सौतिक बिस्वास (बीबीसी संवाददाता)
दुनिया की घनी आबादी वाले शहरों के लोगों की लग्ज़री चीज़ों में सोशल डिस्टेंसिंग नहीं शामिल है। जितनी अधिक आबादी, कोरोना वायरस को फैलने में उतनी ही आसानी। सोचिए कि क़रीब 2.5 वर्ग किलोमीटर में फैले स्लम इलाक़े में, जो कि 1 वर्ग मील से भी कम है, 5 लाख से अधिक लोग रहते हैं। आबादी के लिहाज़ से यह मैनचेस्टर और क्षेत्रफल के हिसाब से हाइड पार्क और किंग्स्टन गार्डन से भी छोटा एरिया है।
यहां 100 वर्ग फ़ीट यानी 10x10 के एक छोटे से कमरे में 8 से 10 लोग एकसाथ रहते हैं। यहां की 80 फ़ीसदी आबादी कम्युनिटी टॉयलेट का इस्तेमाल करती है। इस स्लम की संकरी गलियों में क़तार से एक ही बिल्डिंग के अंदर घर और फैक्टरी दोनों मौजूद हैं। इनमें रहने वाले अधिकतर लोग असंगठित दिहाड़ी मज़दूर हैं, जो अपने घरों में खाना नहीं पकाते बल्कि खाने के लिए आसपास के छोटे ढाबों में जाते हैं।
देश की आर्थिक और मनोरंजन राजधानी मुंबई के बीचोबीच बेतरतीब बसे स्लम एरिया धारावी में कोरोना वायरस का प्रकोप फ़िलहाल नियंत्रण में आ गया लगता है।
अप्रैल में आया था कोरोना का पहला मामला
यहां 1 अप्रैल को पहला मामला सामने आया था, अब तक यहां संक्रमण के 2,000 से अधिक मामले और 80 से अधिक मौतें रिपोर्ट हो चुकी हैं। आधे से अधिक कोरोना मरीज़ ठीक भी हुए हैं। धारावी में संक्रमण के मामलों में दैनिक वृद्धि मई में एक रोज़ 43 तक पहुंच गई थी, जो अब यह गिरकर जून के तीसरे हफ़्ते तक 19 के स्तर पर आ गई है।
साथ ही अप्रैल में जहां 18 दिन पर संक्रमण के मामले दोगुने हो रहे थे, वहीं जून में दोगुनी होने की रफ़्तार भी कमज़ोर पड़ी है। अब यहां 78 दिनों में मामले दोगुने हो रहे हैं। यहां संक्रमण को बढ़ने से रोकने के लिए सख्त कंटेंनमेंट, व्यापक स्क्रीनिंग और बेरोज़गार लोगों को मुफ़्त में खाना देने जैसे बेहद असाधारण उपायों को आज़माया गया।
नगर निगम के अधिकारियों का कहना है कि यहां कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए उन्होंने बेहद तेज़ी से इससे संक्रमित लोगों का पता लगाने, उन्हें ट्रैक करने, उनका टेस्ट करने और उन्हें आइसोलेट करने का काम किया। लोगों की स्क्रीनिंग के लिए फ़ीवर कैंप, घर-घर जाने से लेकर मोबाइल वैन तक चलाए। गर्म और उमस भरी गर्मी के बावजूद स्वास्थ्यकर्मी तपते पर्सनल सुरक्षा गियर में घर-घर पहुंच कर लोगों की स्क्रीनिंग करते। इन प्रयासों की बदौलत ही फीवर कैंप में अब तक 3.6 लाख लोग कोरोना वायरस संक्रमण की स्क्रीनिंग से गुज़र चुके हैं।
युद्धस्तर पर रोकथाम के उपाय
हर कैंप में सुरक्षात्मक कपड़ों से लैस आधे दर्जन डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की टीम इन्फ्रारेड थर्मामीटर और पल्स ऑक्सीमीटर की मदद से प्रतिदिन इलाक़े के 80 से अधिक लोगों का तापमान और उनके ख़ून में ऑक्सीजन के लेवल की जांच करते हैं। जिन लोगों को फ़्लू के लक्षण दिखते हैं उनका ऑन स्पॉट कोविड का टेस्ट किया जाता है।
इनमें से जो भी कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हैं उन्हें स्कूल्स, मैरिज हॉल्स, स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स जैसी इंस्टिट्यूशनल क्वारंटीन सेंटर्स में रखा जा रहा है। अब तक दस हज़ार से अधिक लोगों को ऐसी व्यवस्थाओं में रखा जा चुका है। अगर यहां उनके स्वास्थ्य में और अधिक गिरावट आती है तो वैसे रोगियों को पास के ही सार्वजनिक और तीन निजी अस्पतालों में ले जाया जाता है।
इन झुग्गियों में काम करने वाली एक डॉक्टर अमृता बावस्कर ने बीबीसी को बताया, 'इन फ़ीवर कैंप्स ने कोरोना वायरस के प्रसार की जांच में वाकई मदद की है।'
वो कहती हैं, 'लोग अब ख़ुद ही किसी न किसी बहाने से टेस्ट करवाने पहुंच जाते हैं। कभी कभी तो वो हाई रिस्क वाले बुज़ुर्गों की कैटिगरी में आने के लिए अपनी उम्र तक बढ़ा देते हैं। कभी वो इसलिए टेस्ट करवाना चाहते हैं क्योंकि वो किसी ऐसे व्यक्ति के बगल में बैठे थे जो खांस या छींक रहा था। लोगों में डर के साथ साथ जागरूकता आई है।'
कठोर कंटेनमेंट
