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हिंदी बोलने में शर्म क्यों आनी चाहिए?

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, शुक्रवार, 11 सितम्बर 2015 (18:42 IST)
हिंदी आगे कैसे बढ़े? सितंबर के महीने में लोग अक्सर यह सवाल पूछते मिल जाते हैं। आख़िर सितंबर हिंदी की रस्मी सरकारी याद का महीना जो है।
इस बार तो यह सितंबर कुछ और भी ख़ास हो गया है क्योंकि भोपाल में हो रहा विश्व हिंदी सम्मेलन इसी सवाल पर विचार कर रहा है कि हिंदी के विस्तार की संभावनाएं क्या हैं?
 
लेकिन क्या सवाल सचमुच इतना कठिन है? किसे पता नहीं है कि हिंदी को समाज में इज़्ज़त क्यों नहीं मिली? और सरकारी कामकाज में हिंदी अब तक आगे क्यों नहीं बढ़ पाई?
 
पहले दूसरा सवाल। हिंदी की पहली बाधा तो सरकारी हिंदी ही है। जिन लोगों ने यह हिंदी गढ़ी, वह जाने किस दुनिया से ऐसी कठिन और अबूझ हिंदी ढूँढ़कर लाए, जिसे हिंदी के प्रकांड विद्वान भी तब तक नहीं समझ सकते, जब तक साथ में मूल अंग्रेज़ी का प्रयोग न दिया गया हो।
 
कारण यह कि यह सरकारी हिंदी मौलिक तौर पर विकसित नहीं की गई, बल्कि अनुवाद से गढ़ी गई। और जब आप प्रयोग के बजाय अनुवाद से भाषा गढ़ेंगे तो वह हमेशा ही अबूझ हो जाएगी, क्योंकि जब तक आपको यह पता न हो कि हिंदी का अमुक शब्द अंग्रेज़ी के किस शब्द का अनुवाद है और किस अर्थ को व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया गया है, तब तक वास्तविक अर्थ समझ में ही नहीं आएगा।

अनुवाद की हिंदी का एक उदाहरण अभी एक जगह देखा, 'कम्प्यूटर और मोबाइल को हिंदी से सक्षम किया जाएगा।' सक्षम यानी Enable! समस्या यही है क्योंकि इस प्रक्रिया को आप अंग्रेज़ी में ही जानते, समझते और सोचते हैं— To Enable, और फिर उसकी हिंदी ढूँढ़ने चलते हैं तो डिक्शनरी में 'सक्षम' मिलता है, उसे वहाँ रख देते हैं!
 
हालाँकि यह उदाहरण सरकारी हिंदी का नहीं है, बल्कि एक निजी वेबसाइट का है, लेकिन मानसिकता वही है। पूरी सरकारी हिंदी इसी अनुवाद और डिक्शनरी की प्रक्रिया से तैयार हुई। इसे बनाने वाले लोग यह भूल गए कि शब्द व्यवहार से डिक्शनरी में पहुँचते हैं, डिक्शनरी से व्यवहार में नहीं आते। इसीलिए यह हिंदी आज तक व्यवहार में नहीं आ सकी। और क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि हिंदी के किसी अख़बार, किसी न्यूज़ चैनल में आपको ऐसी हिंदी के प्रयोग क्यों नहीं मिलते?
 
इसलिए कि उन्हें बाज़ार में सफल होना है, इसलिए वह उस सरकारी, अनुवादी, पारिभाषिक हिंदी को आसानी से ऐसी आसान हिंदी में बदल कर अपनी ख़बर देते हैं, जो सबको बिना अटके समझ में आ जाए। ऐसी हिंदी चलाना उनके लिए बाज़ार की माँग है।
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बाज़ार का प्रभाव : हिंदी जो कुछ आगे बढ़ी है, इसी बाज़ार के कारण आगे बढ़ी है। पहले सिनेमा, फिर टीवी और अब इंटरनेट ने हिंदी के अथाह बाज़ार के कारण उसे 'पैसा कमाऊ भाषा' तो बना ही दिया है। हिंदी सिनेमा के बाद अब हिंदी के टीवी चैनल और अख़बार भी विज्ञापनों के ज़रिए अरबों रुपए सालाना कमा रहे हैं।
 
अब मोबाइल पर इंटरनेट के लगातार प्रसार के कारण हिंदी और भी मज़बूत होगी क्योंकि जो भी विशाल हिंदीभाषी बाज़ार से पैसा कमाना चाहेगा, उसे हिंदी को अपनाना ही पड़ेगा।
 
हिंदी को अपनाना बाज़ार की मजबूरी तो है, लेकिन हिंदी को सही जगह तभी मिल पाएगी, जब उसे समाज में अंग्रेज़ी से ज़्यादा नहीं तो कम से कम बराबरी का दर्जा मिले। यह कैसे होगा?
 
अंग्रेज़ी बनाम हिंदी : हिंदी बोलने में ही लोगों को शर्म महसूस होती है। लोग टूटी-फूटी, ऊटपटाँग अंग्रेज़ी बोल कर भी गर्व महसूस करते हैं। स्कूलों में सारा ज़ोर अंग्रेज़ी पर है, हिंदी की पढ़ाई बस रस्म-अदायगी की तरह होती है।
 
नई पीढ़ी के लोगों को तो वाक़ई हिंदी बोलने तक में बड़ी दिक़्क़त होती है। ठीक है कि अच्छी अंग्रेज़ी आज के समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
 
अंग्रेज़ी सीखिए, पढ़िए और बोलिए, लेकिन हिंदी बोलने में शर्म क्यों आनी चाहिए? हिंदी का विस्तार तो ख़ैर कोई रोक नहीं सकता, लेकिन समस्या केवल दो हैं कि हिंदी को इज़्ज़त कैसे मिले और वह सरकारी चलन में कैसे आए?
 
हिंदी के कुछ पत्रकारों की मदद लीजिए, वह शायद सुझा सकें कि सरकारी हिंदी को आसान कर कैसे इस लायक़ बनाया जाए कि वह लोगों की समझ में आ सके। और हिंदी को इज़्ज़त भी तभी मिल पाएगी, जब सरकारी अमला उसे इज़्ज़त देने लगे। ये दोनों ही काम सरकार को करने हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी)

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