और उनके बाद कुषाण पश्चिमोत्तर इलाक़े में लगभग दो हज़ार साल पहले आए थे। पर फ़िलहाल इस पेचीदगी को यहीं छोड़ देते हैं। इतिहास के बारे में संघ के अपने आग्रह हैं और कोई ज़रूरी नहीं कि वो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित ही हों।
मध्यकाल में हुए मुसलमानों के आक्रमण, गोरक्षा, भारत विभाजन, कश्मीर में अलगाववाद, धर्मांतरण जैसे कई मुद्दे हैं, जिन्हें संघ परिवार हिंदू जाति का नाश करने की एक हज़ार साल पुरानी साज़िश के तौर पर देखता है। पिछले चार साल में जगह-जगह पर होने वाली हिंसा को हिंदुत्ववादी संगठन हिंदुओं का प्रतिकार बताते हैं।
विहिप अध्यक्ष आलोक कुमार कहते हैं कि हज़ार साल की ग़ुलामी से हिंदुओं में हीन भावना पैदा हुई और "ये हीन भावना क़रीब सौ-एक साल पहले हिंदुओं की आरती में भी झलकती थी जिसमें कहा जाता था- मैं मूरख खलकामी, मैं अबोध अज्ञानी। इस हीन भावना से हिंदू बाहर आ रहे हैं। उनका आत्मविश्वास जाग रहा है।"
क्या व्यापक हिंदू समाज में ग़ुस्सा है?
क्या हिंदुओं में वाक़ई हीन भावना पैठ गई थी और क्या अब उसके ख़त्म होने के कारण ही हिंदू समाज का आत्मविश्वास बढ़ गया है जो उसके उग्र व्यवहार में झलकता है? क्या हिंदू अपने साथ हुई कथित ऐतिहासिक ज़्यादतियों को दुरस्त करने के लिए उग्र हो गया है?
हिंदू समाज अगर नाराज़ है तो किससे: मुसलमानों से, ईसाईयों से, सेकुलर विचार के लोगों से, वामपंथियों से, कांग्रेसियों से या फिर इन सबसे? और सबसे बड़ी बात ये कि आरएसएस के संगठनों की ओर से आयोजित उग्र प्रदर्शनों के आधार पर क्या ये नतीजा निकालना सही होगा कि ये व्यापक हिंदू समाज का ग़ुस्सा है?
अमेरिका की जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया विभाग के प्रोफ़ेसर वॉल्टर के एंडरसन ख़बरदार करते हैं कि ये सवाल बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिए कि क्या हिंदू नाराज़ है। क्योंकि फिर सवाल ये उठेगा कि क्या सभी हिंदू नाराज़ हैं या उनका एक तबक़ा- मध्यम वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग या कोई और?
प्रोफ़ेसर एंडरसन और उनके सहयोगी श्रीधर डी दामले ने हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर किताब लिखी है- 'दि आरएसएस: ए व्यू टू दि इनसाइड'। इसमें उन्होंने उन कारणों का ज़िक्र किया है जिनसे हिंदुत्व की विचारधारा पिछले 25 सालों में तेज़ी से फैली है।
दावे बहुत पर समर्थन में तथ्य नहीं
वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामाशेषन भी कहती हैं कि हिंदू समाज को एक यूनिट की तरह परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि वो अलग-अलग क्षेत्र, भाषा, जाति और उपजातियों में बंटे हैं। संघ की सबसे बड़ी सफलता इस बात में निहित है कि वो बहुसंख्यक समाज में लगातार ये प्रचार करता रहा कि हिंदुओं के साथ पिछले एक हज़ार साल से "ज़्यादतियां" हो रही हैं और ये सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ।
विश्व हिंदू परिषद की युवा शाखा बजरंग दल के अखिल भारतीय प्रमुख सोहन सिंह सोलंकी के पास हिंदुओं के साथ हुई कथित ज़्यादतियों की पूरी लिस्ट है। वो पूछते हैं कि "क्या हम लाहौर, ननकाना, तक्षशिला और ढाका की ढाकेश्वरी देवी को भूल जाएंगे?"
