कमलेश मठेनी, बीबीसी संवाददाता
पिछले कुछ दिनों में मूनलाइटिंग को लेकर चर्चा तेज़ हो गई है क्योंकि इसे लेकर टेक कंपनी इंफोसिस ने अपने कर्मचारियों के लिए चेतावनी जारी की है। कंपनी ने कर्मचारियों से ई-मेल में कहा कि कर्मचारी नियमों के मुताबिक मूनलाइटिंग की अनुमति नहीं होगी और इसका उल्लंघन करने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। इसके तहत नौकरी से भी निकाला जा सकता है।
वहीं, विप्रो के चेयरमैन रिशद प्रेमजी ने भी मूनलाइटिंग का विरोध करते हुए इसे धोखेबाज़ी बताया था। उन्होंने ट्वीट किया था, ''टेक इंडस्ट्री में लोगों के मूनलाइटिंग करने की काफ़ी चर्चा है। ये साफ़तौर पर धोखेबाज़ी है।''
इसी कड़ी में लाखों कर्मचारियों वाली जानीमानी टेक कंपनी आईबीएम का नाम भी जुड़ गया है। आईबीएम ने भी मूनलाइटिंग को अनैतिक करार दिया है। कंपनी ने बुधवार को मूनलाइटिंग को अनैतिक बताते हुए बयान जारी किया।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक आईबीएम के भारत और दक्षिण एशिया में प्रबंध निदेशक संदीप पाटिल ने कहा कि कंपनी में नौकरी करने से पहले कर्मचारी एक अनुबंध पर साइन करते हैं कि वो सिर्फ़ आईबीएम के लिए काम करेंगे।
उन्होंने कंपनी के एक इवेंट में रिपोर्ट्स से कहा, ''लोग अपने बाकी समय में जो चाहे कर सकते हैं लेकिन, इसके बावजूद मूनलाइटिंग करना नैतिक रूप से सही नहीं है।''
कंपनियां मूनलाइटिंग के कारण उत्पादकता पर असर पड़ने और कंपनी को नुक़सान होने की बात करती हैं। उनका कहना है कि इससे कर्मचारी की उत्पादकता पर असर पड़ता है।
क्या है मूनलाइटिंग
दरअसल, मूनलाइटिंग का मतलब है कि जब कोई कर्मचारी अपनी नियमित नौकरी के अलावा कोई और काम भी करता हो। ये काम एक से ज़्यादा भी हो सकते हैं। आईटी क्षेत्र में ही नहीं बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी लोग नौकरी के अलावा भी आमदनी बढ़ाने के लिए दूसरे काम करते हैं। इसे फ्रीलांसिंग भी कहा जाता है।
इसे मूनलाइटिंग इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि आमतौर पर लोग दिन में आठ से नौ घंटे काम करते हैं और रात को अपना दूसरा काम करते हैं। हालांकि, दूसरे काम के लिए कोई तय वक़्त नहीं होता है। रात की शिफ़्ट करने वाले भी दोपहर में दूसरा काम करते हैं।
मूनलाइटिंग में कोई भी काम हो सकता है। जैसे कुछ लोग अपने मूल काम से मिलते-जुलते प्रोजेक्ट ही बाहर से लेते हैं। कोई रात में डिलीवरी का काम करता है तो कोई वेटर का। कोई अनुवाद, डबिंग, लेखन, वेबसाइट बनाना, मार्केटिंग और कंसल्टेंट के तौर पर भी काम करते हैं।
इसमें आमतौर पर नियोक्ता को कर्मचारी के दूसरा काम या नौकरी करने की जानकारी नहीं होती। कंपनियों में इसे लेकर अलग-अलग नियम देखने को मिलते हैं।
बंटी हुई है राय
हालांकि, मूनलाइटिंग को लेकर सभी की राय एक जैसी नहीं है। इंफ़ोसिस के पूर्व निदेशक मोहनदास पई मूनलाइटिंग को धोखेबाजी नहीं मानते हैं।
उन्होंने अंग्रेज़ी वेबसाइट बिज़नेस टुडे से कहा, ''नौकरी एक नियोक्ता के साथ एक अनुबंध होता है जो मुझे एक दिन में कई घंटों के काम के लिए भुगतान करता है। उस दौरान मैं उनके नियमों से बंधा होता हूं, जिसमें क्लाइंट की गोपनियता भी शामिल है। इसके बाद मैं क्या करता हूं ये मेरी आज़ादी है। मैं जो चाहूं वो कर सकता हूं।''
इससे पहले फूड डिलीवरी स्टार्ट-अप स्वीगी ने अपने कर्मचारियों को मूनलाइटिंग की सुविधा देने की घोषणा की थी।
स्विगी ने कहा था, ''दफ़्तर के काम के घंटों के अलावा या हफ़्ते के अंत में कर्मचारी उत्पादका को प्रभावित किए बिना, हितों के टकराव के बिना कोई भी प्रोजेक्ट या एक्टिविटी कर सकते हैं।''
नियोक्ताओं के मूनलाइटिंग को लेकर अपनी-अपनी राय है। कोई मानता है कि इससे कर्मचारी कंपनी के काम पर पूरा ध्यान नहीं देते। वो छुट्टियां ज़्यादा लेते हैं और जो सप्ताहांत उन्हें आराम करने के लिए दिए जाते हैं उसमें भी वो काम करते हैं जिससे कंपनी में उनकी उत्पादकता प्रभावित होती है।
वहीं, कुछ इसे कर्मचारियों की आज़ादी का मसला मानते हैं। उनका कहना होता है कि कर्मचारी कंपनी के नियमों से केवल काम के घंटों के दौरान ही बंधा होता है। इसके बाद कंपनी के नियम उस पर लागू नहीं होते तो वो कुछ और काम करने के लिए स्वतंत्र है।
लेकिन, मूनलाइटिंग करने वाले इसे लेकर क्या कहते हैं। वो नौकरी होते हुए दूसरा काम करने का विकल्प क्यों चुनते हैं?
