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आंकड़ों के लिहाज से तो मुकाबला कांटे का

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अनिल जैन

पटना , बुधवार, 14 अक्टूबर 2015 (17:47 IST)
पटना। देश के किसी भी सूबे में पांच साल के दौरान राजनीतिक माहौल शायद ही इतना बदला हो, जितना बिहार में बदला है। महाराष्ट्र में भी विधानसभा चुनाव से ऐन पहले भाजपा और शिवसेना का गठजोड़ टूटा था, लेकिन चुनाव के बाद दोनों फिर साथ आ गए, लेकिन बिहार में इस बार जिस तरह सारे राजनीतिक समीकरण उलट-पुलट गए, वैसा वहां भी या और कहीं भी नहीं हुआ।  
पिछले चुनाव में भाजपा और जनता दल (यू) मिलकर लड़े थे और दोनों के गठजोड़ को ऐतिहासिक जनादेश मिला था। बिहार की 243 विधानसभा सीटों में से 142 पर जद (यू) और 101 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार लड़े थे। इसमें 90 फीसदी की सफलता दर से भाजपा ने 91 सीटें जीती थी और उसे 16.46 फीसदी वोट मिले थे। जद (यू) के खाते में 115 सीटें गई थीं और वोट मिले थे 22.6 प्रतिशत। 
 
जद (यू) से गठबंधन का भाजपा को कैसा फायदा हुआ, इसका अंदाजा राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को प्राप्त सीटों और वोटों के प्रतिशत को देखकर लगाया जा सकता है। पिछले चुनाव में राजद को 18.84 फीसदी वोट मिले थे यानी भाजपा से करीब ढाई फीसदी ज्यादा, लेकिन सीटें सिर्फ 22 मिली थीं। उस चुनाव में राजद ने 168 सीटें लड़ी थीं और 75 सीटें उसने अपने सहयोगी रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के लिए छोड़ी थीं। लोजपा को 4.35 फीसदी वोट और सिर्फ तीन सीटें मिलीं।
 
पिछले चुनाव में कांग्रेस अकेले सभी सीटों पर लड़ी थी और वह 8.39 फीसदी वोटों के साथ सिर्फ चार सीटें ही जीत पाई थी। बसपा ने हर बार की तरह लगभग सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन उसका एक भी उम्मीदवार जीत नहीं पाया था, पर उसे 3.21 फीसदी वोट मिले थे। लगभग 50 सीटों पर लड़ने वाली दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों (सीपीआई और सीपीएम) 2.40 फीसदी वोट और 171 सीटों पर लड़ने वाली एनसीपी को करीब डेढ़ फीसदी वोट मिले थे। लेकिन अब चुनावी तस्वीर बदल गई है। भाजपा और जद (यू) अलग हो गए हैं और रामविलास पासवान की लोजपा अब भाजपा के साथ है। 
 
अगर पिछले विधानसभा चुनाव को आधार माने तो भाजपा के 16.46 फीसदी वोट में पासवान के 4.35 फीसदी वोट को जोड़ा जाएगा और यह आंकड़ा 20.81 फीसदी का बनेगा। दूसरी ओर जद (यू), राजद और कांग्रेस का नया महागठबंधन वजूद में आ गया है। पिछले विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के मुताबिक इन तीनों के वोटों का कुल आंकड़ा 50 फीसदी के करीब पहुंच जाता है। लेकिन आंकड़ों का खेल अजीब होता है। हर बार इनसे वास्तविक तस्वीर सामने नहीं आती है।
 
वैसे पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव ने आकलन के लिए नए आंकड़े भी दिए हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा और जद (यू) अलग-अलग लड़े थे। जद (यू) 38 सीटों पर लड़ कर सिर्फ दो पर जीता था और उसे महज 17 फीसदी वोट मिले थे। राजद ने 25 सीटें लड़कर करीब 21 फीसदी और 15 सीटों पर लड़ी कांग्रेस को छह फीसदी वोट मिले थे। इस तरह इन तीनों का आंकड़ा 44 फीसदी होता है। यानी 2010 के विधानसभा चुनाव में तीनों को मिले वोट से छह फीसदी कम।
 
फिर भी यह वोट भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग के तीनों घटक दलों के वोट से ज्यादा हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा, लोजपा और रालोसपा एक साथ लड़े थे और इन तीनों को मिल कर 38.8 फीसदी वोट मिले थे। जबकि खराब प्रदर्शन के बावजूद राजद, जद (यू) और कांग्रेस को 44 फीसदी। उस चुनाव के बाद एक फर्क यह आया है कि जीतनराम मांझी जद (यू) से अलग हो गए हैं और नई पार्टी बनाकर भाजपा के गठबंधन में शामिल हो गए हैं। अगर वे महादलित समुदाय के वोटों को भाजपा की ओर मोड़ने में कामयाब हो जाते हैं तब भी कम से कम आंकड़ों में तो बराबरी का मुकाबला दिखाई दे रहा है।

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