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दुनियाभर के हथियारों के कारोबार में है इन देशों का दबदबा

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, शुक्रवार, 11 मई 2018 (18:03 IST)
- टीम बोलर (बिज़नेस रिपोर्टर)
 
सीरिया और यमन में चल रहे भीषण गृहयुद्ध और साथ ही अमेरिका, रूस और चीन जैसी बड़ी ताक़तों की आपसी होड़ बढ़ने के कारण हथियारों का वैश्विक कारोबार एक बार फिर चर्चा में है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट (सिपरी) के सीनियर रिसर्चर पीटर वेज़ेमन ने बीबीसी को बताया, "हैरानी की बात तो यह है कि हथियारों का कारोबार तेज़ी से फल-फूल रहा है। आज हर साल हथियारों का 100 बिलियन डॉलर का अंतरराष्ट्रीय कारोबार होता है।
 
 
डिफ़ेंस इंडस्ट्री के विशेषज्ञ मानते हैं कि हथियारों का कारोबार 2013-2017 में 2008-12 के मुक़ाबले 10 प्रतिशत ज़्यादा रहा। सिपरी के मुताबिक़ हथियार निर्यातकों में अमेरिका इस समय सबसे आगे चल रहा है। उसका अंदाज़ा है कि पूरी दुनिया में हथियारों की बिक्री में अमेरिका की हिस्सेदारी अब 34 प्रतिशत है, जबकि पांच साल पहले यह 30 प्रतिशत थी।
 
वेज़ेमन कहते हैं, "अमेरिका कई तरह के ग्राहकों को हथियार देने के लिए तैयार रहता है और कई देश भी उससे हथियार लेने के लिए तैयार रहते हैं।"
 
 
अमेरिका का हथियार निर्यात दुनिया के दूसरे सबसे बड़े हथियार निर्यातक रूस से 58 प्रतिशत ज़्यादा है। 2013-2017 में पिछले पांच सालों के मुक़ाबले जहां अमेरिाक का निर्यात 25 प्रतिशत बढ़ा वहीं रूस के निर्यात में 7.1 प्रतिशत की गिरावट आई। मध्य-पूर्व के देश अमेरिका के सबसे बड़े ग्राहकों में से एक हैं और सऊदी अरब का नाम इस लिस्ट में सबसे ऊपर है। 2013-17 में अमेरिाक का लगभग आधा हथियार निर्यात इसी इलाक़े को हुआ।
 
यमन का गृहयुद्ध
पिछले दस सालों में मध्य-पूर्व में हथियारों का आयात बढ़कर दोगुना हो गया है। इसका कारण है पूरे क्षेत्र में चल रहा संघर्ष, ख़ासकर सीरिया और यमन में चल रहे गृहयुद्ध। संयुक्त राष्ट्र इन्हें दुनिया की सबसे भीषण मानव जनित आपदा बता चुका है। 2015 में यमन का गृहयुद्ध शुरू होने के बाद से सऊदी अरब और आठ अन्य अरब देशों ने राष्ट्रपति अब्दरब्बू मंसूर हादी के प्रति निष्ठा रखने वाले बलों के समर्थक में हवाई हमले किए हैं। ये लोग हूती विद्रोहियों से लड़ रहे हैं, जिन्हें कथित तौर पर ईरान क समर्थन मिला हुआ है।
 
 
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि इस संघर्ष के कारण यमन में पिछले साल नंवबर तक 5,295 नागरिक मारे गए हैं और 8,873 ज़ख़्मी हुए हैं। हालांकि असल आंकड़ें इससे कहीं ज़्यादा हो सकते हैं। यमन में चल रहे संघर्ष के दौरान सऊदी अरब और उसके सहयोगियों को अपने उन्नत हथियारों को इस्तेमाल करते हुए देखकर पश्चिमी देशों के सामने हथियारों के कारोबार को लेकर नैतिक प्रश्न खड़े हो गए हैं।
 
