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दो शिकारियों के बीच फँसा आम आदमी

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हमें फॉलो करें ऑपरेशन ग्रीन हंट
- सलमान रावी (राँची से)
BBC
'ऑपरेशन ग्रीनहंट' औपचारिक नाम हो या अनौपचारिक..लेकिन उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में माओवादी छापामारों के खिलाफ शुरू की गई यह अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई है, जिसके तहत लाखों जवान जंगलों और बीहड़ों का चप्पा चप्पा छान रहे हैं।

पिछले छह महीने से यह अभियान जोर शोर से चल रहा है। यह अभियान माओवादी प्रभावित राज्यों के उन इलाकों में चलाया जा रहा है जो खनिज संपदा के धनी हैं, लेकिन ये इलाके दुर्गम और कठिन हैं।

गृह मंत्री पी. चिदंबरम भी स्वीकार करते हैं कि इन राज्यों के बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहाँ स्थानीय प्रशासन पिछले दो दशक से नहीं जा पाया है। यानी ये वो इलाके हैं जो पूरी तरह से माओवादियों के नियंत्रण में हैं, जहाँ इनकी सामानांतर व्यवस्था चलती है। चिदंबरम का तर्क है कि 'ऑपरेशन ग्रीनहंट' का मकसद उन इलाकों पर नियंत्रण स्थापित करना है जहाँ आज तक सरकार नहीं पहुँच पाई है।

सरकार का नियंत्रण नहीं है : मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ के अबुजमाड़ के इलाके को ले लीजिए, जो 40 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यहाँ के अस्पताल, स्कूल और सरकारी तंत्र पर माओवादियों का कब्जा है। छत्तीसगढ़ से लेकर महाराष्ट्र तक फैले इस इलाके को माओवादी मुक्ताँचल कहते हैं।

छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्व रंजन का दावा है कि अभियान के दौरान मुक्तांचल के 40 फीसदी इलाके पर अब सरकार का नियंत्रण स्थापित हो गया है। उसी तरह सरकार का दावा है कि झारखंड और इससे सटे हुए पश्चिम बंगाल के लालगढ़ के जंगलों, पहाड़ियों और बीहड़ों में भी अब सुरक्षाबलों का नियंत्रण है।

इस अभियान ने देश के कई राज्यों को युद्ध क्षेत्र में तब्दील कर दिया है। एक तरफ माओवादी छापामार तो दूसरी तरफ सुरक्षा बल के जवान हैं।

सुरक्षाबलों की अपनी रणनीति है तो माओवादियों का छापामार हमला। कौन किस पर हावी हो रहा है कहना मुश्किल है, लेकिन इतना जरूर है कि अभियान के दौरान अब तक सुरक्षाबलों को अधिक नुकसान उठाना पड़ा है।

चाहे वो छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में मंगलवार को सुरक्षाबलों पर हुआ हमला हो, जिसमें 73 जवान मारे गए हैं या उड़ीसा के मलकानगिरी में 11 जवानों की हत्या या फिर पश्चिम बंगाल के सिलदा में सुरक्षाबलों के कैंप पर हमला। अब तक इस अभियान के बावजूद छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखंड, उड़ीसा और बिहार में माओवादियों ने जो चाहा है उसे अंजाम दिया।

माओवादियों के होसले : तो सवाल उठता है कि आखिर इन इतने बड़े अभियान के बावजूद माओवादियों के हौसले क्यों बुलंद हैं?

मंगलवार को दंतेवाडा में 75 जवानों की हत्या के बाद गृह मंत्री ने कहा कि यह घटना रणनीतिक चूक के कारण हुई। सुरक्षाबल के जवान माओवादियों के जरिए बिछाए गए जाल में फँस गए। पुलिस का सूचना तंत्र भी नाकाम रहा। सूचना तंत्र मजबूत हो भी कैसे?

