कमलेश
बीबीसी संवाददाता
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि 'आरएसएस की आगामी योजना देश में दो बच्चों का क़ानून लागू कराना है।' संघ प्रमुख का कहना था कि ये योजना संघ की है लेकिन इस पर कोई भी फ़ैसला सरकार को लेना है।
ऐसा पहली बार नहीं है कि जब दो बच्चों के क़ानून का मुद्दा उठ रहा है। पिछले साल अक्टूबर में असम में फ़ैसला लिया गया था कि जिनके दो से ज़्यादा बच्चे होंगे, उन्हें 2021 के बाद सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी।
इसके अलावा 11 और राज्यों में दो बच्चों का क़ानून लागू है, लेकिन इसका दायरा थोड़ा सीमित है। जैसे गुजरात, उत्तराखंड, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, ओडिशा में ये नियम सिर्फ़ स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने के संदर्भ में लागू किया गया है। जैसे पंचायत, जिला परिषद चुनाव और नगर निगम के चुनाव आदि।
हालांकि महाराष्ट्र में ये नियम दो से ज़्यादा बच्चे होने पर राज्य सरकार में नौकरी पर भी प्रतिबंध लगाता है। राजस्थान में भी स्थानीय चुनाव लड़ने और सरकारी नौकरी दोनों पर प्रतिबंध लगाता है।
लेकिन, मध्यप्रदेश में साल 2005 में दो बच्चों की बाध्यता को स्थानीय निकाय चुनावों से हटा दिया गया था। यहां आपत्ति जताई गई थी कि ये नियम विधानसभा और आम चुनावों में लागू नहीं है।
इस नीति पर विवाद भी रहा
इसके बाद भी अधिक जनसंख्या वाले कई राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार में दो बच्चों वाला इस तरह का क़ानून लागू नहीं किया गया है।
जब भी इस नियम की बात उठती है तो विवाद और विरोध पैदा हो जाता है। इसे लागू करने में आने वाली समस्याओं की बात होती है और साथ ही सरकार पर इसके ज़रिए मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने का आरोप भी लगाया जाता है।
अक्टूबर में ही असम के मामले पर ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल ने कहा था कि असम सरकार की ये नीति मुस्लिमों को बच्चे पैदा करने से नहीं रोक सकती।
इसके बाद बीजेपी नेता मनोज तिवारी का कहना था कि दो बच्चों की नीति किसी ख़ास समुदाय के ख़िलाफ़ नहीं है और बदरुद्दीन अजमल एक 'अच्छी चीज़' को रोकने की कोशिश कर रहे हैं।
पिछले साल राज्यसभा में बीजेपी सांसद और आरएसएस विचारक राकेश सिन्हा ने संसद में 'जनसंख्या विनियमन विधेयक, 2019' पेश किया था जिसके तहत दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाले लोगों को दंडित करने और सभी सरकारी लाभों से भी वंचित करने का प्रस्ताव रखा गया था।
दो बच्चों की नीति को बाध्यकारी बनाए जाने की संघ और कुछ अन्य की मांग के पीछे के राजनीतिक कारण तो बताए जाते ही हैं, इस तरह के प्रावधान की तुलना चीन की एक बच्चे वाली नीति से भी की जाती है। इसके फ़ायदे भी बताए जाते हैं और इसके चलते सामने आए दुष्प्रभाव भी।
ऐसे में हमने जानने की कोशिश की कि इन विवादों के बीच भारत में दो बच्चों का क़ानून लागू करना कितना व्यावहारिक है और इसके क्या प्रभाव हो सकते हैं।
कठोर क़ानून कितना फ़ायदेमंद
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉप्युलेशन साइंसेज, मुबंई में जनसंख्या नीति और कार्यक्रम विभाग के प्रमुख डॉ. बलराम पासवान कहते हैं कि किसी भी नए नियम को लागू करने से पहले जनसंख्या बढ़ने के कारणों पर ध्यान देना ज़रूरी है।
डॉ. बलराम पासवान कहते हैं, ''जब भारत आज़ाद हुआ था तब 1950 में औसत प्रजनन दर छह के क़रीब थी यानी एक महिला औसतन छह बच्चों को जन्म देती थी, लेकिन अब प्रजनन दर 2.2 हो गई है और रिप्लेसमेंट लेवल पर पहुंचने वाली है। लेकिन, कुछ राज्यों में ऐसा नहीं है। दक्षिण भारत में ये हर जगह हो गया है लेकिन हिंदी बोलने वाली बेल्ट में प्रजनन दर अब भी तीन के बराबर है।''
भारत में प्रजनन दर अब भी 2.1 प्रतिशत के एवरेज रिप्लेसमेंट रेट (औसत प्रतिस्थापन दर) तक नहीं पहुंची है। इस दर का मतलब होता है जब जन्म और मृत्यु दर बराबर हो जाए।
नीति आयोग के मुताबिक साल 2016 में भारत में प्रजनन दर 2.3 है। प्रजनन दर यानी एक महिला अपने जीवनकाल में कितने बच्चों को जन्म देती है।
लेकिन, बिहार में ये दर 3.3 प्रतिशत, उत्तरप्रदेश में 3.1 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 2.8 प्रतिशत, राजस्थान में 2.7 प्रतिशत और झारखंड में 2.6 प्रतिशत है। केरल, कर्नाटक, पंजाब, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल जैसे वो राज्य भी हैं जहां साल 2016 में प्रजनन दर 2 प्रतिशत से भी कम है। विश्व बैंक के एक अनुमान के मुताबिक भारत में 2017 में प्रजनन दर 2.2 रहेगी।
क्यों बढ़ती है जनसंख्या?
