-रचना श्रीवास्तव
हिंदी फिल्म जगत में 25 वर्ष पूरे कर चुकी फरहा नाज के साथ एक बातचीत।
फरहा आप का जन्म हैदराबाद में हुआ। कैसा था वो शहर और आप का बचपन?हैदराबाद शहर बहुत ही प्यारा और दिल के करीब है। आपस में बहुत भाईचारा है। अलग ही संस्कृति है। जहाँ तक बचपन की बातें हैं लगता है जैसे एक सपना था। मेरी मम्मी टीचर थीं। मेरे दादा-दादी प्रोफेसर और लेक्चरर थे इसलिए घर में उसी तरह का माहौल था।झाड़ों पर चढ़ना और शाम होने के बाद आँगन में पानी छिड़कना। चौकियाँ लगाना ये सब करना मेरी ड्यूटी में शामिल था। छत पर गद्दे बिछा कर चाँदनी रात में सोना। अभी सोचती हूँ तो लगता है कि जैसे ये सब एक सपना था। यहाँ मुंबई में आने के बाद ऐसा लगता था जैसे कांक्रीट के जंगल में बैठे है।आप की बहन तब्बू और आप के बीच....प्यार, तकरार क्या होता था?तब्बू थोड़ी सी शरीफ थी और मै थोड़ी सी टॉम ब्वॉय थी। तब्बू बहुत पढ़ाकू थी और बहुत अच्छा गाती थी। तब्बू की घर में सभी बहुत तारीफ करते थे और मुझे बहुत डाँट पड़ती थी। हम लड़ते नहीं थे पर मैं उससे कहती थी की तुम इतना अच्छा और ज्यादा क्यों पढ़ती हो? आप के घर में सभी शिक्षक थे। पूरे घर में पढ़ाई का माहौल था फिर अभिनय के क्षेत्र में कैसे आना हुआ?मेरा तो बिल्कुल इरादा नहीं था। हम तो बहुत ही संस्कार वाले परिवार से ताल्लुक रखते थे। दुपट्टा ओढ़कर स्कूल जाना, जिस रिक्शे से स्कूल जाते थे उस में भी पर्दा लगता था। हमारे स्कूल में सलवार पहनने की इजाजत नहीं थी। मेरी मम्मी ने बहुत अनुरोध कर के स्कर्ट न पहनने के लिए स्कूल को राजी किया। मुझे याद है उस समय हमने दसवीं का इम्तिहान ही दिया था। हम हर साल गर्मी की छुट्टियों में मुंबई आते थे। शबाना आजमी मेरी खाला हैं और उन्ही के साथ देव साहब ने जब तब्बू को देखा तो कहा कि तब्बू को बाल कलाकार का रोल करवाएँ, पर मेरी मम्मी नहीं मानी। फिर शबाना आंटी के समझाने पर मम्मी मान गईं।फिर देव साहब ने मुझे देखा और और बोले इसे तो मुझे बतौर हीरोइन लॉन्च करना है। मम्मी ने कहा कि हीरोइन तो कतई नहीं और हम लोग हैदराबाद वापस आ गए।उन्हीं दिनों यश चोपड़ा साहब अपनी फिल्म फासले के लिए कोई नई लड़की ढूँढ रहे थे और उन्होंने देव साहब से पूछा कि उनकी नजर में कोई है। देव साहब ने मेरा नाम सुझाया लेकिन कहा कि उसकी मम्मी मानेंगी नहीं। फिर यशजी का फोन आया पर मम्मी ने मना कर दिया। फिर उन्होंने शबाना आंटी को फोन किया। शबाना आंटी ने मम्मी से कहा कि यश जी इंडस्ट्री के बहुत बड़े निर्देशक है, हम सभी की ख्वाहिश होती है की उनके साथ काम करें। मैने भी मम्मी से कहा की मेरी इच्छा है कि मै काम करूँ। फिर मम्मी मान गईं।पहली बार कैमरे का सामना, कैसा रहा वो अनुभव?स्क्रीन टेस्ट होना था, मै शुरू से बहुत कॉन्फिडेंट थी पर थोड़ी नर्वस भी। येतेन्द्रू दादा मेरा मेकअप कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि दादा ये कैमरा कैसा होता है? उन्होंने कहा की कुछ नहीं कैमरे की तरफ देखना नहीं, बस जो बोलें करते जाना। उन्होंने और सभी ने मुझे बहुत हिम्मत दिलाई। जैसा उन्होंने कहा, हमने बोला और यही बात उन लोगों को अच्छी लग गई।यशजी ने कहा कि इसको ज्यादा प्रशिक्षण नहीं दिलवाना चाहिए नहीं तो टिपिकल टाइप का अभिनय हो जाएगा। ये नेचुरल है इसे ऐसे ही रहने देना चाहिए। फिर मैंने थोड़ा घुड़सवारी और नृत्य सीखा। इस तरह हमारी पहली फिल्म शुरू हो गई।फिल्म करने के बाद आप जब वापस घर गईं तो कैसा अनुभव रहा?