- सौतिक बिस्वास
इस साल मार्च महीने में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अपना ही एक फ़ैसला पलटते हुए, छह लोगों को क़त्ल के आरोप से बरी कर दिया था। इससे पता चलता है कि नाइंसाफ़ी के इस ज़ुल्म ने उन छह लोगों और उनके परिवारों पर क्या असर डाला? और इस कहानी से भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था के बारे में क्या पता चलता है?
जिन पांच लोगों को सर्वोच्च अदालत ने बरी किया, उनमें से पांच लोगों ने जेल में गुज़ारे 16 बरसों में से 13 साल मौत की सज़ा के ख़ौफ़ में गुज़ारे। बरी किए गए लोगों में से छठवां एक नाबालिग़ था। पहले उस पर भी वयस्क के तौर पर मुक़दमा चला था और मौत की सज़ा सुनाई गई थी। लेकिन 2012 में जब ये साबित हो गया कि वो नाबालिग़ है और क़त्ल के वक़्त केवल 17 साल का था, तो उसे रिहा कर दिया गया था।
मौत की सज़ा पाने वाले ये लोग छोटी सी, अंधेरी बंद कोठरी में वक़्त गुज़ार रहे थे। फांसी का फंदा हर वक़्त उनके सिर पर लटकता रहता था। काल कोठरी के बाहर बल्ब की रोशनी लगातार उन्हें डराती रहती थी। कोठरी के इर्द-गिर्द पसरा सन्नाटा कई बार आस-पास रहने वाले क़ैदियों की चीख़ों से सिहर जाता था।
बरी किए गए छह लोगों में से एक ने कहा, ''मौत की सज़ा पाने के बाद उन्हें लगता था कि कोई काला नाग उनके सीने पर सवार है।'' एक दूसरे व्यक्ति ने कहा कि उसे रात में ''फांसी की सज़ा पाने वाले लोगों के भूत'' डराया करते थे। दिन में जब कुछ घंटों के लिए उन्हें काल-कोठरी से बाहर निकाला जाता था, तो बाहर का मंज़र तो और भी डरावना लगता था।
उसे साथी क़ैदियों को दौरे पड़ते देखकर और भी डर लगता था। उनमें से एक क़ैदी ने तो ख़ुदकुशी कर ली थी। उस आदमी को लंबे वक़्त तक पेट के ज़ख़्म का दर्द सहना पड़ा। उस दौरान उसे कई बार तो मामूली इलाज मिल जाता था। पर, कई बार तो वो भी मुहैया नहीं कराया जाता था।
उस युवा व्यक्ति की सेहत की पड़ताल करने वाले दो डॉक्टरों ने बताया, ''वो मौत से डरने की बहुत ही अमानवीय परिस्थितियों में कई बरस तक रहा था।'' जिन छह लोगों को सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया उनके नाम हैं- अंबादास लक्ष्मण शिंदे, बापू अप्पा शिंदे, अंकुश मारुति शिंदे, राज्य अप्पा शिंदे, राजू म्हासू शिंदे और सुरेश नागू शिंदे।
जब इन सब को मौत की सज़ा सुनाई गई थी, तो इनकी उम्र 17 से 30 बरस के बीच थी। इन्हें, वर्ष 2003 में महाराष्ट्र के नासिक में अमरूद तोड़ने वाले एक परिवार के पांच सदस्यों की एक बाग़ में हत्या के जुर्म में सज़ा सुनाई गई थी। इनमें से 17 साल का अंकुश मारुति शिंदे सबसे कम उम्र का सदस्य था।
जब झूठ के केस में फंसाया गया
-जून 2006 में पुणे की ज़िला अदालत ने सभी छह लोगों को मौत की सज़ा सुनाई।
-मार्च 2007 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी उनको दोषी माना, पर मौत की सज़ा को उम्र क़ैद में बदल दिया।
-अप्रैल 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील ख़ारिज की और सभी की मौत की सज़ा बहाल कर दी।
-अक्टूबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले के ख़िलाफ़ पुनर्विचार याचिका मंज़ूर की।
-मार्च 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना ही फ़ैसला पलटते हुए सभी छह दोषियों को बरी किया।
ये सभी लोग शिंदे नाम की घुमंतू आदिवासी जनजाति से ताल्लुक़ रखते हैं। ये भारत के सबसे ग़रीब समुदायों में से एक है। वो मिट्टी खोदते हैं। कचरा उठाते हैं। नालियां साफ़ करते हैं। और दूसरों के खेतों में काम कर के ज़िंदगी बसर करते हैं। तीन अदालतों के सात जजों ने 13 बरस के अंतराल में उन्हें मुज़रिम ठहराया। और वो सारे के सारे जज ग़लत थे।
जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना ही फ़ैसला पलटते हुए इन सभी को बरी किया, तो वो एक ऐतिहासिक फ़ैसला कहा गया था। आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था, जब देश की सर्वोच्च अदालत ने मौत की सज़ा के अपने पुराने फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया था।
माननीय न्यायाधीशों ने अपने फ़ैसले में माना कि इन सभी छह लोगों को ग़लत तरीक़े से फंसाया गया था। अदालतों ने उन्हें दोषी मानने की भयंकर भूल की थी। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि इस मामले की 'न तो ईमानदारी से जांच हुई और न ही निष्पक्षता से मुक़दमा चलाया गया'। सुप्रीम कोर्ट ने 75 पन्नों के अपने असाधारण फ़ैसले में लिखा कि, 'इस मामले के असली अपराधी बच निकले'।
सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी लोगों की अपील को ख़ारिज करने के एक दशक बाद इन्हें बरी किया है। माननीय न्यायाधीशों ने कहा कि इस मामले की तफ़्तीश में 'बहुत से अहम पहलुओं की अनदेखी हुई और पूरी तरह लापरवाही बरती गई'।
अदालत ने अपने फ़ैसले में लिखा है कि गड़बड़ी करने वाले पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी चाहिए। अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने रिहा किए गए सभी लोगों को 5 लाख रुपए हर्ज़ाना एक महीने के भीतर अदा करने का आदेश भी दिया। अदालत ने महाराष्ट्र सरकार से उनके 'पुनर्वास' के लिए ज़रूरी क़दम उठाने के लिए भी कहा। (जो जुर्माना अदालत ने तय किया वो जेल में बिताए हर महीने के बदले 2600 रुपए बैठते हैं)
जब मैं बरी किए गए इन छहों लोगों से महाराष्ट्र के जालना ज़िले के एक सूखाग्रस्त गांव भोकर्दन में मिला, तो वो डिप्रेशन और फ़िक्र के शिकार दिखे। इन छह लोगों में से दो सगे भाई हैं और बाक़ी सभी चचेरे भाई। तब तक इन्हें मुआवज़े की रक़म भी नहीं मिली थी।
उन्होंने मुझे बताया कि मौत की सज़ा ने समय को लेकर उनकी समझ को ही गड़बड़ कर दिया है। उनकी संवेदनाएं मर चुकी हैं। उनकी ज़िंदादिली कहीं गुम हो गई है। उनके लिए काम पर वापस जाना भी मुश्किल हो रहा है। उन्हें हाई ब्लड प्रेशर, अनिद्रा, डायबिटीज़ और आंखों की कमज़ोर रोशनी जैसी कई बीमारियां लग गई हैं। उनके दिन सस्ती शराब के नशे की मदद से जैसे-तैसे गुज़र रहे हैं। उनमें से कुछ तो नींद की गोलियां और डिप्रेशन से लड़ने वाली दवाएं भी ले रहे हैं।
49 बरस के बापू अप्पा शिंदे कहते हैं, ''जेल आप को धीरे-धीरे गुपचुप तरीक़े से मारती है। जब आप जेल से छूटते हैं, तो आज़ादी अखरने लगती है।''
जब ये लोग जेल चले गए, तो इनकी बीवियों और बच्चों को काम करना पड़ा। उन्हें नालियां और कुएं साफ़ करने पड़े और कूड़ा बीनना पड़ा। ज़्यादातर बच्चे स्कूल नहीं जा सके। वो जिस इलाक़े में रहते हैं, वो कई साल से सूखे का शिकार है। ऐसे में खेती में रोज़गार ही नहीं है।
अब, रिहा किए गए ये लोग कहते हैं कि कोई भी हर्ज़ाना, कोई मुआवज़ा उन्हें खोया हुआ वक़्त नहीं वापस दे सकता। उनके जेल में रहने का जो नतीजा परिजनों ने भुगता, उसकी पैसे से भरपाई नहीं हो सकती।
2008 में बापू अप्पा के 15 साल के बेटे राजू की करंट लगने से मौत हो गई थी। वो जिस फावड़े से नाले की सफ़ाई कर रहा था, वो बिजली के नंगे तार से छू गया था। बापू अप्पा बताते हैं, ''वो मेरे परिवार का सबसे समझदार बच्चा था। अगर मैं जेल में नहीं गया होता, तो उसे ये काम करते हुए जान नहीं गंवानी पड़ती।''