अभियान में तैनात अर्धसैनिक बल के जवान न तो इलाके की भौगोलिक स्थिति से वाकिफ हैं और न ही भाषा से। इसलिए उनका काम और मुश्किल हो गया है।

दूसरा पहलू यह है कि कोई भी भूमिगत आंदोलन को बहुत दिनों तक बिना स्थानीय लोगों के समर्थन के चलाया नहीं जा सकता। लोग माओवादियों का डर से समर्थन कर रहे हैं या फिर मर्जी से। लेकिन बकौल चिदंबरम, 'जब एक बड़े इलाके में सरकार पहुँच ही नहीं पाई है तो वहाँ के लोग आखिर क्या करें।'

अभियान के दौरान सुरक्षाबलों ने जंगलों में आदिवासियों के प्रवेश पर रोक लगा रखी है। जबकि आदिवासी अपनी जीविका के लिए पूरी तरह से जंगल पर निर्भर हैं। जंगलों से वह पत्ते और दूसरी चीजों को चुराकर अपनी जीविका चलाते हैं।

माओवादियों के प्रभाव वाले इलाकों में घोर आभाव है। न सिंचाई की व्यवस्था, न पीने का पानी, न सड़क, न बिजली, न अस्पताल और न जीविका अर्जित करने का कोई उपाय। उस पर पुलिस एक ऐसे किरदार के रूप में उनके सामने आती रही है जो निर्दोष लोगों को माओवादी कहकर झूठे मुकदमों में फँसाती है। ऐसे में वह पुलिस पर विश्वास करे तो करे कैसे? यह ही वजह है कि पुलिस स्थानीय लोगों का विश्वास नहीं जीत पाई है।

जनवाद से भटकाव : तीसरा सबसे अहम पहलू है बारूदी सुरंगों का। बिहार से लेकर झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में माओवादियों ने बारूदी सुरंगों का जाल बिछा रखा है। पिछले एक दशक के दौरान सबसे ज्यादा सुरक्षा कर्मियों को बारूदी सुरंगों के विस्फोट में अपनी जान गँवानी पड़ी है। इससे निपटने के लिए सरकार ने बारूदी सुरंग निरोधक वाहन उपलब्ध तो कराए हैं, लेकिन माओवादियों ने अपनी तकनीक को विकसित कर लिया है और अब वह इन वाहनों को भी उड़ा रहे हैं। दंतेवाड़ा की घटना इसकी ताजा मिसाल है।

जहाँ तक माओवादियों का सवाल है तो वह दुर्गम इलाकों, घने जंगलों और पहाड़ियों का फायदा उठाकर छापामार युद्ध में बीस साबित हो रहे हैं।

अभियान के बावजूद उन्होंने पूर्वी भारत के चार राज्यों और छत्तीसगढ़ में कई बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया है। ऐसा नहीं है की उनका आधार क्षेत्र बढ़ा है। नई जनवादी क्रांति के अनुयाई अब अपनी विचारधारा से काफी दूर नजर आते हैं। जब माओवाद की नीव पड़ी थी तो यह आंदोलन उन लोगों का था जिनपर जमींदारों, साहूकारों और पूँजीपतियों के जुल्म का एक लम्बा चक्र चला था। तब किसी के हाथ में बंदूक नहीं थी और जन समर्थन से ही कोई कार्रवाई की जाती थी।

1998 में सीपीआई (एमएल) पीपुल्स वार ग्रुप का विलय हुआ। 2004 में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर और पीपुल्स वार का विलय हुआ और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन हुआ।

इसके बाद से हथियारों का जोर कायम हुआ। आज माओवादी जन मुद्दों से भटक कर झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार और पश्चिम बंगाल में स्थित कोयले और लोह की खदानों से यह संगठन बड़े पैमाने पर लेवी वसूल रहे हैं।

ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब संगठन के कमांडर लेवी का पैसा लेकर भाग खड़े हुए। शोषित, मेहनतकश मजदूर और किसान माओवादियों के वर्ग शत्रु नहीं रहे। लेकिन लगातार हो रही हिंसा में माओवादियों ने आम आदमी को ही अपना निशाना बनाया है। ऐसे में संगठन के पास बहुत दिनों तक आम जनता का समर्थन रहेगा, इसकी अनदेखी तो माओवादी नेता भी नहीं कर सकते हैं।

अब हो यह रहा है कि आम आदमी अभियान में दोनों पाट के बीच पिस रहा है। गाँव में घुसकर माओवादी खाना माँगते हैं। नहीं देने पर मारते पीटते हैं। खाना देने पर पुलिस माओवादी या माओवादी समर्थक कहकर झूठे मुकदमों में फँसती है।

'ऑपरेशन ग्रीनहंट' के दौरान आम आदमी खास तौर पर जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की हालत ऐसी हो गई है जैसे दो शिकारियों के बीच फँसा शिकार।

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