वो बहुत अलग था। जो मेरी सहेलियाँ थी, जिनके साथ मै गुल्ली डंडा खेलती थी वो सभी मुझे अलग नजरों से देखने लगे थे। फिर घर के बाहर लोगों का हुजूम लगने लगा था। घर वाले भी खुश थे। उस जमाने में जब कोई मेडिकल स्टोर खुलता था उसका नाम फरहा हो जाता था।सभी बहुत प्यार करने लगे थे, कहते थे हमारी बच्ची है वहाँ पर अभी भी बहुत प्यार मिलता है। इसीलिए मैने वहाँ अपनी जड़ों को छोड़ा नहीं है। फिल्मी सफर में मेरे 25 साल पूरे हो गए हैं पर अभी भी कोई मुझसे पूछता है कि आप का घर कहाँ है तो मै बोलती हूँ हैदराबाद।जब आप फिल्म लाइन में सफल हो गईं तो आप की मम्मी का क्या कहना था?मम्मी बहुत खुश थी। सभी मेरे साथ मुंबई शिफ्ट हो गए थे। पूरी जिंदगी बदल गई थी। मुझे और तब्बू को मम्मी का बहुत समर्थन था। यदि ये नहीं होता तो हम लोग ये मुकाम हासिल नहीं कर सकते थे।शबानाजी आप की खाला हैं। तो क्या आपके अभिनय में लोग कहीं न कहीं शबानाजी को खोजते थे?नहीं बिल्कुल नहीं, मैंने तो शुरुआत यश चोपड़ा बैनर से की। मैंने ज्यादातर रोमांटिक और कमर्शियल सिनेमा में काम किया है इसलिए मेरी शबाना आंटी के साथ ज्यादा तुलना नहीं हुई। तब्बू की तुलना शायद करते होंगे क्योंकि तब्बू ने उस तरह का ज्यादा सिनेमा किया है। क्या आप को कभी आर्ट फिल्मों में काम करने का मन नहीं हुआ?मुझे आर्ट फिल्म करने का बहुत शौक था। पर क्योंकि मेरी शुरुआत ही कमर्शियल फिल्म से हुई थी इसलिए उसी तरह की फिल्में मिलती रहीं और मैं काम करती गई।आप ने बहुत से किरदारों को जिया है, क्या कोई ऐसा रोल है जिसे आप करना चाहती थी?हसरतों का कोई अंत नहीं है पर मैने जो कुछ भी पाया है उससे मै बहुत खुश हूँ। मैने कभी अपने दिल में ये मलाल नहीं रखा की मुझे ये मिला और वो नहीं मिला। मै सोचती हूँ की यदि मेरी किस्मत में होता तो मुझे जरूर मिलता। जितने अच्छे रोल हो सकते थे मैंने किए और मै बहुत संतुष्ट हूँ।आपने बहुत से कलाकारों के साथ काम किया है। कोई ऐसा भी है जिसके साथ आप काम करना चाहती है?मुझे शम्मी कपूरजी बहुत पसंद है तो यदि शम्मी कपूरजी जवान हो जाएँ तो मैं उनकी हीरोइन बनना चाहती हूँ। संजय दत्त के साथ आपकी फिल्म ईमानदार के बारे में कुछ बताइए?वो मेरी और संजय की पहली फिल्म थी। उसका संगीत बहुत अच्छा था। इस फिल्म का गाना 'और इस दिल में क्या रखा है' बहुत लोकप्रिय हुआ। इस फिल्म के साथ हमारे बहुत से इमोशन जुड़े हुए हैं।'
नसीब अपना अपना' में ऋषि कपूर और दक्षिण की हीरोइन राधिका के साथ काम करने का अनुभव?वो फासले के बाद मेरी दूसरी या तीसरी फिल्म थी। ऋषि कपूर और राधिका के मुकाबले मैं बहुत नई थी। मै बहुत नर्वस थी और ऊपर से वो साउथ की पिक्चर थी। वहाँ काम करने का तरीका एकदम अलग होता है। मुझे दो बड़े कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला और मैने इन दोनों से बहुत कुछ सीखा भी।क्या कुछ ऐसे रोल हैं जिनको देख के आपको लगता है की यदि थोड़ा यहाँ ऐसे किया होता तो ज्यादा अच्छा होता?मेरे ख्याल से दो तरह के एक्टर होते हैं। एक वो जो बहुत तैयारी करते हैं, बहुत रिहर्सल करते हैं। और दूसरे तरह के ऐक्टर को जब सीन मिलता है, तभी वो डायलॉग पढ़ते हैं और तुरंत ही जो मन आता है, उसी तरह का अभिनय करते हैं तो मै वो दूसरी तरह वाली अभिनेत्री हूँ। क्या कोई ऐसी फिल्म है जो आप को लगता था की चलनी चाहिए थी और वो नहीं चलीं?