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इसराइल-फ़िलस्तीनी विवाद: जब गांधी ने कहा था- अगर मैं यहूदी होता तो...

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BBC Hindi

, गुरुवार, 27 मई 2021 (12:19 IST)
कुमार प्रशांत (बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए)
 
10 मई 2021 को शुरू इसराइल-फ़िलस्तीनी युद्ध 11 दिनों तक चला और इसमें 60 से ज़्यादा फ़िलस्तीनी बच्चों समेत 248 नागरिकों की मौत हुई और 2 हज़ार लोग घायल हुए। इसी दौरान फ़िलस्तीनी रॉकेटों से 2 बच्चों समेत 12 इसराइली नागरिकों की भी मौत हुई। अब युद्धविराम की घोषणा हो चुकी है।
 
युद्धविराम की घोषणा किसने की, यह सवाल उतना ही बेमानी है जितना यह कि युद्ध की घोषणा किसने की। इन दोनों के बीच युद्ध का भी, विराम का भी और फिर युद्ध का अंतहीन सिलसिला है जिसके पीछे इन 2 के अलावा वे सभी हैं जो युद्ध और विराम दोनों से मालामाल होते हैं।
 
अमेरिका के विदेश-सचिव एंटनी ब्लिंकेन ने युद्धविराम के तुरंत बाद दोनों पक्षों के साथ सौहार्दपूर्ण मुलाक़ात की और कहा कि अमेरिका इसराइल की सुरक्षा, शांति व सम्मान के प्रति वचनबद्ध है। उन्होंने यह भी कहा कि बमों की मार से तार-तार हुए ग़ाज़ा शहर की मरहम पट्टी तथा फ़लस्तीनियों के संपूर्ण विकास के लिए अमेरिका 75 अरब डॉलर की मदद देगा।
 
इसराइल-फ़िलस्तीनी विवाद की कहानी के शुरुआत से ही यहूदियों के बहाने महात्मा गांधी की इस पर गहरी नज़र रही थी। वे ख़ास तौर पर यूरोप में यहूदियों की दशा से काफ़ी प्रभावित हुए थे।
 
1938 में सीमांत प्रदेश के दौरे से लौटने के बाद उन्होंने इस विषय पर अपना पहला संपादकीय 'ईसाइयत के अछूत' नाम से लिखा, 'मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है। मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको क़रीब से जानता हूं। उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनकी साथ हुई ज़्यादतियों के बारे में जाना है। ये लोग ईसाइयत के अछूत बना दिए गये हैं। अगर तुलना ही करनी हो तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है वैसा हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया है।'
 
'निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं। लेकिन उनके साथ की गहरी मित्रता मुझे न्याय देखने से रोक नहीं सकती है। इसलिए यहूदियों की 'अपना राष्ट्रीय घर' की मांग मुझे जंचती नहीं है। इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फ़िलस्तीनी इलाक़े में लौटने की बात उठाई जा रही है। लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जन्मे हैं और जहां से अपनी रोजीरोटी कमाते हैं, उसे ही अपना घर मानें?'
 
ईसाइयों का यहूदियों से अछूत जैसा व्यवहार
 
महात्मा गांधी का कहना था कि 'फ़िलस्तीनी जगह उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेज़ों का है या फ्रांस फ्रांसीसियों का है। यह ग़लत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए। उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जन्मे हैं और कमा-खा रहे हैं वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो। अगर यहूदियों को फ़िलस्तीनी जगह ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं? या कि वे अपने मनमौज के लिए अपना 2 घर चाहते हैं? 'अपने लिए एक राष्ट्रीय घर' के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था।'
 
'जर्मनी में यहूदियों के साथ जो हुआ उसका तो इतिहास में कोई सानी नहीं है। पुराने समय का कोई आतातायी जिस हद तक कभी गया नहीं, लगता है हिटलर उस हद तक गए हैं, और वह भी धर्म-कार्य के उत्साह के साथ; ऐसे कि जैसे वह एक खास तरह के शुद्ध धर्म और फौजी राष्ट्रीयता की स्थापना कर रहे हैं जिसके नाम पर सारे अमानवीय कार्य, मानवीय कार्य बन जाते हैं, जिसका पुण्य यहीं अभी या फिर बाद में कभी मिलेगा ही… मानवता के नाम पर और उसकी स्थापना के लिए यदि कभी कोई ऐसा युद्ध हुआ हो जिसका निर्विवाद औचित्य हो तो वह जर्मनी के ख़िलाफ़ किया गया महायुद्ध है जिसने एक पूरी जाति के समग्र विनाश को रोका। लेकिन मैं किसी भी युद्ध में विश्वास नहीं करता हूं। इसलिए ऐसे युद्ध के औचित्य या अनौचित्य का विमर्श ही मेरे मानस-पटल पर समाता नहीं है।'
 