जब बापू अप्पा और उनके भाई राज्या अप्पा जेल से छूटकर घर लौटे, तो उन्होंने अपने परिवारों को बहुत बुरी हालत में पाया। उनका घर मलबे के ढेर में तब्दील हो चुका था। उनके परिवार के सदस्य खुले में एक पेड़ के नीचे सोने को मजबूर थे। उन्होंने एक ख़ाली पड़ी सरकारी इमारत में अपना ठिकाना बनाया हुआ था। उनके बच्चों ने अपने पिता के स्वागत के लिए टीन की झोपड़ी तैयार की थी। राज्या अप्पा कहते हैं, ''हम अब आज़ाद तो हैं, पर बेघर हो गए हैं।''
राजू शिंदे की शादी जेल जाने से तीन महीने पहले ही हुई थी। जब पुलिस ने राजू को गिरफ़्तार किया तो, उनकी पत्नी उन्हें 12 बरस पहले छोड़कर किसी और आदमी के पास चली गई। राजू शिंदे बताते हैं, ''मुझे छोड़कर जाने से 12 दिन पहले वो मुझसे मिलने जेल में आई थी। लेकिन उसने मुझे ये नहीं बताया कि वो मुझे छोड़कर किसी और के साथ रहने जा रही है। शायद उस पर अपने परिवार का दबाव बहुत ज़्यादा था।'' राजू शिंदे ने हाल ही में दोबारा शादी की है।
बरी होने वाले छह में से दो लोगों के मां-बाप की मौत उनके जेल में रहने के दौरान हो गई। बेटों को मौत की सज़ा सुनाए जाने की ख़बर सुन कर उन्हें दिल का दौरा पड़ गया था। उनके ग़रीब परिवारों को अक्सर नागपुर की जेल में मुलाक़ात के लिए बिना टिकट ट्रेन का सफ़र करना पड़ता था।
इनमें से एक की पत्नी रानी शिंदे बताती हैं, ''अगर टिकट कलेक्टर हमें पकड़ लेता था, तो हम उसे बताते थे कि हमारे पति जेल में हैं और हम बहुत ग़रीब हैं। हमारे पास टिकट के पैसे नहीं हैं। कभी कोई टिकट कलेक्टर भला मानुस होता था, तो उन्हें गाड़ी से नहीं उतारता था। लेकिन कई बार उन्हें ट्रेन से उतार भी दिया जाता था। ग़रीब की कोई इज़्ज़त नहीं है।''
राजू शिंदे कहते हैं, ''हमारा सब-कुछ छीन लिया गया। हमारी ज़िंदगी, हमारी रोज़ी। हमारा सब-कुछ लुट गया। और ऐसे अपराध के लिए जो हमने किया ही नहीं था।''
इन छहों लोगों को 5 जून 2003 की रात को नासिक के एक अमरूद के बाग़ में एक ही परिवार के पांच लोगों की हत्या का दोषी पाया गया था। जहां ये लोग रहते हैं, नासिक वहां से क़रीब 300 किलोमीटर दूर है। मारे गए लोगों के परिवार के केवल दो लोग इस हत्याकांड में बचे थे। इनमें एक आदमी और उसकी मां थे।
उन्होंने पुलिस को बताया कि सात से आठ लोगों ने उनके बाग़ पर हमला किया था। जब वो झोपड़ी में घुसे, तो, उनके पास चाकू, हंसिया और डंडे थे। झोपड़ी में बिजली नहीं थी। वो सभी हिंदी बोलने वाले थे और कह रहे थे कि वो मुंबई से आए हैं। उन्होंने बैटरी से चलने वाले टेप रिकॉर्डर को बहुत तेज़ आवाज़ में बजाना शुरू किया। इसके बाद उस बाग़ में रहने वाले परिवार से उनके पैसे और गहने मांगे।
दो चश्मदीदों के मुताबिक़, उन्होंने हमलावरों को क़रीब 6500 रुपए के पैसे और गहने दे दिए। इसके बाद हमलावरों ने शराब पी और फिर उनके परिवार पर हमला किया और पांच लोगों को मार डाला। इसके बाद उन्होंने मर चुकी औरत से बलात्कार भी किया। मारे गए सभी लोगों की उम्र 13 से 48 साल के बीच थी।
पुलिस ने अगली सुबह पूरे बाग़ में बिखरा हुआ ख़ून देखा था। उन्होंने वारदात वाली झोपड़ी से कैसेट के टेप, लकड़ी का डंडा, एक हंसिया और 14 जोड़ी सैंडल बरामद किए थे। उन्होंने ख़ून के धब्बे और हाथ के निशान भी दर्ज किए। क़त्ल के एक दिन बाद पुलिस ने कुछ स्थानीय अपराधियों की फोटो पीड़ित चश्मदीद महिला को दिखाई। वो मुख्य गवाह बन चुकी थी। पुलिस ने उन तस्वीरों में से 19 से 35 साल के चार लोगों की शिनाख़्त की।
