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उम्मीद और अंदेशे के बीच दांव पर लगे मोदी

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अनिल जैन

देश के किसी भी प्रधानमंत्री ने शायद ही पहले कभी किसी विधानसभा चुनाव में अपने आपको इस तरह नहीं झोंका जैसे नरेंद्र मोदी ने बिहार में झोंका है। उन्होंने एक तरह से बिहार में अपनी प्रतिष्ठा को ही दांव पर लगा दिया है।
 
चुनाव की तारीखें घोषित होने से पहले ही तीन बड़ी रैलियों के जरिए चुनाव प्रचार शुरू कर चुके मोदी की कुल 22 चुनावी रैलियों का कार्यक्रम बना था, लेकिन बाद में तय हुआ कि वे सूबे के लगभग सभी जिला मुख्यालयों पर यानी करीब 40 रैलियों को संबोधित करेंगे। इस धुआंधार प्रचार के दो ही मतलब निकलते हैं। या तो उन्हें इस बार भी बिहार में लोकसभा चुनाव जैसी लहर का भरोसा है या फिर वे मान रहे हैं कि मुकाबला कांटे का है। 
 
वजह जो भी हो, बिहार का चुनाव पूरी तरह सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी का एकल शो बन गया है। उनके अलावा अगर भाजपा के किसी और नेता का थोड़ा-बहुत जलवा है तो वह है मोदी के सिपहसालार अमित शाह का। उनकी कमान में भाजपा और संघ परिवार के कार्यकर्ता जुटे हुए हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग और भाजपा के बाकी तमाम नेता अप्रासंगिक हो गए हैं।
 
सुशील मोदी, राजीव प्रताप रूढ़ी, राधामोहन सिंह, मंगल पांडेय, नंदकिशोर यादव आदि भाजपा के तथाकथित राज्य स्तरीय नेता ही नहीं बल्कि राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, रविशंकर प्रसाद और दलित-महादलित-अतिपिछड़ा राजनीति के स्वयंभू चैंपियन रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुमार कुशवाह आदि जितने भी बड़े नामधारी नेता हैं वे सब भी सैनिकों की जमात का हिस्सा भर हैं।
 
किसिम-किसिम की जातियों वाले बिहार को जीतने के लिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने महंगे हाईटेक चुनावी साधनों और संगठनात्मक मशीनरी के जरिए लड़ाई को ऐसा बना दिया है कि उनको चुनौती दे रहे महागठबंधन के नेता नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव तिनकों की तरह हेलिकॉप्टर लिए यहां से वहां उड़ रहे हैं। उनके पास न तो पर्याप्त साधन हैं और न ही सुगठित संगठनात्मक ढांचा। उन्हें उम्मीद है तो सिर्फ अपने मौन मतदाता से। 
 
नरेंद्र मोदी को इस बात का अच्छी तरह अहसास है कि बिहार में जीत या हार दोनों उन्हीं के खाते में दर्ज होगी। इसलिए वे अपनी कोशिशों में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। मोदी के लिए बिहार की जीत एक ऐसा मील का पत्थर होगी जिससे वे ऐसे सर्वशक्तिमान हो जाएंगे कि क्या भाजपा, क्या सहयोगी दल, क्या संघी सूरमा, क्या मीडिया और क्या मंत्रिमंडलीय चेहरे सबके सब साष्टांग करते दिखेंगे।
 
इसलिए यह मुमकिन है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने सामान्य जीत की संभावना को रिकार्डतोड़ जीत में बदलने का मिशन बनाकर ही इस तरह अपने आपको चुनाव में झोंका हों। अगर बिहार में कल्पनातीत जीत मिल गई तो उससे उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और केरल में भी मोदीत्व की हवा बनेगी, जहां आने वाले दो साल के भीतर विधानसभा के चुनाव होने हैं। 
 
मोदी के अपने आपको इस तरह चुनाव में झोंक देने की दूसरी वजह बिहार की जमीनी हकीकत भी हो सकती है। मोदी यह जानते हैं कि जातीय समीकरण में नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव का समीकरण भले ही मुखर नहीं है मगर मारक जरूर है। तमाम चुनावी सर्वे भी बिहार में कांटे की लड़ाई बता रहे हैं। ऐसे में यदि चूके और महागठबंधन को बहुमत मिल गया तो नरेंद्र मोदी का ग्राफ पैंदे पर होगा और उनके चक्रवर्तीय मंसूबों को गहरा झटका लगेगा।
 
अमित शाह क़े खाते में भी दिल्ली के बाद यह दूसरी नाकामी दर्ज होगी और वे असफल सेनापति करार दिए जाएंगे। पार्टी में उनके खिलाफ दबे असंतोष के स्वर उठने लगेंगे। मुमकिन है कि इस सिनेरियो की चिंता ने भी मोदी और शाह को करो या मरो के संकल्प के साथ मैदान में उतरने को बाध्य किया हो।
 
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार सुरेंद्र किशोर का मानना है कि लालू-नीतीश के खिलाफ जिस तरह के बोल मोदी-शाह बोल रहे है वह करो-मरो के इस संकल्प के चलते ही है। यदि उन्हें अपनी जीत का अतिविश्वास होता तो गोमांस, शैतान, चाराखोर-चाराचोर, लुटेरे जैसे शब्द उनके मुंह से नहीं निकलते। अमित शाह को नरेंद्र मोदी की जाति नहीं बतानी पड़ती और यह भी कहने कि जरूरत नहीं पड़ती कि मोदी देश के पहले पिछड़े प्रधानमंत्री हैं। जो भी हो, लड़ाई कितनी शिद्दतभरी है, यह मोदी की चिंता और चपलता से साफ झलक रहा है।

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