'जर्मनी ने दुनिया को दिखा दिया है कि हिंसा जब मानवीयता आदि दिखावटी कमज़ोरियों से पूरी तरह मुक्त हो जाती है तब वह कितनी 'कुशलता' से काम कर सकती है। वह यह भी बताती है कि नग्न हिंसा कितनी पापजन्य, क्रूर और डरावनी हो सकती है।'
 
'क्या यहूदी इस संगठित और बेहया दमन का मुक़ाबला कर सकते थे? क्या कोई रास्ता है कि जिससे वे अपना आत्मसम्मान बचा सकते थे ताकि वे इतने असहाय, उपेक्षित व अकेले नहीं पड़ते? मैं कहूंगा हां, है! जिस भी व्यक्ति में ईश्वर के प्रति पूर्ण जीवित श्रद्धा होगी वह कभी इतना असहाय व अकेला महसूस कर ही नहीं सकता है। यहूदियों का यहोवा ईसाइयों, मुसलमानों या हिंदुओं के भगवान से कहीं ज़्यादा मनुष्यपरस्त है, हालांकि सच तो यह है कि आत्मत: वह तो सभी में है और समान है; और किसी भी कैफ़ियत से परे है। लेकिन यहूदी परंपरा में ईश्वर को ज़्यादा मानवी स्वरूप दिया गया है और माना जाता है कि वह उनके सारे कार्यकलापों का नियमन करता है, तो उन्हें इतना असहाय महसूस ही क्यों करना चाहिए।'
 
अगर गांधी यहूदी होते तो क्या करते?
 
महात्मा गांधी का कहना था, 'यदि मैं यहूदी होता और जर्मनी में पैदा हुआ होता और वहां से आजीविका पाता होता तो मैं दावा करता कि जर्मनी मेरा वैसा ही घर है जैसा कि यह किसी लंबे-चौड़े शक्तिशाली जर्मन का घर है; और मैं उसे चुनौती देता कि तुम मुझे गोली मार 2 या तहखानों में बंदी बना दो, मैं यहां से कहीं निकाले जाने या किसी भी भेद-भावपूर्ण व्यवहार को स्वीकारने को तैयार नहीं हूं। और मैं इसका इंतजार नहीं करता कि दूसरे यहूदी भी आएं और इस सिविल नाफ़रमानी में मेरा साथ दें बल्कि इस विश्वास के साथ मैं अकेला ही आगे बढ़ जाता कि अंतत: तो सभी मेरे ही रास्ते पर आएंगे।'
 
'मेरे बताए इस नुस्खे का इस्तेमाल यदि एक यहूदी ने भी किया होता या सारे यहूदियों ने किया होता तो उनकी हालत आज जितनी दयनीय है, उससे अधिक तो नहीं ही होती।'
 
'दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की ठीक वैसी ही स्थिति थी जैसी जर्मनी में यहूदियों की है। और वहां भी दमन को एक धार्मिक रंग दिया गया था। राष्ट्रपति क्रूजर कहा करते थे कि गोरे ईसाई ईश्वर की चुनी संतानें हैं जबकि भारतीय लोग हीन योनि के हैं जिन्हें गोरों की सेवा के लिए बनाया गया है। ट्रांसवाल के संविधान में एक बुनियादी धारा यह थी कि गोरों और कालों के बीच, जिनमें सारे एशियाई भी शामिल हैं, किसी तरह की समानता नहीं बरती जाएगी।'
 
द. अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों से तुलना
 
'दक्षिण अफ़्रीका में भी भारतीयों को उनके द्वारा निर्धारित बस्तियों में ही रहना पड़ता था जिसे वे 'लोकेशन' कहते थे। दूसरी सारी असमानताएं क़रीब-क़रीब वैसी ही थीं जैसी जर्मनी में यहूदियों के साथ बरती जाती हैं। और वहां, उस परिस्थिति में मुट्ठी भर भारतीयों ने सत्याग्रह का रास्ता लिया जिन्हें न बाहरी दुनिया का और न भारत सरकार का कोई समर्थन था। 8 साल चली लड़ाई के बाद जाकर कहीं विश्व जनमत और भारत सरकार सहायता के लिए आगे आयी।'
 
'लेकिन जर्मनी के यहूदी दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की तुलना में कहीं ज़्यादा बेहतर स्थिति में हैं। यहूदी जाति जर्मनी में एक संगठित जमात है। दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की तुलना में वे ज़्यादा हुनरमंद हैं और अपनी लड़ाई के पीछे वे विश्व जनमत जुटा सकते हैं। मुझे विश्वास है कि यदि उनमें से कोई साहस व समझ के साथ उठ खड़ा होगा और अहिंसक कार्रवाई में उनका नेतृत्व करेगा तो पलक झपकते ही निराशा के उनके सर्द दिन गर्माहट की आशा में दमक उठेंगे।'
 