एक वक़ील ने बताया, ''वो सभी स्थानीय अपराधी थे और पुलिस रिकॉर्ड में उनका नाम दर्ज़ था।''
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़, पुलिस और सरकारी वक़ील ने ''इस सबूत को दबा दिया और चारों ही संदिग्धों को गिरफ़्तार नहीं किया गया।''
इसके बजाय, घटना के तीन हफ़्ते बाद पुलिस ने शिंदे परिवार के सदस्यों को हिरासत में ले लिया। जबकि शिंदे परिवार घटनास्थल से सैकड़ों किलोमीटर दूर रहता था। वो कभी भी नासिक नहीं गए थे। इन लोगों का कहना है कि पुलिस ने उन पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाए। बिजली के झटके दिए और बुरी तरह पीटा ताकि वो जुर्म क़बूल कर लें।'
इसके बाद अजीबोगरीब घटना ये हुई कि वारदात की इकलौती चश्मदीद महिला ने भी उन लोगों की थाने में अपराधियों के तौर पर 'शिनाख़्त' कर दी। 2006 में निचली अदालत ने इन सभी को हत्या का दोषी माना और मौत की सज़ा सुना दी। इस मामले की जांच चार अलग-अलग पुलिसवालों ने की थी। मुक़दमे की सुनवाई के दौरान सरकारी वक़ील ने 25 गवाहों के बयान भी दर्ज कराए थे।
इसके बाद अगले एक दशक या उससे भी ज़्यादा समय के दौरान, पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने और फिर सुप्रीम कोर्ट ने, इन सभी लोगों को मुजरिम ठहराने के फ़ैसले को बरक़रार रखा। बॉम्बे हाई कोर्ट ने मौत की सज़ा को उम्र क़ैद में बदल दिया। लेकिन, देश की सर्वोच्च अदालत ने इसे पलटते हुए फांसी की सज़ा बहाल कर दी।
अदालतों ने इन लोगों को बेगुनाह साबित करने वाले सबूतों के ढेर को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया। जहां वारदात हुई थी, उस झोपड़ी के अंदर और बाहर जो हाथ के निशान मिले थे, वो शिंदे परिवार के सदस्यों से नहीं मिले थे। उनके ख़ून और डीएनए के नमूने भी लिए गए। मगर, इनकी रिपोर्ट कभी अदालत में नहीं रखी गई।
सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2019 को दिए गए अपने फ़ैसले में कहा, ''ख़ून और डीएनए सैंपल के नतीजों से शिंदे भाइयों का जुर्म बिल्कुल भी साबित नहीं होता था।'' चश्मदीदों ने पहले पुलिस को बताया था कि हमलावर हिंदी बोल रहे थे। जबकि शिंदे परिवार के सदस्यों को हिंदी आती ही नहीं। वो मराठी में बात करते हैं।
मुंबई के वक़ील युग चौधरी ने सबूतों की पड़ताल की। उन्हें साफ़ दिखा कि शिंदे परिवार के सदस्यों के ख़िलाफ़ तो कोई सबूत ही नहीं। इसके बाद युग चौधरी ने इन सभी की जान बचाने की लड़ाई क़रीब एक दशक तक लड़ी।
पहले युग चौधरी ने इन सभी की तरफ़ से पहले महाधिवक्ता, फिर राज्यपाल और आख़िर में राष्ट्रपति के यहां दया याचिका दाख़िल की। युग चौधरी ने शिंदे परिवार के इन सदस्यों की तरफ़ से पूर्व न्यायाधीशों की एक चिटठी भी भारत के राष्ट्रपति के पास भिजवाई कि वो उनकी मौत की सज़ा को उम्र क़ैद में बदल दें।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने अपने फ़ैसले में लिखा है, ''ग़लत तरीक़े से सज़ा पाने वाले इन लोगों को अगर फांसी दे दी जाती, तो देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था पर गंभीर प्रश्न उठ सकते थे।'' इस अनसुलझी वारदात के 16 साल बाद बहुत से सवालों के जवाब अब तक नहीं मिले हैं।
आख़िर अदालतों ने शिंदे भाइयों को किस आधार पर दोषी पाया और मौत की सज़ा सुनाई? उन्हें चश्मदीद के बयान पर भरोसा कैसे हो गया, जबकि वो अपने बयान बदल रही थी। क्या शिंदे भाइयों को इस चश्मदीद के शिनाख़्त परेड में पहचानने के आधार पर ही सज़ा दे दी गई?