 
पीटर वेज़ेमन कहते है, "सऊदी अरब, मिस्र और यूएई प्रमुख हथियार आयातक तो थे ही। अब फ़र्क यह आया है कि अब वे इन हथियारों को यमन में इस्तेमाल कर रहे हैं।" संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सऊदी के नेतृत्व वाले गठबंधन के हवाई हमलों से आम नागरिकों की मौत हो रही है जिनमें बच्चे भी शामिल हैं। इस बीच विद्रोही बल भी ताइज़ और अदन जैसे शहरों पर गोलाबारी कर रहे हैं जिससे नागरिकों की मौत हो रही है। उन्होंने सऊदी अरब पर भी रॉकेट दाग़े हैं।
 
 
एमनेस्टी इंटरनेशनल में हथियारों के कारोबार के विशेषज्ञ ऑलिवर फ़ीली-स्प्रॉग कहते हैं, "हथियारों की बिक्री से मानवाधिकार के उल्लंघन का साफ़तौर पर ख़तरा रहता है। सभी पक्षों से उल्लंघन हो रहा है। हथियारों की आपूर्ति जितनी ज़्यादा होगी, उतना ही जोखिम बढ़ जाता है।" यमन में जिस पैमाने पर युद्ध चल रहा है, उससे कुछ देश हरकत में आए हैं। नॉर्वे, नीदरलैंड्स, स्वीडन और जर्मनी ने हाल ही में इस इलाक़े के लिए हथियारों की आपूर्ति करना रोक दिया है।
 
 
चीन का उभार
चीन के आर्थिक उदय का प्रतिबिंब इसके बढ़ते हुए रक्षा बजट और वैश्विक हथियार निर्यातक के रूप में बढ़ते महत्व के रूप में नज़र आता है। चीन अब दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है। वह अमेरिका, रूस, फ्रांस और जर्मनी से पीछे मगर ब्रिटेन से आगे है। चीन का हथियार निर्यात साल 2008-12 के मुकाबले 2013-17 में 38 प्रतिशत बढ़ा है। अब वह अमेरिका के बाद सबसे अधिक रक्षा बजट वाला दूसरा देश है। 2017 में अमेरिका का रक्षा बजट 602 बिलियन डॉलर था जबकि चीन का 150 बिलियन।
 
 
इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर स्ट्रैटिजिक स्टडीज़ (आईआईएसएस) में रिसर्च फ़ेलो माइया नूवेन्स बताती हैं, "चीन अगर अपने रक्षा उद्योग पर ज़्यादा खर्च करता है तो इसका मतलब है कि वह अपने हथियार तंत्र को तकनीकी रूप से बेहतर बनाने के मामले में पश्चिम को चुनौती दे रहा है।"
 
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वह कहती हैं, "इस बात में कोई शक नहीं होना चाहिए कि पीएलए (पीपल्स लिबरेशन आर्मी) आज डिफ़ेंस टेक्नॉलजी के कुछ मामलों में पश्चिम से पीछे नहीं है। हवा में पश्चिम की श्रेष्ठता लगातार ख़तरे में आ रही है।" "चीन भले ही अभी तक दमदार प्रदर्शन करने वाले सैन्य जेट इंजन नहीं बना सका है मगर जिस तरह से वे प्रगति कर रहे हैं, क़ामयाबी से ज़्यादा दूर नहीं हैं।"
 
 
चीन का सैन्य निवेश बढ़ने से वह थल सेना आधारित ताक़त से नौसेना आधारित ताक़त बनने की तरफ़ अग्रसर है और उसने इसमें भारी निवेश भी किया है। साल 2000 से लेकर अब तक जापान, दक्षिण कोरिया और भारत ने जितने युद्धपोत बनाए हैं, उससे ज़्यादा युद्धपोत अकेले चीन ने बनाए हैं। उसने पिछले चार सालों में फ्रांस की नेवी से भी ज़्यादा युद्धपोत लॉन्च किए हैं। जापान और भारत ने भी बदले में अपनी नौसेना पर खर्च बढ़ाया है।
 
