विष्णु नारायण, पटना से, बीबीसी हिन्दी के लिए
बिहार की सियासत ने बीते दो-तीन दिनों में कुछ ऐसी करवटें ली हैं, जिसका अंदाज़ा बहुतों को नहीं था। सीएम नीतीश कुमार अब एनडीए गठबंधन के बजाय महागठबंधन का हिस्सा हैं।
मंगलवार, 9 अगस्त को पटना की सड़कों पर ख़ासी गहमागहमी रही। राजभवन के इलाक़े में पूरे देश की मीडिया का जमावड़ा लगा रहा। पल-पल का अपडेट देने में मीडियाकर्मियों को भी कम मशक़्क़त नहीं करनी पड़ी, लेकिन इस पूरी सियासी गहमागहमी के बीच बहुतों ने सुशील कुमार मोदी की अनुपस्थिति को महसूस किया।
बिहार की सियासत को जानने-समझने वाले इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि सूबे के भीतर सुशील कुमार मोदी क्या अहमियत रखते हैं। कैसे वे कुछ चुनिंदा राजनेताओं में रहे जिन्हें 1 अणे मार्ग (सीएम हाउस) आने-जाने के लिए किसी अप्वाइंटमेंट की ज़रूरत नहीं रही। कैसे वे कई बार भाजपा और जद (यू) के तल्ख़ हो रहे रिश्तों और खींचतान के बीच रक्षक या कहें कि पुल की भूमिका अदा करते रहे हैं।
नीतीश कुमार और सुशील मोदी की जोड़ी के चर्चे पटना से लेकर दिल्ली के सियासी गलियारे में यूं ही नहीं होती है। लालू प्रसाद और उनके परिवार के सदस्यों पर लगातार हमले करने का कोई मौक़ा सुशील कुमार मोदी नहीं चूकते।
2015 में जब नीतीश और लालू साथ आए तो सुशील कुमार मोदी ने लालू पर हमले और तेज़ कर दिए थे। साल 2015-17 के दौरान लालू परिवार पर अकूत संपत्ति दर्ज करने के आरोप को उन्होंने ख़ूब उछाला। चाहे बीजेपी की आधिकारिक प्रेस वार्ता के ज़रिए या फिर अपने सोशल मीडिया पेज पर।
वे तब तक शांत नहीं बैठे जब तक उन्होंने नीतीश को लालू से अलग नहीं करवा दिया। नीतीश ने उस समय भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाया था।
लेकिन जब 2017 में नीतीश एनडीए में दोबारा आए तो मोदी-शाह की टीम ने सुशील कुमार मोदी को प्रदेश की राजनीति से दूर कर दिया।
नीतीश के नए मंत्रिमंडल में सुशील मोदी जगह नहीं पा सके और फिर उन्हें पार्टी ने राज्यसभा भेज दिया। धीरे-धीरे वो प्रदेश की राजनीति से ग़ायब होते चले गए।
पार्टी के पोस्टरों से सुशील मोदी ग़ायब
30-31 जुलाई को पटना में भारतीय जनता पार्टी के संयुक्त मोर्चा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर गृहमंत्री अमित शाह पटना आए थे।
पूरा शहर भाजपा के पोस्टरों से पटा पड़ा था। जगह-जगह स्वागतार्थ तोरण द्वार बने थे। जहां देखो वहां भाजपा नेताओं की ओर से लगाए गए पोस्टर, लेकिन इन पोस्टरों से सुशील मोदी ग़ायब दिखे। पटना की सड़कों पर घूमते हुए उनकी ओर से राष्ट्रीय नेताओं के लिए स्वागतार्थ लगाए गए पोस्टर भी नहीं दिखे। यह सबकुछ अनायास तो बिल्कुल ही नहीं था।
पार्टी के पोस्टरों से सुशील मोदी के ग़ायब होने पर इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार और 'जेपी टू बीजेपी- बिहार आफ़्टर लालू एंड नीतीश' के लेखक संतोष सिंह बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, "देखिए उनके पोस्टरों से ग़ायब होने वाली बात में बहुत दम नहीं है। वे अब राज्य की राजनीति से केंद्र की राजनीति में जा चुके हैं। वे पार्टी की बैठक में तो रहे ही थे।"
लेकिन अब जब नीतीश और बीजेपी का गठबंधन टूट गया है तो लोग कह रहें हैं कि सुशील कुमार मोदी शायद इस स्थिति को बेहतर ढंग से हैंडल कर सकते थे, अगर उन्हें मौक़ा दिया जाता।
संवादहीनता की वजह से भाजपा और नीतीश हुए अलग?