वक़ील कहते हैं कि ये एक 'भयंकर अपराध' था। इसलिए पुलिस पर जनता और मीडिया का भारी दबाव था। तो, उन्होंने शिंदे भाइयों को पकड़कर हत्या के केस को सुलझाने का दावा किया और अपनी पीठ थपथपा ली। आख़िर पुलिस ने उन चार लोगों के ख़िलाफ़ जांच क्यों नहीं की, जिन्हें चश्मदीद ने पुलिस फ़ाइल देखकर पहचाना था? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।
आख़िर चश्मदीद ने अपना बयान बदलकर ग़लत आदमियों की शिनाख़्त क्यों ही? क्या ये मामला याददश्त जाने का था या फिर ग़लत पहचान का? या फिर चश्मदीद ने पुलिस के दबाव में बयान बदला? किसी को भी इन सवालों के जवाब नहीं पता। सबसे अहम बात ये है कि आख़िर पुलिस ने इन छह बेगुनाह लोगों को क्यों गिरफ़्तार किया? ये तो घटनास्थल से क़रीब 300 किलोमीटर रह रहे थे। फिर पुलिस ने इन्हें क्यों फंसाया?
ख़ास निगरानी
वक़ील कहते हैं कि शिंदे भाइयों को पुलिस ने इसलिए फंसाया क्योंकि उनकी बिरादरी को अपराधी समुदाय माना जाता है। ये सोच अंग्रेज़ों के ज़माने से चली आ रही है। जब अंग्रेज़ों ने इस ग़रीब आदिवासी जनजाति को आपराधिक प्रवृत्ति का माना था। अंग्रेज़ों ने एक क़ानून बनाया था जिसमें इस जनजाति के सदस्यों को जन्मजात अपराधी बताया गया था। भारत के पुलिस मैनुअल में साफ़ लिखा है कि ऐसे आपराधिक समुदाय पर लगातार निगरानी रखी जानी चाहिए। उनके परिवार के सदस्यों को संदेह की नज़र से देखा जाना चाहिए।
इनमें से तीन लोगों को नासिक हत्याकांड से एक महीने पहले हुई हत्या में भी फंसाने की कोशिश की गई थी। लेकिन, पुलिस ने उन्हें इस मामले में निर्दोष मानकर 2014 में बरी कर दिया था।
उन्हें बरी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज भी इस बात को मानते हैं। इसीलिए उन्होंने अपने फ़ैसले में लिखा, ''आरोपी घुमंतू क़बीलों से ताल्लुक़ रखते हैं और समाज के निचले तबक़े से आते हैं। वो बहुत ग़रीब मज़दूर हैं। इसी वजह से उन्हें ग़लत तरीक़े से फंसाए जाने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि गंभीर अपराधों में बेगुनाहों को फंसाए जाने की घटनाएं आम हैं।''
आख़िर में शिंदे भाइयों के साथ हुआ, वो हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था की गंभीर ख़ामी को उजागर करता है। इससे साफ़ है कि अपराधों से निपटने की हमारी न्यायिक व्यवस्था ग़रीब विरोधी है।
दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में क़ानून पढ़ाने वाले अनूप सुरेंद्रनाथ कहते हैं, ''शिंदे भाइयों ने जो तकलीफ़ झेली, वो मौत की सज़ा पाने वाले हर अपराधी की दास्तान है। हमारी न्यायिक व्यवस्था में बहुत सी खामियां हैं। वो ऐसी भयंकर ग़लतियां अक्सर कर बैठती है।''
वो आगे कहते हैं, ''अगर सुप्रीम कोर्ट समेत इस देश की तीन अदालतें, जांच एजेंसियों की तरफ़ से पेश किए गए सबूतों में गड़बड़ी को पकड़ नहीं सकीं। वो ये नहीं देख सकीं कि इन छह लोगों को ग़लत तरीक़े से फंसाया गया है। तो हम ये कैसे मान लें कि हमारी न्यायिक व्यवस्था के तहत जिन लोगों को मौत की सज़ा मिली है, वो सही है।''
इस वक़्त भारत में मौत की सजा पाने वाले 400 लोग जेलों में बंद हैं।