Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

अजब तरह का गड़बड़झाला

हमें फॉलो करें अजब तरह का गड़बड़झाला

अनहद

PR
मुंबइया अवॉर्ड समारोहों पर यह आरोप आम है कि इनमें केवल व्यावसायिक सिनेमा को ही जगह मिलती है। अभी स्टार स्क्रीन अवॉर्ड समारोह में "ए वेडनस डे" को कुछ पुरस्कार मिले हैं। एक तो अच्छी कहानी के लिए और नवोदित निर्देशन प्रतिभा के लिए। मगर यदि कोई यह समझता है कि वेडनस डे को प्रायोगिक सिनेमा होने के बावजूद पुरस्कार मिला, तो यह भूल है। अगर यह फिल्म टिकट खिड़की पर नाकाम हो जाती, तो कोई नामलेवा भी नहीं होता। अंततः तो पुरस्कार कामयाबी को ही मिला है। ये बात गौण है कि पुरस्कार किस बहाने से मिला है।

मुंबइया अवॉर्ड समारोह जो लोग आयोजित करते हैं, वे कलाकार नहीं व्यवसायी हैं और उनका सम्मान व्यावसायिक सिनेमा के लिए है। ए वेडनस डे के निर्देशक नीरज पांडे पर स्टार स्क्रीन अवॉर्ड के जज इसीलिए फिदा हैं कि ये वह आदमी है, जो टिकट खिड़की की कामयाबी रच सकता है। कहानी भी उन्हें इसीलिए अच्छी लगी कि कहानी बिकी। इस फिल्म के लिए उनका सम्मान इसलिए और ज़्यादा है कि इसने कम लागत में अच्छा मुनाफा कमाया।

अगर कसौटी पर परखा जाए तो कहानी और निर्देशन दोनों में ही कई झोल हैं। ख्यात कवि और समीक्षक विष्णु खरे ने इस फिल्म को लेकर कुछ सवाल उठाए हैं। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका "उद्भावना" के ताज़ा अंक में इस फिल्म को लेकर उनका लंबा इंटरव्यू छपा है। फिल्म का नायक खुद को "स्टूपिड कॉमन मैन" कहता है, मगर उसके पास आरडीएक्स है, आठ-दस देशों की सिम है, कम्प्यूटर की ऐसी जानकारी है जो पुलिस के धुरंधर कम्प्यूटर विशेषज्ञों के पास नहीं है। इतना ही नहीं उसके पास चारों आतंकियों के कोडवर्ड हैं, जो केवल अंदरूनी आदमी को ही मालूम हो सकते हैं। क्या खूब "स्टूपिड कॉमन मैन" है। क्या वाकई हमारे देश का कॉमन मैन ऐसा है? ये है श्रेष्ठ निर्देशन और अच्छी कहानी?

खरे कहते हैं कि अमेरिकी निर्देशक क्लिंट ईस्टवुड की बनाई फिल्म "डर्टी हैरी" का नायक भी इसी तरह तंत्र से खफा होकर खुद सबको मारने लगता है। यहाँ सवाल पैदा होता है कि क्या यह कहानी ओरिजनल है? नसीरुद्दीन शाह कहते हैं कि मैंने शहर में चार जगह बम रख दिए हैं तो शहर में कोई पैनिक फैलते नहीं दिखाया गया। मीडिया के नाम पर केवल यूटीवी की पत्रकार को दिखाया गया है। कारण इसका यह है कि ये फिल्म यूटीवी ने ही बनाई है। पुलिस द्वारा नसीरुद्दीन शाह का ऐसा स्केच बनाया जाता है, कि फोटोग्राफ भी शर्माए, जबकि ऐसा स्केच बनना तब भी संभव नहीं जब नसीर खुद बैठकर स्केच बनाएँ।

जहाँ पुलिस को इतना आधुनिक बताया गया है, वहीं स्केच बाबा आदम के ज़माने वाले चित्रकार से बनाते दिखाया गया है, जबकि स्केच अब कम्प्यूटर में फीड बहुत सारे नाक, आँख, माथे, होंठों, बालों, गालों, तिलों, मस्सों के आधार पर बनाए जाते हैं। सबसे खतरनाक बात फिल्म का संदेश है। अगर हर आदमी खुद आतंकियों को ठिकाने लगाने की सोच ले, तो उन्हें पहचानेगा कैसे? वो उन्हीं लोगों को आतंकी नहीं कहने लगेगा जिन्हें अतिवादी बहुसंख्यक संगठन कोसते रहते हैं? फिर अगर आम आदमी ने अपनी जान पर खेलकर किसी को आतंकी होने के शक में मार डाला तो क्या गारंटी है कि पुलिस उसे छोड़ देगी, जिस तरह इस फिल्म में छोड़ती है?

ऐसी फिल्म को केवल व्यावसायिक सिनेमा के कर्ता-धर्ता ही अच्छी कहानी और निर्देशन का नमूना मान सकते हैं। अच्छी फिल्म की कसौटी पर कसने से ही फिल्म के कस-बल निकल सकते हैं। इस फिल्म को रामनाथ गोयनका अवॉर्ड भी दिया गया है। ये पुरस्कार उस फिल्म को दिया जाता है, जिस फिल्म में "एक्सप्रेस समूह" के आदर्शों की झलक होती है। स्टार स्क्रीन अवॉर्ड में इसे चौदह श्रेणियों में नामांकित किया गया था। जोधा अकबर को भी चौदह श्रेणियों में नामांकित किया गया था और निर्देशक का अवॉर्ड आशुतोष गोवारीकर को भी नीरज पांडे के साथ मिला है। तमाम अवॉर्ड अजब तरह का गड़बड़झाला हैं, ये बार-बार साबित होता रहता है। पुकार जैसी घटिया फिल्म को एनडीए (भाजपा) के ज़माने में राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है।

(नईदुनिया)


Share this Story:

Follow Webdunia Hindi