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सेवाग्राम की मिट्टी से निकला वास्तुकार

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हमें फॉलो करें ब्रिटेन वास्तुकार सुनंद प्रसाद
BBC
कहते हैं कि बचपन के अनुभव काफी हद तक हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार को निर्धारित करते हैं। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित वास्तुकार सुनंद प्रसाद के लिए गाँधीजी के सेवाग्राम आश्रम में बिताए आरंभिक बारह साल बहुत महत्वपूर्ण रहे हैंउन्हें याद है कि जब उनके चित्रकार पिता वहाँ एक कला विद्यालय का निर्माण कर रहे थे तो वरांडे में बिछाए गए पत्थरों के बीच मिट्टी और रेत भरने के लिए उन्हें एक छोटी-सी खुरपी थमा दी गई थी।

सुनंद प्रसाद कहते हैं, 'मेरे पिता देहरादून के हैं और मेरी माँ केरल की हैं। इत्तेफाक से दोनों एक ही दिन यानि 15 सितम्बर 1943 को सेवाग्राम पहुँचे थे अपने-अपने ढंग से महात्मा गाँधी के साथ काम करने के लिए। मेरे पिता ने शांति निकेतन में रबींद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में पढ़ाई की। विशेष रूप से नंदलाल बोस, रामकिंकर बैज और बिनोद बिहारी मुखर्जी के साथ।

बापूजी ने उनसे सेवाग्राम आकर एक कला विद्यालय स्थापित करने को कहा और वो आ गए। उन दिनों ऐसे ही निर्णय हुआ करते थे और आपके जीवन की धारा तय हो जाया करती थी। मेरी माँ शिक्षक बनने के लिए सेवाग्राम आई थीं।

सेवाग्राम से ही जुड़ा हुआ है लंदन का सूत्र भी। सुनंद प्रसाद के पिता को एक शांतिवादी अंतरराष्ट्रीय संगठन का महासचिव बनने के लिए आमंत्रित किया गया। वॉर रैजिस्टर्स इंटरनेशनल नामक यह संस्था दरअसल गाँधीवादी विचारों पर आधारित थी। इस तरह वो डब्लू. आर. आई. के महासचिव के रूप में सपरिवार ब्रिटेन आ गए।

सुनंद प्रसाद की पढ़ाई लिखाई ब्रिटेन में ही हुई। उनकी विज्ञान में बड़ी रुचि थी इसलिए वो इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए विश्वविद्यालय गए। लेकिन बगल में वास्तुशिल्प का विद्यालय था जो उन्हें अपनी ओर खींचने लगा। उन्होंने इंजीनियरिंग छोड़कर उस विद्यालय में दाखिला ले लिया। वो कहते हैं, 'जिस क्षण मैंने वास्तुशिल्प पढ़ना शुरू किया मुझे लगा बस मैं यही हूँ।'

और यहाँ से सुनंद प्रसाद का जो सफर शुरू हुआ उसने उन्हें वास्तुशिल्प जगत में नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उन्होंने 1988 में पैनॉए एंड प्रसाद नामकी वास्तुशिल्प कम्पनी का गठन किया।

जब मैं उनसे मिलने उनके कार्यालय पहुँची तो देखा कि उसमें पचासों लोग काम कर रहे हैं। लेकिन हैरानी मुझे इस बात की हुई कि उनका कोई अलग कक्ष नहीं था बल्कि वो अपने सहयोगियों की तरह ही एक डैस्क पर बैठे काम कर रहे थे। चारों तरफ विभिन्न इमारतों के मॉडल रखे थे जगह-जगह डिजाइनों के चित्र लगे थे और साथ ही थे कई पुरस्कार भी।

तो क्या शोहरत उनके लिए महत्वपूर्ण है। इसके जवाब में वो कहते हैं, 'शोहरत तो नहीं लेकिन हाँ मान्यता मिलना महत्वपूर्ण है। यह भाव कि हम असर पैदा कर रहे हैं, और आप असरदार हो रहे हैं या नहीं इसकी परीक्षा ये है कि दूसरे लोग आपको पहचानते हैं या नहीं आपके डिजाइन को मान्यता देते हैं या नहीं। क्योंकि उसके बिना आप स्वयं अपने ही आकलन में उलझ कर रह जाएँगे। इसलिए आपके सहयोगियों का आकलन और उनसे मिली मान्यता बहुत महत्वपूर्ण होती है।'

