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सड़कें हैं या विभाजन रेखा?

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- विनोद वर्मा (हाइवे हिंदुस्तान से)

BBC
सड़कें शहरों, गाँवों और लोगों को जोड़ती हैं, लेकिन स्वर्णिम चतुर्भुज की सड़कें शहर से बाहर एक विभाजन रेखा की तरह दिखने लगी हैं। इन सड़कों ने कई जगह गाँवों को दो हिस्सों में बाँट दिया है। आधी आबादी सड़क के इस पार रह गई हैं और आधी दूसरी तरफ।

पहले वह एक इकाई थी इसलिए सब कुछ साझा था लेकिन अब उनको अपनी जरुरतों के लिए नेशनल हाइवे को पार करना होता है।

एक किसान कहते हैं, 'स्कूल, पीने का पानी, दुकानें सब कुछ को सड़क ने विभाजित कर दिया है। हमें हर बार अपनी जरुरतों के लिए उस ओर जाना होता है। हर वक्त एक्सीडेंट का खतरा बना रहता है।'

किसानों की मुसीबत : गाँव हैं इसलिए उनकी अर्थव्यवस्था अभी भी खेती पर टिकी हुई है। खेत एक ओर रह गए हैं और खेत के मालिक दूसरी ओर। खेती के लिए उन्हें अपने हल, बैल और ट्रैक्टर लेकर दूसरी ओर जाना होता है।

तेज रफ्तार वाली इन सड़कों के पार खेती करने जाना एक चुनौती की तरह है। बंगलौर से 50 किलोमीटर दूर वार्डाहल्ली गाँव के किसान सीतारमैय्या भी उन्हीं किसानों में से एक हैं।

वे कहते हैं, 'अब हल, बैल और ट्रैक्टर लेकर खेती के लिए सड़क पार करना भी मुश्किल हो गया है।' ये सड़कें उनके लिए हादसे का पर्याय बन गई हैं। स्कूल चिंतित हैं कि बच्चे सुरक्षित स्कूल पहुँचें और वापस घर भी सुरक्षित पहुँचें।

आठवीं कक्षा की सुनीता अपने स्कूल से लौटती हुई मिली। उसने बताया कि नई सड़क बनने के बाद से स्कूल में विशेष तौर पर सुरक्षित ढंग से सड़क पार करना सिखाया जाने लगा है।

बंगलौर से 40 किलोमीटर दूर नेलमंगला गाँव से तुमकुर तक के चालीस किलोमीटर में सड़क के किनारे करीब चालीस गाँव हैं। ये सभी गाँव इसी तरह की परेशानी झेल रहे हैं।

अपनी जमीन पर टैक्स : वाराणसी से कोलकाता के बीच भी इन सड़कों ने गाँवों को इसी तरह की परेशानी दी है। लेकिन उन गाँवों और इन गाँवों में अंतर यह दिखता है कि यहाँ खेत गर्मियों में भी फसलों से भरे हुए हैं। उनकी खेती साल भर चलती है क्योंकि सिंचाई के साधन हैं। इसलिए इनकी परेशानी ज्यादा है।

उस इलाके की तुलना में एक अंतर और है कि यहाँ बहुत सी जगह सड़क पार करने के लिए फुट ब्रिज बने हुए हैं या अंडर पास। लेकिन कई गाँव अभी भी इससे वंचित हैं। बिल्लकोटे गाँव की आबादी पाँच हजार है और इस सड़क ने इस गाँव को ढाई-ढाई हजार की आबादी के दो गाँवों में बदल दिया है।

जो गाँव विभाजित नहीं हुए हैं उसे सड़क के किनारे खड़ी की गई दीवार ने मानों हाशिए पर डाल दिया है। इन गाँवों के लिए सड़क के दूसरी ओर अपने खेतों तक जाना चुनौती बना हुआ है।

सड़क के किनारे आ जाने की वजह से जमीन की कीमतें बढ़ी हैं। किसानों को शहर के व्यवसायी आकर प्रस्ताव भी दे रहे हैं, लेकिन वे अपनी जमीन नहीं खोना चाहते।।

एक किसान ने कहा, 'व्यावसायी हमें 70-80 लाख रुपए का प्रस्ताव दे चुके हैं जिससे कि सड़क के किनारे की जमीनें हम उन्हें दे दें, लेकिन हमने संगठित होकर फैसला किया है कि हम अपनी जमीन नहीं बेचेंगे।'

अब उन्हें एक गाँव से दूसरे गाँव अपने संबंधियों से मिलने जाना हो तो टोल टैक्स देना होता है। एक किसान की शिकायत है कि उन्होंने अपनी जमीनें सड़कें बनाने के लिए दे दीं, लेकिन अब उसी पर चलने के लिए उन्हें टैक्स देना पड़ता है।

अब सड़कों पर गाड़ियाँ तेज रफ्तार से दौड़ती हैं और मंजिल की ओर जल्दी पहुँचा देती हैं, लेकिन मीलों तक सड़कें कस्बों और गाँवों को हाशिए पर छोड़ती चलती हैं।

सड़कें ऐसी वीरान दिखती हैं मानों नो मैन्स लैंड हों।

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