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प्रत्यंचा पर चढ़ा बिहार

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जयदीप कर्णिक

बिहार के दिल में क्या है? .... चंद घंटे ही शेष रह गए हैं ये पता लगने में। बहुत कशमकश रही। 45 दिन 5 चरण 243 सीटें, सवा छ: करोड़ वोटर। मतदान भी ऐतिहासिक हुआ। 56.80 फीसदी मतदान हुआ कुल पाँच चरणों में। अब तक का सर्वाधिक। क्यों निकल कर आए हैं इतने वोटर घरों से? वो क्या चाहते हैं? बदलाव !! सरकार में या हालातों में? क्या वो वाकई एनडीए की सरकार चाहते हैं जिसमें भाजपा के साथ लोजपा और ‘हम’ शामिल हैं और जैसा कि चाण्क्य और एनडीटीवी के चुनाव बाद के सर्वे बता रहे हैं? या फिर नीतिश और लालू वाले महागठबंधन की जीत होगी जैसा कि अधिकांश अन्य सर्वे बता रहे हैं?


ख़ैर ये तो अब कुछ घंटों में पता लग ही जाएगा लेकिन कौन जीतेगा इससे ज़्यादा बड़ा सवाल ये है कि क्या बिहार को वो विकास, वो उत्थान, वो दुलार मिल पाएगा जिसके लिए वो बरसों से तड़प रहा है। क्योंकि यहाँ मोदी-नीतीश की बजाय समूचे बिहार का भविष्य दाँव पर लगा है। और बिहार शायद ये बताने को बेताब है कि उसके डीएनए में आखिर क्या है? क्योंकि दोनों ही पक्षों ने उसके डीएनए को उछाला ख़ूब। पैकेज, जाति, गौमाँस, तंत्र-मंत्र, नरपिशाच और जंगलराज के चुभते तीरों के बीच प्रत्यंचा पर हमेशा बिहार ही चढ़ा रहा। इस प्रत्यंचा से छूटकर बिहार कहाँ पहुँच पाएगा ये सवाल इस वक्त सबसे अहम है।

इससे पहले कि परिणामों को लेकर ये उत्सुकता ख़त्म हो, हम चंद मुख्य बिन्दु देख लेते हैं जिनके इर्द-गिर्द ये चुनाव लड़ा गया।

*  मोदी-बनाम नीतीश – 2014 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले शुरु हुई अहं की ये लड़ाई दूसरे और महत्वपूर्ण दौर में पहुँच गई है। पहला दौर निश्चित ही नरेन्द्र मोदी के नाम रहा। वो भारी बहुमत से अपनी पार्टी को जितवा कर प्रधानमंत्री बने। नीतीश कुमार कहते रह गए कि कोई हवा नहीं है और ब्लोअर से हवा चलाई जा रही है। हवा नहीं आँधी आई और नीतीश कुमार की महात्वाकांक्षा को उड़ा कर ले गई। उनको इतना जोर का झटका लगा कि वो मुख्यमंत्री पद छोड़कर वनवास पर चले गए। जीतनराम माँझी को मुख्यमंत्री बना दिया। फिर जब होश संभाला तो अपनी ही कुर्सी को बड़ी मुश्किल से वापस हासिल कर पाए। पर माँझी को फिर भी खो दिया। अब देखना ये है कि इस दूसरे दौर में नीतीश हिसाब बराबर करते हैं या फिर एक बार फिर मात खाते हैं।

*  विकास बनाम अन्य हर चुनाव की ही तरह इस चुनाव की शुरुआत तो विकास के मुद्दे पर हुई पर बाद में डीएनए, वंशवाद, जातिवाद, पिछड़ा और अति-पिछड़ा, गौमाँस और धार्मिक उन्माद की अंधी गलियों में विकास कहीं खो गया। बातें बहुत हुई पर कमोबेश सभी दल और नेता तथाकथित ‘सोशल इंजीनियरिंग’ में लग गए।
*  निजी हमले – दिल्ली चुनाव की ही तरह यहाँ भी जमकर छींटाकशी हुई। चुनाव प्रचार ने पतन का नया स्तर देखा। मोदी-नीतिश ने भी एक दूसरे पर ख़ूब व्यक्तिगत हमले किए। दिल्ली में ऐसे ही व्यक्तिगत हमले भाजपा को भारी पड़ गए थे। बिहार में हर पक्ष ने सीमाएँ लाँघी। परिणाम क्या होता है, जनता ने इन हमलों को कैसे लिया, बस पता लगने ही वाला है।

परिणाम जो भी हो बड़े सवाल ये हैं –
1.    क्या बिहार में कानून व्यवस्था का राज होगा और लोग बेधड़क सड़कों पर घूम पाएँगे?
2.    क्या सड़कों, पुल-पुलियाओं की हालत सुधरेगी?
3.    क्या शिक्षा के ऐसे नए केन्द्र स्थापित होंगे जो युवाओं को वहीं सर्वश्रेष्ठ शिक्षा दे पाएँ?
4.    क्या अधिकांश युवाओं को मनचाहा रोजगार भी बिहार में ही मिल जाएगा और उन्हें पलायन नहीं करना पड़ेगा?
5.    क्या जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों से परे जाकर एक नया आधुनिक बिहार गढ़ा जा सकेगा?
आप और हम मिलकर इंतज़ार करते हैं....
 

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