बिहार की राजनीति को जानने-समझने वाले इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि सूबे की राजनीति में तीन अहम धुरी हैं। दो के साथ आने पर सत्ता का समीकरण सधता है, और भाजपा के लिहाज़ से उस धुरी के निर्माण में सुशील मोदी की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है।
चूंकि इस पूरे प्रकरण (नीतीश के एनडीए से अलगाव) में भी संवादहीनता को दर्ज किया गया। ऐसे कई मौके दिखे जब लगा कि यदि सुशील मोदी सूबे की राजनीति में सक्रिय होते तो ऐसा न होता।
इस पूरे प्रकरण और सुशील मोदी की अनुपस्थिति पर संतोष सिंह कहते हैं, "देखिए दोनों दलों के बीच कम्युनिकेशन गैप तो दिखा ही। अरुण जेटली के इंतक़ाल के बाद सुशील मोदी ही वे नेता रहे, जिनसे बात करने में नीतीश सहजता महसूस करते रहे हैं। सुशील मोदी के राज्य की राजनीति के लिहाज़ से सक्रिय न होने की स्थिति में कोई ऐसा नेता रहा नहीं जो नीतीश से उस तरह बात कर सके, जिसकी ज़रूरत कई मौक़ों पर महसूस की गई। संवादहीनता तो दिखी ही।
संतोष सिंह आगे कहते हैं, "धर्मेंद्र प्रधान को छोड़ दें तो नीतीश, भूपेंद्र यादव को लेकर भी उतने सहज नहीं रहे, लेकिन इस अलगाव के पीछे संवादहीनता के बजाय और भी कई कारण हैं। नीतीश, केंद्र और भाजपा की ओर से बुलाए गए कई अहम बैठकों में इस बीच शामिल नहीं हुए। तस्वीर तो तभी से स्पष्ट थी लेकिन सुशील मोदी होते तो शायद ऐसी संवादहीनता न दिखाई पड़ती। राजनीति में संवाद की अपनी अलग भूमिका तो होती ही है।"
इसके साथ ही एनडीए के भीतर हुई टूट और नीतीश के अलगाव के पीछे भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की पटना में हुई बैठक के दौरान जेपी नड्डा के उस बयान को भी एक बड़ी वजह माना जा रहा है, जहां उन्होंने क्षेत्रीय पार्टियों के ख़ात्मे की बात अपने पार्टी के नेताओं को संबोधित करते हुए कही थी। सियासी पंडित ऐसा मानते हैं कि यदि सुशील मोदी उस तरह सक्रिय होते तो इस बात को तूल पकड़ने से रोक सकते थे।
बीजेपी को भी खली कमी
भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता डॉ. विनोद शर्मा कहते हैं, "देखिए इस पूरे प्रकरण के दौरान सुशील मोदी की कमी तो हमें महसूस हुई ही। दोनों नेताओं (नीतीश कुमार और सुशील मोदी) में एक-दूसरे को लेकर सहजता का भाव तो रहा ही है। दोनों समकक्षीय भी रहे हैं। दोनों के बीच बढ़िया अंडरस्टैंडिंग रही है। दोनों संघर्ष के दिनों के साथी हैं। ज़ाहिर तौर पर सुशील मोदी यदि राज्य की राजनीति में सक्रिय होते तो शायद इस डैमेज को कंट्रोल कर लेते। या ऐसा नहीं होता, लेकिन अब क्या कहा जाए?"
वहीं जदयू के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार कहते हैं, "देखिए इस बात को तो भाजपा वालों ने भी महसूस किया कि यदि सुशील मोदी सक्रिय होते तो शायद ऐसी स्थितियां न उपजतीं। हालांकि वे अपनी पार्टी और धारा के प्रति कमिटेड व्यक्ति रहे हैं, लेकिन गवर्नेंस के स्तर पर अनावश्यक दख़ल नहीं देते थे। रही बात भाजपा की तो अब यह अटल और आडवाणी वाली भाजपा तो रही नहीं। बाक़ी यह भाजपा जाने कि उन्हें (सुशील मोदी) को क्यों अलग रखा गया? यह तो उनका कॉल है। इसमें हम क्या कहें?"