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अच्छी फिल्में आप कहाँ देखेंगे?

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अनहद

पंद्रह मिनट की फिल्म "लिटिल टेरेरिस्ट" किसी सिनेमाघर में नहीं लगेगी और आप उसे कभी नहीं देख पाएँगे। कम से कम जिस ढंग से आप फिल्में देखते हैं, उस तरह तो कभी नहीं देख पाएँगे। मुमकिन है आप किसी कस्बे में रहते हों, जहाँ वीडियो या सीडी पार्लर हो। मगर सीडी और वीडियो भी तो लोकप्रिय सिनेमा की ही बनती है।

इस समय अच्छी फिल्मों के प्रति एक रुझान जागा हुआ है। जो दर्शक सार्थक सिनेमा देखना चाहते हैं, उन्होंने एक फिल्म क्लब बनाया है। फिल्म "लिटिल टेरेरिस्ट" भी एक फिल्म क्लब चलाने वाली साथी ने दिखाई। एकदम "रामचंद्र पाकिस्तानी" जैसी फिल्म, मगर सुखांत...। राजस्थान की भारत-पाक सीमा पर बसे गाँव का एक बच्चा अपनी गेंद लेने के लिए कँटीले तार पार करके भारतीय सरहद में घुस आता है। सैनिक दूर से देखते हैं और पीछा करते हैं। बच्चा भागकर एक जगह छुप जाता है। सैनिक समझते हैं कि कोई आतंकवादी घुस आया है।

इस बच्चे को पनाह देता है एक राजस्थानी परिवार, जिसमें बस बेटी और पिता है। सैनिक घरों-घर तलाशी लेते हैं। पनाह देने वाला राजस्थानी मास्टर लड़के का सिर घोटकर बामनों जैसी चोटी निकाल देता है और पूछने पर कहता है कि ये मेरा गूँगा भतीजा है। इस फिल्म में बताया गया है कि किस तरह गलती से सीमा पार करने वाले मासूम लोगों को आतंकवादी और जासूस वगैरह समझ लिया जाता है। एक शक है जो हावी रहता है। मगर फिल्म में इंसानियत को जीतते दिखाया गया है। राजस्थानी मास्टर अपनी जान पर खेलकर बच्चे को वापस पहुँचाने को बेटी सहित सीमा पार जाता है।

सवाल ये है कि ये छोटी-सी अद्भुत फिल्म आप देखेंगे कहाँ? मनोरंजन तो ताश खेलकर भी होता है। टीवी पर आने वाली फिल्में भी देखी जा सकती हैं। मगर ऐसा मनोरंजन आपको बेहतर इंसान नहीं बनाता, आपको जागरूक नहीं करता।

केरल के लोग सर्वाधिक जागरूक हैं। अभी पिछले दिनों श्याम बेनेगल ने कहा कि केरल में सबसे ज्यादा फिल्म क्लब हैं, जहाँ देश-विदेश की क्लासिक, चर्चित और नई फिल्में देखी जाती हैं, उन पर बात की जाती है। इंदौर में ही ऐसे एक क्लब ने पिछले दिनों ईरान के महान फिल्मकार माजिद मजीदी की फिल्म "चिल्ड्रंस ऑफ हैवन" दिखाई। एक अन्य फिल्म क्लब ने हज़रत मोहम्मद के जीवन पर आधारित हॉलीवुड की फिल्म "अल रिसाला" का शो किया।

इनके अलावा एक डाक्यूमेंट्री फिल्म समारोह भी होने वाला है। इस तरह की फिल्में देखने के लिए दर्शकों को थोड़े प्रयास तो खुद करने होंगे। दूसरे शहरों के फिल्म क्लबों से संपर्क किया जा सकता है, ताकि उनसे अच्छी फिल्में ली जा सकें। यह कहना तो ठीक नहीं कि व्यावसायिक सिनेमा का जमाना चला गया या जा रहा है। व्यावासायिक सिनेमा हमेशा मुख्यधारा में रहेगा, मगर अच्छी फिल्मों को भी देखने वाले मिलते रहेंगे।

(नईदुनिया)


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