जब 2007 में सुनंद प्रसाद रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ ब्रिटिश आर्किटैक्ट्स यानि रीबा के अध्यक्ष चुने गए तो ब्रिटिश मीडिया में उनकी व्यापक चर्चा हुई। क्योंकि रीबा के इतिहास में पहली बार यह सम्मान किसी विदेशी मूल के व्यक्ति को मिला था।

'ये एक बहुत ही अच्छा अनुभव रहा। मैंने रीबा के अध्यक्ष के रूप में उसे अभियान करने वाली संस्था के रूप में बदलने की कोशिश की जिसमें जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ा अभियान रहा। साथ ही हमने सरकार पर दबाव डाला कि वह योजना नीति बनाने के समय वास्तुकारों जैसे व्यवसायियों से सलाह मश्विरा करे। जिससे इमारतों के निर्माण में करदाता के धन का सही इस्तेमाल हो सके क्योंकि हम मानते हैं कि अच्छा डिजाइन लोगों के जीवन को बेहतर बनाता है।'

सुनंद प्रसाद के जीवन पर उनके पिता के गाँधीवादी विचारों का गहरा प्रभाव रहा है। शायद इसीलिए उनकी सामुदायिक परियोजनाओं में विशेष दिलचस्पी रही है। उन्होंने स्वास्थ्य केन्द्र, स्कूल, बेघर लोगों के लिए फ्लैट, वृद्धजनों के लिए देखभाल केन्द्र और बहुसांस्कृतिक कला भवनों का निर्माण किया है।

लेकिन उनकी सबसे प्रिय इमारत कौन-सी है इसके विषय में वो कहते हैं, 'मैं वही जवाब दूँगा जो टैड कलन दिया करते थे कि अगली इमारत मेरी सबसे प्रिय इमारत होगी। ये एक आसान जवाब है, लेकिन इसमें सच्चाई भी है क्योंकि आप अपनी पिछली इमारतों से सीखते हैं, लेकिन अपनी डिजाइन की गई इमारतों में से चयन करना उतना ही मुश्किल है जितना अपने बच्चों में से अपने प्रिय बच्चे का चयन करना।'

सुनंद प्रसाद को सेवाग्राम में बिताए अपने बचपन के दिन अच्छी तरह याद हैं। वो कहते हैं, 'मेरे विचार में वह स्वर्ग था। वहाँ पूरी आजादी थी। बच्चे अपने ढंग से रहने और सीखने के लिए आजाद थे। देहात में रहना एक बहुत ही सुंदर अनुभव था। सभी ऋतुओं के सम्पर्क में रहना, फसलों के चक्र को देखना, फसल काटना। हम अपनी फसल खुद उगाते और काटते थे। खाद्यान्न, सब्जी, फल यहाँ तक कि सूत भी। सूत उगाते थे, कातते थे और उसी के बने कपड़े पहनते थे। मैंने उसकी हाफ पैंट पहनी है जिसका सूत वहीं उगाया गया, काता गया, रंगा गया और जिसे शायद मेरी माँ ने सीकर तैयार किया।'

शायद इसीलिए सुनंद प्रसाद पर्यावरण के प्रति बहुत जागरूक हैं। वो अपने घर से साइकिल चलाकर दफ्तर आते हैं। उनका मानना है कि कार्बन उत्सर्जन घटाने में वास्तुशिल्प बहुत बड़ा योगदान कर सकता है।

वे कहते हैं, 'ब्रिटेन में 50 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन इमारतों से होता है और दुनिया भर में यह प्रतिशत शायद 40 होगा और भारत में 30-35 के बीच। भारत की नई इमारतों में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन एयर कंडीशनिंग से हो रहा है। भारत में जिस तरह शहर विकसित हो रहे हैं वो पर्यावरण के लिए बहुत ही नुकसानदेह है और उसमें बदलाव लाने की जरूरत है। उदाहरण के लिए हमें इमारतों को ठंडा रखने की पारम्परिक तकनीकों से सीख लेनी चाहिए, कुछ आधुनिक तकनीकें अपनानी चाहिए और ऐसे स्रोतों से ऊर्जा उत्पन्न करनी चाहिए जो कार्बन पैदा नहीं करते। जाहिर है इसके लिए हमें अपनी जीवन शैली और अपना व्यवहार बदलना होगा।'

सुनंद प्रसाद मानते हैं कि एक अच्छा डिजाइन वो है जो उस इमारत का इस्तेमाल करने वालों के लिए उपयुक्त हो, जो टिकाऊ हो, पर्यावरण के अनुकूल हो, आकर्षक, आनंददायक, सार्थक हो और उन लोगों के साथ अध्यात्मिक रिश्ता बना सके जो उसका इस्तेमाल करते हैं और जो उसके पास से होकर गुजरते हैं।

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