अप्रैल के बाद से किए गए कुछ 11 हज़ार टेस्ट के बाद भी संभावना ये है कि स्लम में अभी भी ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो संक्रमित हैं लेकिन उनमें कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहा है। लेकिन अधिकारियों का मानना है कि वो संक्रमण को नियंत्रित करने में कामयाब हुए हैं जबकि यह मुंबई और अन्य हॉटस्पॉट शहरों में कहीं तेज़ी से बढ़ रहा है।
धारावी की झुग्गियों में अपेक्षाकृत कम मृत्यु दर संभवतः इस वजह से है कि यहां संक्रमित अधिकांश लोग 21 से 50 वर्ष की आयु वर्ग में हैं। और साथ ही यह भी कि यहां कंटेनमेंट का कड़ाई से पालन किया गया, मुफ़्त खाना, राशन उन लोगों तक पहुंचाया गया जो बेरोज़गार हैं या इस दौरान उनकी कमाई बंद हो गई है।
इस नगर पालिका क्षेत्र के असिस्टेंट म्युनिसिपल कमिश्नर किरण दिवाकर ने बीबीसी को बताया, 'मुझे लगता है कि हमने कोरोना फैलने के चेन को बिना सोशल डिस्टेंसिंग के ही तोड़ दिया है, क्योंकि इसकी यहां कोई गुंजाइश नहीं थी।' इसकी वजह से धारावी को मीडिया में बहुत कवरेज मिल रहा है।
धारावी का परिचय
धारावी की झुग्गियों ने फ़िल्म स्लमडॉग मिलेनियर के ऑस्कर जीतने के बाद से ही प्रेरणा के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। दुनियाभर से बिज़नेस स्कूल के शोधकर्ता और शहर के योजनाकार यहां कि 1 अरब डॉलर की असंगठित अर्थव्यवस्था और इस बस्ती के सामाजिक व्यवस्था पर शोध कर चुके हैं।
प्राइवेट डॉक्टरों ने भी यहां के फीवर कैंप को जॉइन किया है। पैसे से संपन्न नगरपालिका, राजनेताओं और एनजीओ ने हज़ारों की संख्या में मुफ़्त खाने के पैकेट्स और राशन बाँटे हैं। बॉलीवुड कलाकारों और बिज़नेस करने वालों ने यहां सुरक्षात्मक गियर, ऑक्सीजन सिलिंडर्स, ग्लव्स, मास्क, दवाइयां और वेंटिलेटर्स बांटे हैं।
झुग्गियों में काम करने वाली ग़ैर-लाभकारी समूह के साथ काम करने वाली डॉक्टर अरमिडा फर्नांडिस कहती हैं, 'मुंबई पहले भी इस तरह की सामुदायिक गतिविधियों की गवाह रही है। यहां के लोगों ने इस बार धारावी में संक्रमण के प्रसार को थामने को लेकर अधिकारियों की मदद करने का अच्छा काम किया है।' हालांकि इस कठोर कंटेनमेंट पर बहुत अधिक ख़र्च बैठा है।
धारावी में अमूमन चमड़े, मिट्टी के बर्तनों और कपड़े की सिलाई का काम ज़्यादा होता है। यहां क़रीब 5 हज़ार ऐसी फ़ैक्ट्रियां हैं, जो टैक्स देती हैं वहीं एक कमरे में चलने वाले लगभग 15 हज़ार वर्कशॉप्स हैं। साथ ही यह मुंबई में प्लास्टिक रीसाइक्लिंग का मुख्य केंद्र भी है। यह कोई अचरज की बात नहीं है कि धारावी मुंबई की वो जगह है जहां सालों से कम कमाई करने वाले प्रवासी मज़दूर फल-फूल रहे हैं।
लॉकडाउन के बाद जब लोगों की कमाई ठप पड़ गई और उनकी बचत ख़त्म हो गई तो एक अनुमान के मुताबिक क़रीब डेढ़ लाख मज़दूर यहां से अपने गांव चले गए। यहां के लोगों ने अपने सोने गिरवी रखे, की गई बचत को ख़र्च कर दिया और अब क़र्ज़ में डूबते चले जा रहे हैं।
आगे की चुनौतियां
धारावी में ग़ैर-लाभकारी संस्था एकोर्न इंडिया चलाने वाले एक वकील विनोद शेट्टी कहते हैं, 'कंटेनमेंट बहुत कठोर था। इसने धारावी की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी।' वो कहते हैं, 'लोग यहां किसी तरह गुज़र बसर कर रहे हैं। उन्हें न तो इन झुग्गियों में और न ही इसके बाहर ही कोई जॉब मिल रही है।'
दिघवाकर कहते हैं कि अगली चुनौती धीरे-धीरे फैक्टरीज़ को खोलना ताकि लोग काम पर जा सकें और यह सुनिश्चित करना कि लोग मास्क पहने और बताई गई सभी प्रक्रियाओं का पालन करें। लेकिन सवाल अब भी बरकरार हैं। क्या इन झुग्गियों में पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है ताकि लोग अपने हाथ धो सकें? क्या इतनी नौकरियां बची रहेंगी कि मज़दूरों को फैक्टरी में वापस लाया जा सके?
भविष्य में संक्रमण की लहरों को रोकने के लिए इन झुग्गियों में लॉकडाउन में कब तक रह सकता है? एक ग़ैर लाभकारी संस्था कब तक यहां लोगों की मदद कर सकती है क्योंकि कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई अभी लंबी चलेगी यह तो तय है और इस दौरान उनके संसाधन भी तो ख़त्म होने शुरू हो जाएंगे? दिघवाकर कहते हैं, 'यह लड़ाई अभी ख़त्म नहीं हुई है। तब तक नहीं जब तक कि यह वायरस पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाता।'