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नरेन्द्र मोदी का रूस दौरा पश्चिम के लिए क्या मायने रखता है?

हमें फॉलो करें नरेन्द्र मोदी का रूस दौरा पश्चिम के लिए क्या मायने रखता है?

BBC Hindi

, सोमवार, 8 जुलाई 2024 (09:20 IST)
-ज़ुबैर अहमद (वरिष्ठ पत्रकार, लंदन से बीबीसी हिन्दी के लिए)
 
शुक्रवार को हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने रूस की राजधानी मॉस्को में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन से मुलाक़ात की। उनकी इस मुलाक़ात पर यूरोपीय नेताओं की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई है। ऐसे समय जब यूरोपीय देश गंभीरता से यूक्रेन को सैन्य और दूसरी सहायता देने में लगे हुए हैं, किसी भी यूरोपीय नेता के रूस दौरे को विश्वासघात के तौर पर देखा जा सकता है।
 
हंगरी को अक्सर ही यूरोप में एक अलग मुल्क के तौर पर भी देखा जाता है और ओरबान को कई लोग तानाशाह भी मानते हैं।
 
लेकिन इन सब के बीच एक सवाल यह भी है कि पश्चिमी देशों की भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 8 जुलाई और 9 जुलाई की रूस यात्रा पर कैसी और क्या प्रतिक्रिया है?
 
पश्चिमी देशों का मोदी की रूस यात्रा पर क्या है रुख़?
 
हालांकि अभी तक पश्चिमी देशों के नेताओं ने मोदी की इस यात्रा के बारे में खुलकर कोई भी टिप्पणी नहीं की है।
 
लेकिन गुरुवार को भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने कहा कि उनका देश रूस को जवाबदेह ठहराने के लिए मिलकर काम करने के बारे में भारत के साथ लगातार संपर्क में है।
 
ज़ाहिर तौर पर यूरोप और अमेरिका दोनों ही मोदी और पुतिन को एक साथ देखकर खु़श नहीं होंगे। तब जब कि पुतिन को लेकर दोनों का ही यह मानना है कि वही यूक्रेन में हमले से पैदा हुए यूरोपीय उथल-पुथल के ज़िम्मेदार हैं।
 
हालांकि आधिकारिक तौर पर यह कहा जा रहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रूसी राष्ट्रपति पुतिन के बुलावे पर 22वें भारत-रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन के लिए रूस की यात्रा कर रहे हैं।
 
पिछले तीन सालों के दौरान दोनों ही देशों के बीच कोई भी द्विपक्षीय बैठक नहीं हुई है।
 
मुलाक़ात का एजेंडा
 
बुधवार को रूस ने दोनों नेताओं के बीच एजेंडे के बारे में बात करते हुए कहा कि पुतिन और मोदी परंपरागत रूप से मैत्रीपूर्ण रूसी-भारतीय संबंधों के आगे विकास की संभावनाओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय एजेंडे के प्रासंगिक मुद्दों पर चर्चा करेंगे।
 
मोदी की रूस यात्रा से कई पश्चिमी देश असहज हैं। उनके मन में ऐसी आशंका है कि इस मुलाक़ात के और क्या मायने हो सकते हैं?
 
लंदन के किंग्स कॉलेज में दक्षिण एशियाई अध्ययन के जाने-माने स्कॉलर प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफ जैफरलॉट का कहना है कि मोदी की रूस यात्रा के भू-राजनीतिक आयाम हैं।
 
उन्होंने कहा, 'भारत रूस के साथ अपने संबंधों को विकसित करने के लिए बहुत उत्सुक है, न केवल सैन्य उपकरणों के मामले में रूस पर निर्भरता के कारण, बल्कि इसलिए भी कि भारत एक बहुध्रुवीय विश्व को बढ़ावा देना चाहता है।'
 
'जहां भारत सभी भागीदारों के साथ अपने हितों को बढ़ावा देने की स्थिति में हो।'
 
मोदी का रूस दौरा
 
प्रो. जैफरलॉट का मानना ​​है कि यह यात्रा रूस की चीन के साथ बढ़ती निकटता से भी जुड़ी हुई है। भारत और रूस के बीच ख़ास संबंध बनाए जाने से रूस और चीन के बीच मेल-मिलाप को कम किया जा सकता है।
 