 
रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज़ इंस्टिट्यूट (रूसी) के रिसर्च एनालिस्ट वीर्ल नूवेन्स बताते हैं, "चीन आर्थिक रूप से तेज़ रफ्तार से आगे बढ़ा है और वह सैन्य ताकत के आधार पर क्षेत्र में प्रभुत्व जमाना चाहता है।"
 
 
इस रणनीति के तहत चीन हथियारों का निर्यात भी कर रहा है। उसने 2013-17 में 48 देशों को हथियार बेचे हैं और पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा ग्राहक है। वह पारंपरिक रूप से रूस के ग्राहक रहे देशों के बीच पैठ बना रहा है। आईआईएसएस की डॉक्टर लूसी बेरॉड-सुड्रो कहती हैं, "उन दोनों के ग्राहक एक जैसे हैं, वे देश जिन्हें पश्चिमी देश हथियार नहीं बेचते।"
 
 
अफ़्रीकी संघर्ष
दुनिया में जहां हथियारों की बिक्री बढ़ रही है, अफ़्रीका वहां पर अपवाद बनकर सामने आया है। 2008-12 और 2013-17 में अफ़्रीकी देशों का हथियार आयात 22 फ़ीसदी गिरा है। लेकिन ये आंकड़े पूरी कहानी बयां नहीं करते। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियारों की बिक्री किसी डील के कुल मूल्य के आधार पर मापी जाती है। मगर इससे अफ्रीका में जारी संघर्षों, ख़ासकर दक्षिण सूडान के गृहयुद्ध में इस्तेमाल हो रहे छोटे और हल्के हथियारों को महत्व नहीं दिया जाता।
 
 
ऑलिवर फ़ीली-स्प्रॉग बताते हैं, "दक्षिण सूडान में लड़ाई में कमी देखने को नहीं मिल रही। ऐसा छोटे और हल्के हथियारों की खरीद के कारण हो रहा है। उदाहरण के लिए मशीन गन के कार्गो से लदे तीन जहाज़ सशस्त्र बलों के लिए बहुत अहम होंगे मगर वे आंकड़ों में जगह नहीं बना पाएंगे।"
 
 
प्रमुख हथियार निर्यातक
2014 में आर्म्स ट्रेड ट्रीटी (एटीटी) अस्तित्व में आई थी ताकि पारंपरिक हथियारों के अंतरराष्ट्रीय कारोबार को नियंत्रित किया जा सके। इसके तहत देशों को हथियारों के निर्यात पर नजर रखनी होती है और यह सुनिश्चित करना होता है कि इससे हथियारों को लेकर बने नियम और पाबंदियां न टूटें या फिर इनसे आतंकवाद समेत किसी भी तरह से मानवाधिकारों का उल्लंघन न हो। मगर आलोचक कहते हैं कि इस ट्रीटी का प्रभाव बहुत सीमित है।
 
 
ऑलिवर कहते हैं, "हमें इस बात से भी निराशा है कि बहुत कम देशों ने इसे लागू किया है। हमें लगता है कि अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस समेत कई देश सऊदी अरब और उसके सहयोगियों को हथियार बेचकर साफ़ तौर पर एटीटी के प्रावधानों का उल्लंघन कर रहे हैं।"
 
 
पिछले साल जुलाई में ब्रिटेन के हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि ब्रितानी सरकार का सऊदी अरब को हथियार बेचना क़ानूनी है। हालांकि कैंपेन अगेंस्ट द आर्म्स ट्रेड (सीएएटी) को इस आदेश के ख़िलाफ़ अपील करने का अधिकार दिया गया है और अब कोर्ट ऑफ़ अपील में इसकी सुनवाई होगी। ब्रितानी सरकार का कहना है कि वह निर्यात पर सबसे कड़ा नियंत्रण रखने वाले देशों में एक है।
 
 
सिपरी के पीटर वेज़ेमन कहते हैं, "एटीटी के कारण भले ही देशों के अलावा अन्य पक्षों तक हथियार पहुंचना कम हुआ है मगर अभी भी हथियारों के पूरे कारोबार पर इसका स्पष्ट प्रभाव नहीं दिख पाया है।"

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