लोग क्यों करते हैं मून लाइटिंग
एक आईटी कंपनी में काम करने वाले अमन वर्मा (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि दूसरा काम करने की एक बड़ी वजह अतिरिक्त आमदनी होती है। लेकिन, इसके दूसरे कारण भी हो सकते हैं।
अमन कहते हैं, ''एक वजह ये भी है कि दफ़्तर में आपकी भूमिका निर्धारित और सीमित है। जैसे हमारे काम में सॉफ़्टवेयर डेवलपमेंट और टेस्टिंग दोनों हैं। लेकिन, अगर किसी वजह से मुझे सॉफ़्टवेयर टेस्टर के तौर पर करियर शुरू करना पड़ा। पर मैं सॉफ़्टवेयर डेवलपमेंट भी जानता हूं जिसका मौका मुझे कंपनी में मौका नहीं मिल रहा। फ्रीलांसिंग में ऐसे प्रोजेक्ट ढूंढ सकते हो जिसमें आपको अपनी दूसरी क्षमताएं इस्तेमाल करने का मौका मिलेगा।''
अमन का कहना है कि फ्रीलांसिंग नौकरी नहीं है। इसमें ज़्यादा से ज़्यादा टीडीएस कटता हैं लेकिन, पीएफ़ या ग्रैच्युटी नहीं होती। ये कभी भी ख़त्म हो सकती है। ऐसे में इसे दो नौकरियां नहीं कह सकते। कंपनियों को इसके लिए नहीं रोकना चाहिए।
वह कहते हैं कि लोगों में आर्थिक सुरक्षा को लेकर भी डर बढ़ा है। कोरोना महामारी में कई मौते हुई हैं और ऐसा दोबारा भी हो सकता है। इसलिए भी लोग ज़्यादा पैसा कमाना चाहते हैं।
इसी तरह वीडियो एडिटिंग का काम करने वाली अर्चना सिंह भी फ्रीलांसिंग करती हैं। उन्होंने अपने करियर के शुरुआती दिनों में खुद की एडिटिंग मशीन खरीदकर फ्रीलांसिंग का काम लिया था।
नाम बदलने की शर्त पर अर्चना बताती हैं, ''मैं जब मुंबई में आई थी तो मेरी तनख़्वाह बहुत ज़्यादा नहीं था। इसमें मुंबई का खर्चा और किराया निकालना आसान नहीं था। इसलिए मैंने बाहर से काम लेना शुरू किया। इससे एक फ़ायदा ये भी होता है कि काम में आपका हाथ और साफ़ हो जाता है। कई बार मुश्किल प्रोजेक्ट भी मिलते हैं तो नया सीख पाते हैं।''
अर्चना के कुछ सहकर्मी भी फ्रीलांसिंग करते हैं। वो बताती हैं, ''लॉकडाउन में वर्क फ्रॉम होम के दौरान ये चलन काफ़ी बढ़ा है। लोगों का आने-जाने का समय बच रहा था। फिर कई लोग अपने घर चले गए जहां घरेलू ज़िम्मेदारियां कम हो गईं। उनके पास समय था तो वो कुछ और काम भी करने लगे।''
मूनलाइटिंग को लेकर नियमों की बात करें तो भारत में इसे लेकर कोई तय नियम नहीं है। लेकिन, कंपनियां अनुबंध में इससे जुड़े नियम और शर्तें रखती करती हैं।
कई कंपनियां अनुबंध में इसकी इजाज़त नहीं देतीं तो कुछ कंपनियां शर्तों के साथ अनुमति देती हैं। इसके तहत हितों का टकराव ना होना, कंपनी के काम के घंटों में दूसरे काम को समय ना देना और गोपनीयता जैसी शर्तें रखी जाती हैं।