मोदी 2019 में एक आर्थिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए रूस के शहर व्लादिवोस्तोक गए थे।
 
पुतिन और मोदी की आख़िरी मुलाक़ात 2022 में उज्बेकिस्तान में एससीओ शिखर सम्मेलन में हुई थी। वहीं पुतिन ने आख़िरी बार 2021 में दिल्ली का दौरा किया था।
 
मोदी की रूस यात्रा ऐसे समय में हो रही है, जब अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी रूस को वैश्विक स्तर पर अलग-थलग करने की कोशिश कर रहे हैं और देश पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं। उन्होंने उच्च स्तरीय बैठकों में भी भारी कटौती की है।
 
भारत का कहना है कि उसकी विदेश नीति 'रणनीतिक स्वायत्तता' और 'राष्ट्रीय हित' पर आधारित है। लेकिन पश्चिमी देशों में फैली रूस विरोधी भावनाओं को देखते हुए, क्या यह यात्रा भारत के रणनीतिक साझेदार अमेरिका को नाराज़ करने वाली है?
 
क्या मोदी की यात्रा से नाराज़ हो सकता है अमेरिका?
 
अमेरिका के बाल्टीमोर स्थित जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में अप्लाइड इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर स्टीव एच। हैंके का मानना है कि रूस के भारत के साथ ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। हेन्के राष्ट्रपति रीगन की आर्थिक सलाहकार परिषद में भी रह चुके हैं।
 
उन्होंने कहा, 'प्रधानमंत्री मोदी और भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर दोनों के बयानों को देखते हुए यह साफ़ है कि भारत सभी देशों के साथ अच्छे संबंध चाहता है।
 
ख़ास तौर पर रूस के साथ। क्योंकि यह एक ऐसा देश है, जिसके साथ भारत के सोवियत काल से ही अच्छे संबंध रहे हैं।'
 
भारत-रूस की पुरानी दोस्ती
 
1960 के दशक से 1980 के दशक तक भारत में पले-बढ़े किसी भी व्यक्ति को सोवियत प्रभाव से बचना असंभव जैसा था। भारत के कई सारे बड़े स्टील प्लांट रूस ने स्थापित किए थे। यहां तक कि भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों में भी रूस ने मदद की थी।
 
मुश्किल हालात में भी सोवियत रूस भारत के साथ खड़ा था। सोवियत रूस ने ही 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच ऐतिहासिक ताशकंद समझौता कराया था।
 
अगर कोई भी भारतीय रूस जाता है तो वह बीते ज़माने के मशहूर भारतीय फ़िल्म अभिनेता राजकपूर का ज़िक्र किए बिना नहीं रह सकता।
 
जब पुतिन 2000 में पहली बार राष्ट्रपति चुने गए थे, उस साल दोनों देशों ने रणनीतिक साझेदारी पर घोषणापत्र के तहत रक्षा, अंतरिक्ष और आर्थिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे।
 
एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली सौदा और ऊर्जा सहयोग आधुनिक समय में चल रही कोशिशों की एक मिसाल है। इन जटिलताओं से निपटते हुए, भारत और रूस में अपने संबंधों को और अधिक गहरा बनाने की क्षमता है।
 
जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि बदलती वैश्विक परिस्थितियों के बीच भी यह मजबूत बनी रहे। दक्षिणपंथी विचारक डॉ। सुव्रोकमल दत्ता कहते हैं कि भारत-रूस संबंध अब अपने चरम पर हैं।
 
वे कहते हैं, 'भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा एक नई, बदलती भू-राजनीतिक विश्व व्यवस्था की शुरुआत करेगी। जिसकी वजह से कई नए संयोजन उभरकर सामने आएंगे।'
 
भारत की 'तटस्थता': पश्चिम के लिए निराशा?
 
