- केविन पोनिया
ताइवान लंबे समय से आर्थिक सहयोग और मदद के बूते अपने चंद राजनयिक साझीदारों को अपने साथ बनाए रखने की कोशिश कर रहा है। लेकिन उसका प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी देश चीन आर्थिक सुपर पॉवर बन चुका है और वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उसके साझीदारों को एक एक कर अलग कर रहा है।
पिछले दिसम्बर में अफ़्रीका के सबसे छोटे देश साउ टोम और प्रिंसीप ने ताइवान से अपने संबंध तोड़ लिए और अभी हाल ही में लंबे समय के उसके साझेदार पनामा ने किनारा कर लिया। जानकारों का कहना है कि आने वाले समय में कुछ और मध्य अमेरिकी देश ऐसा ही कर सकते हैं।
ताइवान के साथ सिर्फ 19 देश
ताइवान के अलग थलग होने की कहानी 1971 से शुरू होती है जब अमेरिका ने चीन के साथ संबंध स्थापित किए और इसके बाद अधिकांश देशों ने ऐसा ही किया। चीन ने ताइवान को हमेशा से ऐसे प्रांत के रूप में देखा है जो उससे अलग हो गया है। चीन उसे संप्रभु राष्ट्र नहीं मानता।
1990 के दशक में 30 ऐसे देश थे जिन्होंने बीजिंग की जगह ताइपेई को तवज्जो दी। जबकि ये संख्या अब 19 तक पहुंच गई है। ताइवान और चीन के बीच राजनयिक रिश्ते की यह प्रतिद्वंद्विता मध्य अमरीकी, कैरिबियन और प्रशांत क्षेत्र में केंद्रित है।
हालांकि इसमें भी उतार चढ़ाव आता रहा है। कैरिबियन देश सेंट लूसिया ने 1984 में ताइवान को तब मान्यता दी जब वहां कंज़र्वेटिव पार्टी सत्ता में थी। 1997 में जब लेबर पार्टी सत्ता में आई तो उसने चीन से करीबी बढ़ाई। 2007 में कंज़र्वेटिव जब फिर आए तो उन्होंने ताइवान से रिश्ते कायम किये। इस बात से चीन नाराज हुआ क्योंकि उसने वहां बड़े आधारभूत प्रोजेक्टों में पैसा लगाया था।
हालांकि जब 2011 में लेबर पार्टी की वापसी हुई तो उसने ये कहते हुए चीन से रिश्ते बनाने से मना कर दिया कि उनका देश ऐसा व्यवहार नहीं करना जारी रख सकता जैसे लगे कि उसकी संप्रुभता अधिक पैसा लगाने वाले के लिए बिकाऊ है। यही हाल गांबिया, लाइबेरिया और निकारागुआ की रही है।
राजनयिक रिश्तों का उतार चढ़ाव
जब आज़ादी समर्थक डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) सत्ता में थी, तब ताइवान के कई मित्र देश चीन के क़रीबी हो गए जैसे कोस्टा रिका, सेनेगल, चाड, ग्रेनाडा, डोमिनिका, मकदूनिया, वनुआतू, लाइबेरिया और मालावी। चीन ने इन देशों पर खूब खर्च किया। कथित तौर पर कोस्टा रिका को 10 करोड़ डॉलर की लागत वाला स्टेडियम मिला।
2008 में जब चीन की करीबी कोमिंतांग (केएमटी) सत्ता में आई तो चीन थोड़ा नरम पड़ा। स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़ में ताइवान मामलों के जानकार डॉ डेफ़िड फ़ेल के मुताबिक, "इस दौरान ताइवान ने नए दोस्त नहीं बनाए लेकिन उसने क़रीबी रिश्ते कायम किए।"
इसका कारण था कि दोनों पक्ष '1992 की सहमति' के प्रति राज़ी थे। फ़ेल का कहना है कि 2016 में इसमें फिर बदलाव आया जब डीपीपी सत्ता में आई, उसने '1992 सहमति' को नज़रअंदाज़ किया तो चीन उसे सज़ा देने के मौके तलाशने लगा।
अगला कौन?
