'बेरोजगार' हुए उल्फा प्रमुख परेश बरुआ
- सुबीर भौमिक (कोलकाता से)
भारत में प्रतिबंधित अलगाववादी संगठन उल्फा की सशस्त्र शाखा के प्रमुख परेश बरुआ को भारतीय रेलवे ने आखिरकार नौकरी से निकाल दिया है। बरुआ को छह जनवरी, 2010 को सरकारी नौकरी से निकाला गया है, हालाँकि वो जनवरी 1980 से ही गैर-हाजिर चल रहे थे। उन्होंने भारतीय रेलवे से आखिरी बार दिसंबर 1979 में 370 रुपए का वेतन पाया था।परेश बरुआ अप्रैल 1979 से यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी उल्फा के संस्थापक सदस्य और सशस्त्र शाखा के प्रमुख हैं।परेश बरुआ को नौकरी से निकाले जाने पर पूर्वोत्तर सीमावर्ती रेलवे के प्रवक्ता एस हाजॉग का कहना है, 'परेश बरुआ को नौकरी से निकाल दिया गया है और इस संबंध में एक नोटिस तिनसुकिया रेलवे स्टेशन पर लगा दिया गया, जहाँ वो आखिरी बार काम पर आए थे। लेकिन मैं नहीं जानता हूँ कि जिन्हें निकाला गया है कि वो उल्फा नेता परेश बरुआ ही हैं।'लेकिन परेश बरुआ के परिवार वालों ने इस बात की पुष्टि की है कि बर्ख़ास्त रेलवे कर्मचारी परेश बरुआ उल्फ़ा नेता ही हैं।कूली से छापामार : परेश बरुआ के छोटे भाई मिशन बरुआ का कहना है, 'बरतरफी का पत्र हमारे घर पर आया है। ये सच है कि मेरे भाई ने 1978-79 में रेलवे में कुली के तौर पर काम किया था और वो तिनसुकिया स्टेशन पर कार्यरत थे।'मिशन बरुआ का कहना है कि भूमिगत होने से पहले उनके भाई ने बतौर खिलाड़ी नौकरी पाई थी और फुटबॉल में गोलकीपर के रुप में रेलवे का प्रतिनिधित्व भी किया।मिशन बरुआ कहते हैं, उस समय असम में बांग्लादेशी गैर-कानूनी प्रवासियों के खिलाफ अभियान जोरो पर था। उनके खिलाफ मुहिम चलाने वालों पर पुलिस की ज्यादती से मेरे भाई बहुत ही परेशान थे और इसी के नतीजे में उन्होंने छापामार संगठन की स्थापना की। जिसने उनके जीवन को बदल दिया।रहस्य है : लेकिन सबसे दिलचस्प बात है कि आखिर इतने लंबे समय के बाद परेश बरुआ को क्यों निकाला गया है, ये मुद्दा अब भी रहस्यमय बना हुआ है।रेलवे प्रवक्ता एस. हाजॉग का कहते हैं कि बरुआ के काम से गैर-हाजिर रहने को मामला जब सामने आया तो उन्हें 31 दिसंबर, 2009 को नोटिस भेजा गया। जिसमें कहा गया था कि छह जनवरी, 2010 तक वो रेलवे अधिकारियों के सामने हाजिर हों या फिर बरतरफी का सामना करें।प्रवक्ता का कहना है कि जब बरुआ हाजिर नहीं हुए तो उन्हें बरतरफ किया गया, प्रवक्ता के अनुसार उनकी बरतरफी में कानूनी तौर-तरीकों का पूरी तरह से पालन किया गया है।लेकिन सबसे अहम सवाल ये है कि क्या कानूनी तौर-तरीके वाकई इतने लंबे होते हैं कि इतने बड़े अलगाववादी नेता को नौकरी से निकलाने में तीन दशक लग जाते हैं?पिछले दो दशक से परेश बरुआ बांग्लादेश में छिपे हुए थे पर माना जाता है कि पिछले दिनों बांग्लादेश में उल्फा के खिलाफ हुई कार्रवाई के बाद वो बांग्लादेश से भागकर दक्षिण एशिया के किसी दूसरे देश में रह रहे हैं।