डॉ. बलराम पासवान कहते हैं, ''जनसंख्या बढ़ने के चार प्रमुख कारण हैं। पहला ये कि हमारे देश में प्रजनन आयु वर्ग की महिलाएं बहुत ज़्यादा हैं। अगर आप दो बच्चों का क़ानून भी लागू कर देंगे तो भी जनसंख्या कम करने में बहुत मदद नहीं मिलेगी। इस वर्ग की महिलाएं अगर एक बच्चे को भी जन्म देती हैं तो भी बड़ी संख्या में जनसंख्या बढ़ेगी।''
''दूसरा कारण है कि ऐसे लोग बहुत हैं जिनमें अनचाहा गर्भधारण हो जाता है। वो सोचते हैं कि उन्हें एक या दो से ज़्यादा बच्चे नहीं चाहिए लेकिन वो इसके लिए गर्भनिरोधक का इस्तेमाल नहीं करते। इस कारण उन्हें अनचाहे गर्भधारण का सामना करना पड़ता है।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक 12 से 13 प्रतिशत दंपत्ति ऐसे हैं जिन्हें अनचाहा गर्भधारण होता है। इस वर्ग को जागरूकता के ज़रिए दो बच्चों के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।''
''तीसरा कारण है कि शिशु मृत्यु दर कम हुई है लेकिन कुछ समुदाय ऐसे हैं जिनमें अब भी शिशु मृत्यु दर ज़्यादा है। वे देखते हैं कि उनके समुदाय में बच्चे एक साल के अंदर मर जाते हैं और इस डर से वो ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं। फिर ज़्यादा बच्चे पैदा करने से मां और बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, तो ये दुष्चक्र बन जाता है। चौथा कारण है कि कई इलाक़ों में अब भी 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादी हो जाती है। इससे वो लड़िकयां अपनी प्रजनन आयु वर्ग में ज़्यादा बच्चों को जन्म देती हैं।''
''इन कारणों पर काम नहीं किया जाए तो किसी भी क़ानून से जनसंख्या पर नियंत्रण करना मुश्किल हो सकता है। अगर आप इन कारणों को दूर कर लेते हैं तो भी जनसंख्या कम हो सकती है। नीति कोई भी गलत नहीं होती बशर्ते कि उसे सही तरीके से लागू किया जाए। जिस तरह चीन में एक बच्चे की नीति का फ़ायदा हुआ उस तरह भारत में भी दो बच्चों की नीति का फायदा हो सकता है, लेकिन उससे पहले लोगों को शिक्षित और जागरूक करना ज़रूरी है वरना उनकी परेशानियां बढ़ भी सकती हैं।''
वहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय के सोशल वर्क विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पुष्पांजिली झा कहती हैं कि भारत सख़्त नियमों से आसान नियमों की तरफ़ बढ़ा है और ये क़ानून एक तरह से फिर कठोर होना है।
पुष्पांजिली झा बताती हैं, ''शुरुआत से जो हमारी जनसंख्या नीति रही है उसमें छोटे परिवार को ही बढ़ावा दिया गया। पहले ये लक्ष्य आधारित था यानी कि तय संख्या में लोगों की नसबंदी करानी है। इसमें औरतों को महज़ एक शरीर के तौर पर देखा जाता था. लेकिन, उसके बाद वैश्विक स्तर पर कुछ बदलाव हुए और भारत में भी ये सोचा गया कि इसे ज़बरदस्ती लागू नहीं किया जा सकता। फिर इसे मांग आधारित बनाया गया यानी लोगों के पास विकल्प रखा गया।''