जगह जगह हो रही लिंचिंग, मारपीट और हिंसा के बारे में वो उलटा अपने कार्यकर्ताओं को हिंसा का शिकार बताते हैं। उन्होंने कहा, "हमले हमारे ऊपर होते हैं। गाय माता की रक्षा करने वाले ज़्यादा घायल हुए हैं, ज़्यादा हमले हुए हैं, ज़्यादा मारे गए हैं।" इस दावे के समर्थन में हालाँकि वो कोई तथ्य पेश नहीं करते।
अगर संघ कहता है कि हिंदुओं पर अत्याचार का सिलसिला सन 712 में मोहम्मद बिन क़ासिम के हमले से शुरू हुआ, तो वो ये भी कहता है कि आज़ादी के बाद "भारतीय नेतृत्व" ने हिंदुओं के साथ उस अन्याय को जारी रखा। और भारतीय नेतृत्व का मतलब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हैं जिन्हें संघ परिवार विदेशी संस्कृति में पले बढ़े हिंदू-विरोधी नेता के रूप में चिन्हित करता रहा है।
बाबारी मस्जिद के ढहे जाने का असर
विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार कहते हैं, "आज़ादी के बाद इस देश का नेतृत्व भारत के सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित नहीं था। व्यवहार में उनका विरोधी था और सोवियत संघ के मॉडल को यहां लागू करना चाहता था इसलिए हीन भावना बनी रही।" पर वो कहते हैं कि जब अयोध्या में "ढाँचा" गिरा तब हिंदुओं की हीन भावना में बहुत बड़ा अंतर आया।
बीबीसी से बातचीत में आलोक कुमार ने कहा, "अयोध्या की लड़ाई में ये प्रश्न तीखे होकर उभरे और जिस दिन वो ढाँचा गिरा (बाबरी मस्जिद ढहाई गई), मैं मानता हूँ कि वैसे न गिरता तो भी ठीक होता- पर उस दिन से हिंदुओं की हीन भावना पर एक बड़ा अंतर पड़ा। वो सहज हो गए, सामान्य हो गए। उनको लगा कि हमारे सामने हमारी जाति के अपमान के लिए जो (ढाँचा) खड़ा किया था, हमने उसको हटा दिया है।"
पत्रकार राधिका रामाशेषन भी कहती हैं कि रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान हुई हिंसा को हिंदुओं के ग़ुस्से का विस्फोट माना गया। मगर वो 26 वर्ष पुरानी बात है। क्या वाक़ई बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद से हिंदू सहज और सामान्य हो गए हैं, जैसा कि आलोक कुमार कहते हैं? क्या 6 दिसंबर, 1992 वो ऐतिहासिक तारीख़ है जब "हिंदुओं की हीन भावना" ख़त्म हो गई?
शायद नहीं, क्योंकि उसके कई वर्षों बाद यानी 1999 में आरएसएस के सरसंघचालक प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह उर्फ़ रज्जू भैया ने हिंदुओं को एक "कायर" क़ौम बताया था। हिंदुओं को डरपोक बताकर स्वयंसेवकों को बहादुर और उग्र बनने के लिए प्रेरित करने का ये प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह का शायद अपना तरीक़ा था। तब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने काठमांडू जा रहे विमान के साथ अग़वा किए गए मुसाफ़िरों के बदले भारतीय जेलों में बंद चरमपंथियों को छोड़ने का फ़ैसला किया था। ख़ुद तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह उन्हें अपने साथ जहाज़ में बैठा कर काबुल छोड़ने गए थे।
मुंबई हमले के बाद संघ की रणनीति
ये घटना हिंदुत्ववादियों को हिला देने वाली ज़रूर थी, मगर इससे आरएसएस का एक तर्क पुख़्ता हुआ कि अगर हिंदू समाज संगठित नहीं हुआ तो उसके साथ होने वाली ऐतिहासिक ज़्यादतियों को रोका नहीं जा सकेगा। बाद में संसद भवन पर हुए हमले और मुंबई में पाकिस्तानी चरमपंथियों के हमले के बाद संघ अपने इस तर्क को हिंदू मध्यवर्ग तक पहुंचाने में आसानी से सफल हुआ कि मोहम्मद बिन क़ासिम के हमले से हिंदुओं पर अत्याचारों का जो दौर शुरू हुआ था वो अब तक ख़त्म नहीं हुआ है।
इस कारण संघ अपने तर्कों को शाखाओं से बाहर शहरी मध्यवर्ग और कुछ हद तक देहाती इलाक़ों तक पहुंचाने में सफल हुआ। राधिका रामाशेषन कहती हैं, "आरएसएस चतुराई से सिस्टम में घुस गए हैं। सरकारी कर्मचारी, पुलिस जैसे विभाग संघ की विचारधारा से प्रभावित हैं। मैं गिनकर बता सकती हूँ कि कांग्रेस जैसी पार्टी में कितने लोग संघ की विचारधारा के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसी तरह समाजवादी पार्टी में भी चार पांच लोग संघ के विचार से सहमत हैं।"
वो कहती हैं कि संघ हिंदुओं को ये समझाने में सफल रहा है कि हिंदू इस देश में बहुसंख्यक होते हुए भी बहुसंख्यकों की तरह नहीं रह पाया है, हालाँकि इस बात का कोई ठोस आधार नहीं है फिर भी ये एक ऐसी भावना है जो ज़ोर पकड़ गई है।
नेहरू नगर के सनातन धर्म मंदिर में वेद ज्ञान अर्जित कर रहे दस बरस के अर्पित त्रिपाठी को इस भावना का मर्म समझने में अभी कई बरस लगेंगे। पर जब वह वेद प्रचारक के तौर पर समाज में जाएगा तो बहुसंख्यक होने के बावजूद बहुसंख्यक की तरह न रह पाने का विचार उसे हमेशा हिंदुओं के दुश्मनों को पराजित करने को प्रेरित करता रहेगा। यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सफलता है।