जब हम फिल्म करते हैं तो बहुत मेहनत करते हैं। इस तरह की दो-तीन फिल्में है जिनके बारे में सोचकर लगता है कि वो क्यों नहीं चलीं। एक थी सनी देओल के साथ यतीम और दूसरी ऋषि कपूर के साथ नकाब। पाप को जला कर राख कर दूँगा एक्शन लेकिन भावपूर्ण फिल्म थी। इस फिल्म के न चलने से भी बहुत दुख हुआ।आप को यदि मौका मिले की आप अपने जीवन से कोई एक चीज बदल सकती है तो आप क्या बदलना चाहेंगी?कुछ भी नहीं। जो है बहुत अच्छा है, जो था बहुत अच्छा था, और इन्शा अल्लाह जो होगा वो भी बहुत अच्छा होगा।आप ने बहुत से टीवी सीरियल्स में काम किया है। क्या आप भविष्य में भी सीरियल में भी काम करेंगी?जरूर करुँगी पर अभी तो मै खुद सीरियल प्रोड्यूस कर रही हूँ। मै खुद लिखती भी हूँ और डायरेक्शन भी करती हूँ। अभी एक खत्म हुआ है और दूसरे पर काम जारी है। सीरियल लिखना बहुत लंबा प्रोसेस है तो बस उसी में लगी हूँ।इतनी मसरूफियत के बीच जब आप को कुछ समय मिलता है तो आप क्या करती हैं?कुछ नहीं बस अपने बेटे की सेवा करती हूँ और उसके साथ पढ़ती हूँ। मै अभी सातवीं क्लास में हूँ क्योंकि मेरा बेटा भी इसी क्लास में है।अभिनय और लेखन के अलावा आपके क्या शौक हैं?कुछ खास नहीं पर मै बहुत पढ़ती हूँ मुझे किताबें पढ़ने का बहुत शौक है।अभिनय के इस सफर में आपको बहुत से चेहरे मिले होंगे। कोई ऐसा है जो आप को आज भी याद है?हाँ कुछ लोग थे। एक था जिसका लिखा एक खत मुझको रोज मिलता था और हर बार उसका लिफाफा एकदम अलग होता था। वो हैदराबाद से लिखता था और अपना फोन नंबर जरूर लिखता था। जब करीब 2 साल हो गए तो मैंने उसे फोन कर दिया। वो तो यकीन ही नहीं कर पा रहा था कि मेरा फोन है। वो एक दुकान पर काम करता था। मेरे फोन के बाद उसकी वहाँ बहुत इज्जत हो गई। ये बात मुझको आज भी याद है। अभी भी उसका खत आता है।आपकी अपनी पसंदीदा फिल्में?'
पाप को जला के रख कर दूँगा', 'यतीम', 'नकाब' और 'बेगुनाह' क्या ऐसा कोई सीन था जिस को करने में आप को बहुत घबराहट होती थी?हाँ, डांस का सीन करते हुए मुझे हमेशा बहुत घबराहट होती थी। मेरे समय में माधुरी और नीलम थी। ये दोनों ही बहुत अच्छा डांस करती थी। मैं तो इनके सामने कुछ भी नहीं थी।आपने गोविंदा के साथ बहुत सी फिल्मों में काम किया है। उनके बारे में कुछ बताइए।गोविंदा की पहली फिल्म मेरे साथ थी 'लव 86' जिसमें मेरी जोड़ी रोहन कपूर के साथ थी और गोविंदा की नीलम के साथ। हमारी शूटिंग बहुत दूर हुआ करती थी। उस समय गोविंदा के पास कार नहीं थी वो किसी तरह लोकल ट्रेन और बसों में सफर कर के बहुत परेशानियों से आता था।इस वजह से उस को आने में थोड़ी देर भी हो जाती थी और प्रोड्यूसर उस पर गुस्सा भी हो जाते थे। मैने उस के शुरुआती समय को देखा है उस की मेहनत और लगन को देखा है तो मुझे उस की हर सफलता पर बहुत खुशी होती है।आप जब फिल्म इंडस्ट्री में आईं थी तब और अब की इंडस्ट्री में क्या परिवर्तन महसूस करती हैं?हर दशक के बाद लोग और उनकी विचारधाराएँ बदल जाती हैं। मैने वो जमाना भी देखा है और आज का जमाना भी देखा है. यदि आप देखें तो जो हमारी परंपरा है, संस्कार है वो घर बाहर हर जगह ही खत्म हो रहे हैं तो ऐसा ही इंडस्ट्री में भी हो रहा है।पहले जब कोई सीनियर आता था तो सभी जूनियर कलाकार उनके पैर छूते थे, उनको इज्जत देते थे किसी की भी उनके सामने बैठने की मजाल नहीं होती थी। तकनीकी के मामले में हम बहुत आधुनिक हो गए हैं। हॉलीवुड की फ़िल्मों को चुनौती दे सकते हैं बहुत अच्छी अच्छी फ़िल्में बन रही हैं।