मध्य अमरीका में चीन और ताइवान की नीतियों पर किताब लिखने वाले कोलिन एलेक्जेंडर कहते हैं कि अल सल्वादोर या निकारागुआ में से कोई ताइपेई से संबंध तोड़ सकता है।
वो कहते हैं कि असल में अल सल्वादोर ने पहले चीन के साथ संबंध बनाने की कोशिश की थी, लेकिन दबाव में पीछे हट गया था। ट्रंप के अमरीकी राष्ट्रपति चुने जाने के बाद बीती जनवरी में ताइवानी राष्ट्रपति त्साई ने अल सल्वादोर, ग्वाटेमाला, होंडुरास और निकारागुआ का दौरा किया था। लेकिन इस बीच साओ टोम और प्रिंसीप ने चीन का हाथ पकड़ लिया।
ताइवान के मित्र राष्ट्र
*दक्षिणी अमरीकी और कैरीबियन देशः बेलिज़, अल सल्वादोर, हैती, निकारागुआ, सेंट किट्स एंड नेविस, सेंट विंसेंट एंड ग्रेनेडाइंस, द डोमिनिकन रिपब्लिक, ग्वाटेलामा, पराग्वे, होंडुरास और सेंट लुसिया।
*अफ़्रीकी देशः बुर्किना फासो और स्वाजीलैंड
*यूरोपः द होली सी
*प्रशांत क्षेत्र: किरिबाती, नाउरू, द सोलोमोन आइलैंड्स, तुवालू, द मार्शल आईलैंड और पलाउ।
अलेक्जेंडर कहते हैं कि लोकंत्र की राह पकड़ने वाले मध्य अमेरिका देशों द्वारा चीन के क़रीब जाना केवल पैसे के कारण नहीं है बल्कि वो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग नहीं दिखना चाहते। वो कहते हैं कि दूसरी तरफ अगर आप एक छोटा मध्य अमरीकी गणतंत्र हैं और ताइवान के साथ अच्छे रिश्ते हैं तो वो आपको बहुत तवज्जो देगा और आपको काफी फायदा होगा।
लेकिन अगर आप चीन की तरफ़ हाथ बढ़ाते हैं तो आप उन देशों की सूची में शामिल हो जाएंगे जिन्होंने चीन को मान्यता दी है।
चीन की 'मनी डिप्लोमेसी'
बुरकिना फासो और स्वाजीलैंड, अफ़्रीका में ताइवान के बचे खुचे साझीदार हैं। अफ़्रीका एक ऐसा महाद्वीप है जहां चीन ने हाल के सालों में अरबों डॉलर लगाए हैं। पिछली जनवरी में बुरकिना फासो के विदेश मंत्री अल्फ़ा बैरी ने कहा था, "आपको अपमानजनक ऑफ़र दिए जाते हैं- अगर आपने बीजिंग के साथ समझौता किया तो आपको हम 50 अरब डॉलर देंगे।"
उन्होंने कहा, "ताइवान हमारा दोस्त और पार्टनर है और हम खुश हैं और रिश्तों के बारे में पुनर्विचार का कोई कारण नहीं है।" असल में जानकार इसे चीन की 'मनी डिप्लोमेसी' क़रार देते हैं। डॉ फ़ेल के अनुसार, हालांकि ताइवान के लिए ये राजनयिक संबंध अहम हैं लेकिन उतने भी अहम नहीं हैं, जितना आम लोगों की धारणा है।
इसका कुल मतलब इतना ही है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ताइवान के लिए एक आवाज बढ़ जाएगी। लेकिन ताइवान के पास अमरीका जैसे शक्तिशाली देश का साथ है। इस देश के दुनिया भर में व्यापार कार्यालय हैं जो कि असल में उसके दूतावास की तरह काम करते हैं।