'मुझे इसमें कोई शक ही नहीं है कि फ़िलस्तीनी इलाक़े में रहने वाले यहूदी ग़लत रास्ते जा रहे हैं। बाइबिल में जिस फ़िलस्तीन की बात है, उसका तो आज कोई भौगोलिक आकार नहीं है। अरबियों की सदाशयता से ही वे यहां बस सकते हैं। उन्हें अरबियों का दिल जीतने की कोशिश करनी चाहिए। अरबियों के दिल में भी वही ईश्वर बसता है जो यहूदियों के दिल में बसता है। वे अरबियों के सामने सत्याग्रह करें और उनके ख़िलाफ़ एक अंगुली भी उठाए बिना खुद को समर्पित कर दें कि वे चाहें तो उन्हें गोलियों से भून डालें या समुद्र में फेंक दें।'
 
'मैं अरबों द्वारा की गई ज़्यादतियों का बचाव नहीं कर रहा हूं लेकिन मैं ज़रूर मानता कि वे सही ही अपने देश पर की जा रही अनुचित दखलंदाजी का विरोध कर रहे हैं। मैं यह भी चाहता हूं कि वे अहिंसक तरीके से इसका मुक़ाबला करते। लेकिन सही और ग़लत की जो सर्वमान्य व्याख्या बना दी गई है, उस दृष्टि से देखें तो बड़ी प्रतिकूलताओं के समक्ष अरबों ने जिस रास्ते प्रतिकार किया है, उसकी आलोचना कैसे करेंगे आप...इसलिए अब यहूदियों पर ही है कि वे अपनी जातीय श्रेष्ठता का जैसा दावा करते हैं, उसे अहिंसक तरीके अपना कर संसार के सामने प्रमाणित करें।'
 
जब गांधी का जर्मनी में काफ़ी विरोध हुआ था
 
ऐसे बयान का जो होना ही था, वही हुआ। जर्मनी में गांधी के तीखे विरोध की आंधी उठी।
 
गांधी ने फिर कहा, 'जर्मनी में यहूदियों के साथ हो रहे व्यवहार के बारे में मेरे लेख की जैसी क्रोध भरी प्रतिक्रिया वहां हुई है, मैं उसकी अपेक्षा कर ही रहा था। मैंने तो यूरोप की राजनीति के बारे में अपना अज्ञान पहले ही कबूल कर लिया था। लेकिन यहूदियों की बीमारी का इलाज बताने के लिए मुझे यूरोप की राजनीति का जानकार होने की जरूरत ही कहां थी! उन पर किए जा रहे जुर्म विवाद से परे हैं। मेरे लेख पर उनका ग़ुस्सा जब कम होगा और उनकी मन:स्थिति किसी हद तक शांत होगी तब मुझसे सबसे अधिक क्रोधित जर्मन भी यह पहचान सकेगा कि मैंने जो कुछ लिखा है उसके भीतर जर्मनों के लिए दुर्भावना नहीं, मित्रता का सोता ही बह रहा है।'
 
'यह कहना कि मेरे लेख से न मेरा, न मेरे आंदोलन का, न भारत-जर्मनी संबंधों का कोई भला हुआ, मुझे किसी मतलब का तर्क नहीं लगता है बल्कि मुझे इसमें धमकी जैसा भी कुछ छिपा लगता है। मैं ख़ुद को कायर समझूंगा यदि मैं ख़ुद को, अपने देश को या भारत-जर्मनी संबंधों को नुक़सान पहुंचने के डर से वह सलाह न दूं जो मुझे अपने दिल की गहराइयों से सौ फीसदी सच्ची लगती है।'
 
'बर्लिन के उस लेखक ने तो कमाल का यह सिद्धांत बना दिया है कि जर्मनी के बाहर के किसी भी व्यक्ति को, दोस्ताना भाव से भी, जर्मनी के किसी कदम की आलोचना नहीं करनी चाहिए। मैं अपने लिए तो कह ही सकता हूं कि जर्मनी या किसी भी देश का कोई भी आदमी भारत की आलोचना के लिए कोई दूर की कौड़ी भी खोज लाए तो मैं उसका स्वागत करूंगा।'
 
1946 के मध्य में गांधी अपने पसंदीदा आरामगाह पंचगनी पहुंचे तो 14 जुलाई 1946 को यहूदी और फ़िलस्तीन शीर्षक से संपादकीय लिखा।
 
