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तेलंगाना: सोनिया का टूटता तिलिस्म

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हमें फॉलो करें पृथक तेलंगाना राज्य
- जफर आगा (वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार)

BBC
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कमाल है साहब! अभी चार रोज पहले सोनिया गाँधी अपने 63वें जन्म दिवस पर देश की सबसे दिग्गज नेता दिखाई पड़ती थीं। लेकिन चार रोज के भीतर ही तेलंगाना ने सोनिया का तिलिस्म मानो तोड़ दिया। कांग्रेस पार्टी ने तेलगांना राज्य की माँग क्या मानी, कांग्रेस नेतृत्व पर मानो समस्याओं का पहाड़ टूट पड़ा।

अब महाराष्ट्र को विदर्भ चाहिए तो कहीं गोरखालैंड की माँग सिर उठा रही है। अजित सिंह जैसे नेता तो पहले से ही हरित प्रदेश की माँग कर रहे थे। अब तो मायावती ने भी उत्तर प्रदेश विभाजन की गुहार लगा दी। उधर सोनिया सहित कांग्रेस नेतृत्व की समझ में नहीं आ रहा कि इस समस्या से निपटें तो निपटें कैसे।

कांग्रेस पार्टी को वर्ष 2004 में सत्ता तक पहुँचाने वाली सोनिया गाँधी के लिए तेलंगाना और उससे उत्पन्न होने वाला संकट उनके राजनीतिक जीवन का सबसे गंभीर संकट है। सच तो यह है कि पिछले आठ-दस वर्षों में सोनिया ने देश की राजनीति में एक चमत्कार कर अपना डंका बजवा दिया।

वह कांग्रेस जो नरसिम्हा राव की बाबरी मस्जिद संकट में उलझ कर अपना मुस्लिम वोट बैंक खो बैठी थी, सोनिया ने अपने नेतृत्व से उसी कांग्रेस से मुसलमान और गरीब जनता को जोड़कर फिर कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए को सत्ता दिला कर देश को आश्चर्यचकित कर दिया। देखते-देखते सोनिया गाँधी देश के राजनीतिक पटल पर सबसे ऊँचे कद की नेता बन कर उभरीं।

उधर अटल बिहारी जी बीमार होकर घर बैठ लिए। लालकृष्ण आडवाणी वर्ष 2009 में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता तक पहुँचाने में असफल होकर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की आँखों से गिर गए।

अब कब राजनीति से विदाई लें इसी उलझन ने आडवाणी को घेर रखा है। ऐसी स्थिति में भला सोनिया गाँधी के अलावा देशव्यापी दूसरा कौन नेता बचा था। लेकिन एक तेलंगाना ने मानो एकाएक सोनिया गाँधी का कद कम कर दिया हो।

बात यह है कि तेलंगाना समस्या केवल एक नए राज्य के निर्माण की समस्या नहीं है। दरअसल छोटे राज्यों की माँग के साथ क्षेत्रीय और जातीय महत्वाकांक्षा भी जुड़ी हुई है।

क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा : यह कांग्रेस और उसके नेतृत्व के लिए एक नई समस्या है। विकास के मुद्दे से जुड़ी कांग्रेस इंदिरा गाँधी के बाद से क्षेत्रीय एवं जातीय महत्वाकांक्षा के उभरते मुद्दों से जूझने में असफल रही है।

ऐसी समस्या जब भी उभरती है कांग्रेस मे बैठे मैनेजर समस्या से निपटने के बजाए समस्या का तुरंत हल तलाश करते हैं और इस रणनीति से कांग्रेस और उसका नेतृत्व समस्या मे और उलझता जाता है।

ऐसी ही एक समाजिक समस्या 1980 के दशक में राजीव गाँधी के समय शाहबानो फैसले के बाद आई थी। दरअसल शाहबानो मुद्दा मुस्लिम समाज की औरतों की समस्या थी।

राजीव गाँधी कट्टरपंथी मुस्लिम वर्ग के दबाव में आकर मुस्लिम समाज में होने वाले सुधार से कन्नी काट गए। हिन्दू समाजिक व्यवस्था राजीव की इस चाल को मुस्लिम दबाव समझी और हिन्दू समाजिक व्यवस्था ने राजीव के विरूद्ध बगावत कर दी। वर्ष 1986 से 1989 तक राजीव फिर ऐसी समस्याओं मे घिरे कि कभी उबर नहीं सके।

तेलंगाना और उससे जुड़ी छोटे राज्यों की माँग भी शाहबानो समस्या के समान वैसा ही एक समाजिक-राजनीतिक मुद्दा है। यदि तेलंगाना की तरह छोटे राज्यों की माँग को माना जाए तो कांग्रेस से जुडे़ पुराने समाजिक वर्ग उपद्रव कर बैठते हैं। यदि छोटे राज्यों की माँग को न स्वीकार किया जाए तो विकास के साथ छोटे क्षेत्रों में उभरी महत्वाकांक्षा का लाभ कांग्रेस के क्षेत्रीय विरोधी उठाएँगे।

आंध्रप्रदेश मे कुछ ऐसा ही हुआ। आंध्र में कांग्रेस का समाजिक सत्ता केन्द्र रेड्डी जाति पर निर्भर है। वाईएस रेड्डी की मृत्यु के बाद किसी रेड्डी को मुख्यमंत्री न बनाकर कांग्रेस ने अपने समाजिक आधार को निराश कर दिया। बस रेड्डियों ने दिल्ली में बैठे कांग्रेस नेतृत्व को मजा सिखाने की ठान ली।

कहते हैं कि पहले रेड्डियों ने चन्द्रशेखर राव की तेलंगाना राज्य की माँग में खामोशी से सहायता की। फिर जैसे ही दिल्ली मे तेलंगाना राज्य गठन का ऐलान हुआ वैसे ही रेड्डियों के नेतृत्व मे स्वंय कांग्रेस के अंदर और बाहर बगावत हो गई।

तेलंगाना और दूसरे छोटे राज्यों की माँग केवल एक राजनीतिक माँग नहीं है। यह क्षेत्रीय और जातीय महत्वाकांक्षाओं का एक नया रूप है जिसका हल कांग्रेस नेतृत्व के पास नहीं है। अब देखें इस नई राजनीतिक एवं समाजिक समस्या से सोनिया गाँधी कैसे निपटती है।

यदि वह इस समस्या से उबर गईं तो वह दूसरी इंदिरा का रूप ले सकती हैं। यदि वह असफल रही तो क्षेत्रीय दल दिल्ली में बैठे सोनिया विरोधियों से हाथ मिलाकर कांग्रेस पार्टी के लिए वर्ष 1980 के दशक जैसा एक भीषण संकट उत्पन्न कर देंगे।

अब देखें तेलंगाना का ऊँट किस करवट बैठता है।

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