''चीन में भी पहले इसे कठोरता से लागू किया गया। इससे ये हुआ कि वहां लैंगिक अनुपात बढ़ गया। लड़कियों की संख्या बहुत कम हो गई। भारत में भी ये देखने को मिला की जब छोटे परिवार को बढ़ावा दिया गया तो लड़कियों की संख्या कम हो गई। इसलिए ज़रूरी होगा कि लड़कियों को बचाने पर भी ध्यान दिया जाए।''
डॉ. बलराम पासवान कहते हैं कि अभी तक भारत की जो जनसंख्या नियंत्रण नीति रही है, वह चीन के जैसी म़जबूत नहीं है।
उनका कहना है कि इसे सख़्ती से इसलिए लागू नहीं कर पाते क्योंकि भारत के समाज में इतनी तरह के समुदाय हैं कि कोई पसंद करेगा तो कोई नहीं। इसलिए कोई सरकार नहीं चाहेगी कि एक को खुश करें और एक को दुखी। इसलिए दो बच्चों के क़ानून को अगर लाया जाता है तो जनसंख्या बढ़ने कारणों पर साथ में ध्यान दिया जाना चाहिए। डीयू की टीचर पुष्पांजिली झा कहती हैं कि उन्हें सरकार के इरादे पर भी संदेह है।
उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि इससे अल्पसंख्यकों को ही निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे क़ानून को एकतरफ़ा नहीं बल्कि संपूर्ण रूप से लागू करना होगा वरना ये समाज में उथल-पुथल पैदा कर देगा। दो बच्चों के क़ानून में आप किसी को कितना मजबूर कर सकते हैं? अगर फिर भी छोटा परिवार चाहिए ही तो उसके लिए ऐसे देशों के उदाहरण ले सकते हैं जिनमें बिना कठोर नियमों के भी जनसंख्या कम की गई है। आप लोगों को शिक्षित कीजिए, विकास की पहुंच निचले स्तर तक होनी चाहिए ताकि लोगों में छोटे परिवार के लिए खुद जागरूकता आए।''
चीन को कितना हुआ फ़ायदा
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी नवीनतम विश्व जनसंख्या अनुमान के मुताबिक़ 2027 तक भारत की अनुमानित जनसंख्या चीन से आगे निकल जाएगी। वर्तमान में भारत की जनसंख्या 1 अरब 33 करोड़ के करीब है और चीन की जनसंख्या एक अरब 38 करोड़ है।
1979 में चीन में भी एक बच्चे की नीति अपनाई गई थी लेकिन उसे साल 2015 में वापस ले लिया गया। इस दौरान चीन को जनसंख्या कम करने में फायदा तो हुआ लेकिन इसके कुछ दुष्प्रभाव भी सामने आए।
डॉ. बलराम पासवान बताते हैं कि चीन में एक बच्चे के क़ानून से लिंगानुपात बढ़ गया। लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या कम होने लगी क्योंकि लोग एक बच्चे में बेटे को ही महत्व देते थे। दूसरा चीन की जनसंख्या बूढ़ी होने लगी यानी वहां जवान कम और बूढ़े लोग ज़्यादा हो गए। इसके अलावा लोगों को बुढ़ापे में संभालने के लिए कोई नहीं रहा। सामाजिक दायरा छोटा हो गया। हालांकि चीन को इसे फायदा हुआ इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता।''
चीन में एक बच्चे की नीति 100 प्रतिशत जनसंख्या पर लागू नहीं थी। जैसे कि हांगकांग में और दक्षिणी-पश्चिमी चीन में जो ख़ास समुदाय हैं, उन पर ये नीति लागू नहीं थी। जो चीनी विदेश में रहते थे लेकिन चीन के नागरिक थे, उन पर भी यह लागू नहीं थी। बाकी नागरिकों पर इसे बहुत कठोर तरीके से लागू किया गया। इसमें सरकारी नौकरी पर प्रतिबंध से लेकर जुर्माने तक के प्रावधान थे। डॉ. बलराम पासवान कहते हैं कि एक बच्चे की नीति के कठोर प्रावधानों के चलते ही चीन को इस नीति को ख़त्म करना पड़ा था।