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जिन भारतीयों की कहानी कभी नहीं सुनी गई

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BBC Hindi

, शुक्रवार, 19 जून 2015 (12:08 IST)
- यास्मीन खान (इतिहासकार)
 
ये संख्या चौंकाने वाली हैं तीस लाख लोग बंगाल के अकाल में मारे गए, पांच लाख से ज्यादा दक्षिण एशियाई शरणार्थी म्यांमार से पलायन कर गए, 23 लाख जवान वाले भारतीय फौज के 89,000 जवान फौजी कार्रवाइयों में मारे गए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण एशिया खास तौर पर भारत एक बड़े किले के रूप में तब्दील हो गया था।
फाइल फोटो
दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान के खिलाफ मोर्चाबंदी करने के लिए भारत को केंद्र बनाया गया था। फिर भी ब्रिटिश सम्राज्य के इतिहास का यह अध्याय आज भी पूरी तरह से लिखा जाना बाकी है। आंकड़ों के अलावा भी भारत की भूमिका द्वितीय विश्व युद्ध में वाकई काफी मायने रखती है।
 
क्या द्वितीय विश्व युद्ध में दक्षिण एशिया के योगदान को नज़रअंदाज कर दिया गया है?
 
कई मायनों में तो बिल्कुल नहीं। हर किसी ने गोरखाओं के बारे में सुन रखा है और कई ने टोब्रुक, मोंटे कैसीनो, कोहिमा और इंफाल की लड़ाई में भारतीय सेना की भूमिका के बारे में सुन रखा है। ब्रिटेन, भारत और अफ्रीका की संयुक्त सेना 'फोर्टिंथ आर्मी' ने बर्मा पर फिर से कब्जा कर के एशिया में मित्र राष्ट्रों के लिए एक लहर पैदा कर दी। तीस भारतीयों को विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
 
अनकही कहानियां : प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रितानी सम्राज्य में आने वाले राष्ट्रमंडल देशों की सेनाओं का योगदान प्रकाश में आता रहा है।
 
लेकिन उन लोगों का क्या जो युद्ध में पकड़े गए?
 
दक्षिण एशिया में ऐसे कई और लोग भी थे, जो सेना के जवान तो नहीं थे, लेकिन जिन्होंने सेना को रसद भेजे जाने में बड़ी भूमिका अदा की थी। इनमें रसोइए, दर्जी, मैकेनिक और धोबी जैसे लोग शामिल थे। भारतीय फौज में ऐसा ही एक शख्स था गफूर। जिनकी मौत केरेन की लड़ाई में हुई, जो आज का इरिट्रिया है।
 
आज भी उनकी कब्र वहां देखी जा सकती है।
 
हम उन हजारों औरतों के बारे में भी क्या जानते हैं जो लड़ाई के समय बिहार और मध्य भारत के कोयला खदानों में काम कर रही थीं या फिर दक्षिण भारत के उन मजदूरों के बारे में जो उत्तर-पूर्व के पहाड़ियों की ओर या म्यांमार और चीन की ओर जाने वाली सड़कों पर कब्जा करने के लिए कूच कर गए थे।
 
या मुबारक अली जैसे व्यापारी जिन्हें 'रोटीवाला' के रूप में जाना जाता है, अटलांटिक में एसएस सिटी ऑफ बनारस जहाज के तबाह होने के दौरान अपनी जान गंवा दिए थे। दूसरे और भी कई लाख दक्षिण एशियाई ऐसे हैं जिन्होंने सम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में किसी ना किसी तरह से हिस्सा लिया था लेकिन हमने उनके बारे में कभी नहीं सुना।
 
ये सभी वो लोग थे जिनके काम छोटे-छोटे थे। मसलन एयरपोर्ट पर माल उतारना और चढ़ाना। लेकिन इनके काम की इज्जत फाइटर पायलट के काम से कम थी। लेकिन उनका काम जोखिम भरा हो सकता था।
 
सराहना : कई हज़ार दक्षिण एशियाई मजदूरों ने अधिक ऊंचाई पर सड़क बनाते हुए अपनी जान गंवा दीं। इन मज़ूदरों ने फावड़े की मदद से ये सड़कें तैयार की थीं। इन्हीं में से भारत और चीन के बीच बनी सड़क लेडो रोड भी।
 
ये इस दौरान मलेरिया और दूसरी बीमारियों का शिकार बनकर अपनी जान गंवा बैठे। ये उन लोगों की फ़ौज थी जिन्हें भूला नहीं दिया गया बल्कि ये वे फ़ौज थी जो अब तक दुनिया में अनजान बनी हुई हैं। शायद अब ये वक्त आ गया है कि हम आख़िरकार द्वितीय विश्व युद्ध में इनकी भूमिका की सराहना शुरू कर सकते हैं।
 

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