पश्चिमी देशों की जनता ने कई बार इस बात पर अफसोस जताया है कि एक मज़बूत लोकतंत्र के रूप में भारत ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के हमले की निंदा नहीं की है।
 
हालांकि भारत की तटस्थता को अक्सर रूस के पक्ष में होने के बराबर माना जाता है। लेकिन, भारत में कई लोगों का मानना ​​है कि जब रूस की बात आती है, तो पश्चिमी मीडिया अपनी तटस्थता खो देता है।
 
डॉ। दत्ता कहते हैं, 'पश्चिमी देशों की यह अपेक्षा कि भारत यूक्रेन के ख़िलाफ़ युद्ध में रूस की निंदा करे, किसी भी हालत में पूरी नहीं होने वाली है। भारत के लिए सबसे अहम उसका अपना सर्वोच्च राष्ट्रीय हित है।'
 
फिर भी, पश्चिमी देश भारत-रूस संबंधों के मज़बूत होने और यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की निंदा करने में भारत की अनिच्छा को लेकर चिंतित हैं।
 
संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ के सदस्य भारत के रुख़ को रूस को कूटनीतिक और आर्थिक रूप से अलग-थलग करने के उनके प्रयासों को जटिल बनाने वाला मानते हैं।
 
आख़िर क्यों चिंतित हैं पश्चिमी देश?
 
अमेरिका और यूरोपीय देशों को चिंता है कि व्यापार और रक्षा सहयोग सहित रूस के साथ भारत की निरंतर भागीदारी, यूक्रेन में रूस की आक्रामकता को रोकने के लिए मजबूर करने के उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय दबाव अभियान को कमजोर करती है।
 
वे चाहते हैं कि भारत, जो रूस से अपने ऊर्जा आयात का बड़ा हिस्सा ख़रीदता है वो अमेरिका के नेतृत्व वाले प्रतिबंधों का सम्मान करे। भारत जानता है कि यह एक जटिल मुद्दा है।
 
भारत संवाद और कूटनीति की वकालत करते हुए अपने रणनीतिक हितों और ऊर्जा सुरक्षा ज़रूरतों के बीच संतुलन बनाने के लिए अपने कौशल पर निर्भर करता है।
 
इस साल की शुरुआत में, सेंटर फोर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (CREA) ने रूस से भारत के कच्चे तेल के आयात पर अपना विश्लेषण जारी किया, जो फरवरी 2022 में रूस के यूक्रेन पर आक्रमण करने के समय से 13 गुना बढ़ गया था।
 
यही वजह है जो भारत और रूस के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2023-24 में 64 अरब डॉलर तक बढ़ गया। इसमें भारत का निर्यात केवल चार अरब डॉलर है।
 
पश्चिमी मीडिया में यह व्यापक रूप से बताया गया है कि यूक्रेन में हमले से पहले की तुलना में रूस आज ज़्यादा समृद्ध है। इसके पीछे पश्चिमी मीडिया काफ़ी हद तक भारत और चीन को ज़िम्मेदार मानता है। दोनों ही देश रूसी कच्चे तेल के बड़े ख़रीदार हैं।
 
क्या रूस पर लगाए गए प्रतिबंध काम कर रहे हैं?
 
तो, क्या कोई यह कह सकता है कि रूस को यूक्रेन के ख़िलाफ़ युद्ध के लिए धन मुहैया कराने से रोकने के लिए लगाए गए पश्चिमी प्रतिबंध काम नहीं कर रहे हैं?
 
विदेश मंत्री एस। जयशंकर ने दो साल पहले वॉशिंगटन में पत्रकारों को एक ज़ोरदार जवाब दिया था, जब उन्होंने बताया था कि प्रतिबंधों के बावजूद, पश्चिम भारत की तुलना में रूस से ज़्यादा कच्चा तेल आयात कर रहा है।
 
उस समय उन्होंने कहा था, 'अगर आप रूस से ऊर्जा ख़रीद पर बात कर रहे हैं, तो मेरा सुझाव है कि आपका ध्यान यूरोप पर केंद्रित होना चाहिए। हम मामूली मात्रा में ऊर्जा ख़रीदते हैं जो हमारी ऊर्जा सुरक्षा के लिए ज़रूरी है। भारत रूस से जितना तेल महीनों में ख़रीद रहा है, यूरोप उतना एक रात में ख़रीद रहा है।''
 
प्रो। हैंके अमेरिका में उन विशेषज्ञों की बढ़ती तादाद में से एक हैं जो मानते हैं कि प्रतिबंध काम नहीं करते। वह कहते हैं, 'मैं प्रतिबंधों और मुक्त व्यापार में हस्तक्षेप का विरोधी हूँ - सैद्धांतिक रूप में और व्यावहारिक रूप से भी।'
 
