गोरी सोई सेज पर मुख पर डाले केस / चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुदेस...। अमीर खुसरो ने यह दोहा अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया के निधन पर कहा था।...गुरुओं को लोग अनेक उपाधियों से नवाजते हैं। श्रीश्री और एक हजार आठ जैसा संबोधन तक गुरु को दिया जाता है। कई बार तो यह होता है कि गुरु जितना खोखला होता है, उपाधियाँ उतनी ही अधिक लाद दी जाती हैं। मगर गुरु को गोरी कहना...। ये तो महबूबा वाला संबोधन है...। हिन्दी, अवधी और ब्रज काव्य में नायिका को गोरी संबोधन दिया गया है। तो सवाल यह है कि अमीर खुसरो अपने गुरु को गोरी क्यों कह रहे हैं? अध्यात्म और सूफीज़्म से संबंध रखने वाले लोग समझेंगे कि गुरु से सुंदर कुछ और नहीं होता। एक महिला संत (सहजोबाई या शायद दयाबाई) ने तो अपने गुरु के निधन पर आँखें ही बंद कर ली थीं कि देखने लायक जो था वो तो अब रहा नहीं, तो क्या देखने के लिए आँख खोलना। मरते दम तक उन्होंने आँखें नहीं खोलीं।
ये सब बातें इसलिए कि ओशो पर फिल्म बनाने की तैयारी चल रही है और ओशो के रोल के लिए संजय दत्त या फिर कमल हसन से बात की जा सकती है। कहाँ ओशो और कहाँ ये दोनों! ओशो ने जीवनभर एक सिगरेट नहीं पी। संजय दत्त जैसा तामसिक आदमी कैसे उनका रोल कर पाएगा? फिर संजय दत्त की बॉडी पहलवानी वाली है।
कमल हसन ठीक हैं, पर ओशो के मुकाबले बहुत स्थूल हैं। इस फिल्म को बनाने की कोशिश कर रहे हैं इतावली फिल्म निर्देशक एंटोनियो क्लशेन सुकामीलि। अन्य रोलों के लिए कबीर बेदी और इरफान खान से भी बात चल रही है। ओशो के रोल में कमल हसन या संजय दत्त को आम दर्शक शायद कबूल कर लें, पर जिन्होंने ओशो को देखा है, वे कभी नहीं कर सकते। उनकी नजर में ओशो से सुंदर, भव्य और गरिमामय तो कोई हो ही नहीं सकता।
संत की भूमिका करते समय एक और समस्या एक्टरों के सामने पेश आती है कि वे कैरेक्टर में कैसे घुसें? जितने भी रोल वे करते हैं, उन सब लोगों का ऑब्जर्वेशन उन्होंने कर रखा होता है। जैसे उनसे कहिए कि धूर्त आदमी का रोल करना है, वे कर देंगे। उनसे कहिए कि हिंसक आदमी की भूमिका निभानी है, वे निभा देंगे। मगर संत...? संत को देखा ही नहीं तो रोल कैसे करें?
अन्नू कपूर ने टीवी पर कबीर किया था। मगर कबीर के रोल में अन्नू कपूर हद से ज्यादा उदास लगते थे। साँईंबाबा का कैरेक्टर कई लोगों ने किया है। मगर यह रोल ऐसा है कि गेटअप चेंज करते ही दर्शक श्रद्धालु हो जाता है। धीरे-धीरे बोलना ही साँईंबाबा का रोल निभा देने के लिए काफी होता है।
असल चुनौती होगा ओशो का रोल करना। मोटा-मोटी बात यह है कि ओशो बहुत विनोदी हैं। साथ ही बहुत विद्रोही भी। मगर एकदम अहिंसक...। तर्क फौलाद को काट देने वाले, विद्रोह दुनिया को हिला डालने वाला, मगर लहजा एकदम धीमा। हर संत अपने आपमें अजीब होता है।
सुकरात के आखिरी शब्द अपने शिष्यों से क्या थे? सुकरात ने कहा- अपन ने जो मुर्गी खाई थी, उसके दाम मुर्गी वाले को नहीं चुकाए हैं, तुम चुका देना। ओशो ने जाते-जाते कहा- मेरे कमरे का एसी चलने देना...। तो ये अजीब लोग हैं। इनके जाने के सदी-दो सदी बाद स्पेशल इफेक्ट्स और चमत्कारों की कहानियाँ जोड़कर आसानी से फिल्म बन सकती है। मगर अभी तो इनके कदमों की चाप गूँज ही रही है।
एक बात और... फिल्म को लेकर ओशो के शिष्य अगर असहमत हुए तो हँस लेंगे, पर ऐसा कुछ नहीं करेंगे जैसा और लोग करते हैं। न मुकदमा, न हंगामा, न सिनेमाघर में तोड़फोड़...। उनके शिष्य भी उनसे कम अजीब नहीं हैं।