उन्होंने लिखा, 'यहूदियों और अरबों के बीच के विवाद पर सार्वजनिक तौर पर कुछ कहने से अब तक मैं बचता रहा हूं, और इसके कारण हैं। कारण यह नहीं है कि मेरी इस मामले में दिलचस्पी नहीं है बल्कि कारण यह है कि मुझे लगता रहा है कि इस बारे में मेरी जानकारी पर्याप्त नहीं है। ऐसे ही कारण से मैं कई अंतरराष्ट्रीय सवालों पर अपनी बात कहने से बचता हूं। वैसे ही मेरे पास जान जलाने को कुछ कम तो है नहीं! लेकिन एक अख़बार में छपी चार पंक्तियों की खबर ने मुझे अपनी चुप्पी तोड़ने पर मजबूर कर दिया और वह भी तब जब एक मित्र ने उसकी तरफ मेरा ध्यान खींचते हुए, मुझे वह कतरन भेजी।'
 
'मैं मानता हूं कि संसार ने यहूदियों के साथ बहुत क्रूर जुल्म किया है। जहां तक मैं जानता हूं, यूरोप के बहुत सारे हिस्सों में यहूदी बस्तियों को 'घेटो' कहा जाता है। उनके साथ जैसा निर्दयतापूर्ण बर्ताव हुआ, वह नहीं हुआ होता तो इनके फ़िलस्तीनी इलाक़े में लौटने का कोई सवाल ही कभी पैदा नहीं होता। अपनी विशिष्ट प्रतिभा और देन के कारण सारी दुनिया ही उनका घर होती।'
 
'लेकिन उनकी बहुत बड़ी ग़लती यह हुई कि उन्होंने फ़िलस्तीनी इलाक़े पर ख़ुद को जबरन थोप दिया - पहले अमेरिका और ब्रिटेन की मदद से, और अब नंगे आतंकवाद की ताक़त से! उनकी विश्व नागरिकता उनको संसार के किसी भी देश का सम्मानित नागरिक बना सकती थी। उनकी कुशलता, उनकी बहुमुखी प्रतिभा और सूझबूझ से काम करने की उनकी महान क्षमता का स्वागत कौन नहीं करता! ईसाई समाज के माथे पर यह काला धब्बा है कि उसने 'न्यू टेस्टामेंट' का ग़लत अध्ययन और उसकी ग़लत व्याख्या कर के यहूदी समाज को निशाना बनाया कि एक यहूदी कोई गलती करता है तो सारे यहूदी समाज को उसका अपराधी माना जाएगा। यदि आइंस्टाइन जैसा एक यहूदी कोई महान आविष्कार करता है या कोई संगीतकार अश्रुतपूर्व संगीत रचता है तो उसे एक व्यक्ति की उपलब्धि माना जाएगा, नहीं कि उसका श्रेय उनके समुदाय को भी दिया जाएगा।'
 
'किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि यहूदियों को जैसी तकलीफ़देय स्थिति में डाल दिया गया है, उस कारण मेरी सहानुभूति उनके साथ है। लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि प्रतिकूल परिस्थितियां हमें शांति का पाठ भी तो पढ़ाती हैं! जहां उनका सहज स्वागत नहीं है वैसी जगह जाने और वहां के लोगों पर खुद को अमरीकी दौलत व ब्रिटिश हथियारों के बल पर थोप देने की ज़रूरत ही क्या थी? फ़िलस्तीनी धरती पर अपनी जबरन उपस्थिति को मज़बूत बनाने के लिए आतंकवादी उपायों का भी सहारा लेना यहूदियों को कैसे सुहाया?'
 
गांधी ने जताई थी आशंका
 
5 मई 1947 को समाचार एजेंसी 'रायटर' के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर से इस तरफ खींचा कि फ़िलस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते हैं?
 
गांधी ने तब कहा था, 'यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका क़रीब-क़रीब कोई हल नहीं है। अगर मैं यहूदी होता तो मैं उनसे कहता, 'ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो। ऐसा कर के तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है।' अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है। यहूदियों को आगे बढ़ कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमेरिकी हो, किसी की भी सहायता के बिना, यहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए।'
 
लेकिन किसी को, किसी की विरासत तो संभालनी नहीं थी। सबको संभालनी थी गद्दी!
 
गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए, 'यह एक ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका क़रीब-क़रीब कोई हल नहीं है।'
 
वैसे तो इसराइल के गठन यानी 14 मई, 1948 से 3 महीने पहले ही गांधी की हत्या हो गई लेकिन गांधी ने जो आशंका प्रकट की थी, उसको क़रीब 75 साल पूरे होने को हैं। युद्ध व विराम के बीच पिसते फ़िलस्तीनी-इसराइली अब तक किसी हल के क़रीब नहीं पहुंचे हैं। विश्व की महाशक्तियां व दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं तो येरूशलम की संतानें अपना रास्ता ख़ेद खोज लेंगी। लेकिन कोई उन्हें ऐसा करने देगा?
 
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के चेयरमैन हैं।)

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