'प्रतिबंध लगभग कभी भी उस तरह से काम नहीं करते जैसा कि अपेक्षित होता है। तेल प्रतिबंधों पर, भारत का दृष्टिकोण मेरा दृष्टिकोण है।'
 
हालांकि प्रो। जैफरलॉट हैंके की बात का विरोध करते हैं। उनका कहना है, 'मैं इससे असहमत हूं। पश्चिम में बहुत से लोग कुछ अलग कहते हैं।'
 
'प्रतिबंध कारगर नहीं होते क्योंकि वे पूरी तरह से काम नहीं कर पाते। खास तौर पर भारत और यूरोपीय संघ के देशों में जो रूस को तेल बेचने में सहायता करते हैं।'
 
'लेकिन क्या इस तरह की प्रथाएं विवाद की वजह बनेंगी यह देखा जाना अभी भी बाकी है।'
 
अगर ट्रंप राष्ट्रपति बनते हैं तो क्या होगा?
 
लेकिन क्या होगा अगर डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में वापस आ गए? जो इस समय संभावित लग भी रहा है। इस संभावना पर फ़्रांसीसी विद्वानों ने भारत को चेताया है।
 
चीन ऐसी हरकतें कर सकता है जो कि हिमालय में क्षेत्रीय अखंडता के लिए भारत के पक्ष में नहीं होंगी।
 
हालांकि पुतिन के शासन में रूस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, खास तौर पर पश्चिमी देशों से, अलग-थलग पड़ने का सामना भी करना पड़ा है।
 
2014 में यूक्रेन पर आक्रमण और क्राइमिया पर कब्ज़ा करने जैसी कार्रवाइयों के बाद पश्चिमी देशों ने रूस के ख़िलाफ़ सख़्ती बरती है।
 
इन कार्रवाइयों के चलते रूस को अमेरिका, यूरोपीय संघ और दूसरे सहयोगियों की ओर से व्यापक प्रतिबंध और कूटनीतिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है।
 
हालांकि रूस ने चीन, भारत, मध्य पूर्व और अफ्रीका के कई देशों के साथ मज़बूत संबंध बनाए हैं। इससे पश्चिमी अलगाव के असर को कम करने में मदद मिली है।
 
प्रोफ़ेसर स्टीव हैंके का मानना ​​है कि मोदी और दूसरे नेताओं का रूसी राजधानी में आना रूस या पुतिन के अलग-थलग पड़ने का संकेत नहीं है।
 
वे कहते हैं, 'यह एक बढ़िया विचार है कि मोदी और पुतिन आमने-सामने मिल रहे हैं। असली कूटनीति इसी तरह से संचालित होती है।'
 
वहीं प्रो। क्रिस्टोफ़ जैफ़रलॉट का मानना ​​है कि पुतिन ज़्यादातर निरंकुश शासन के क़रीब हैं।
 
जैसा कि रूस के अफ्रीकी तानाशाहों, ईरान, चीन आदि के साथ विकसित किए गए घनिष्ठ संबंधों से स्पष्ट है। हंगरी रूस से नज़दीकी रखने वाला अकेला यूरोपीय संघ का देश है। हंगरी यह आज यूरोपीय संघ का सबसे उदारवादी देश है।
 
लेकिन भारत को लेकर उन्होंने कहा, 'लोकतंत्र की ग़ैरमौजूदगी के संदर्भ में एक जैसी समानताओं के चलते भारत के रूस के साथ अच्छे संबंध बने रह सकते हैं।'
 
'लेकिन इसके साथ ही भारत की कोशिश पश्चिमी देशों और उसके प्रभुत्व के ख़िलाफ़ वैश्विक दक्षिण के नेता के रूप में दिखने की भी है।'
 
कई लोगों का मानना ​​है कि रूस के ख़िलाफ़ अमेरिकी प्रतिबंध पुतिन को अलग-थलग करने में काफी हद तक विफल रहे हैं। भारत, हंगरी और चीन के नेताओं को रूस से परहेज नहीं है।(फ़ाइल चित्र)

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