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'दोस्ताना' और 'फायर' तो बेकसूर हैं

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अनहद

अच्छा बताइए विषमलैंगिकता पर तो कोई कानूनी पाबंदी नहीं है ना? तो क्या समाज में विषमलैंगिकता को कोई जगह मिली है? नहीं ना? तो फिर समलैंगिकों को कानूनी मान्यता मिल जाने पर इतना हंगामा क्यों मचा हुआ है? वयस्क महिला-पुरुषों को संबंध बनाने का अधिकार कानून देता है, पर क्या समाज इस अधिकार का उपयोग युवाओं को करने देता है?

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कानून कहता है कि दो बालिग स्त्री-पुरुष अपनी मर्जी से संबंध कायम कर सकते हैं। यानी कानूनन बालिग स्त्री-पुरुष संबंध को अदालत मान्यता देती है। मगर सामाजिक और धार्मिक नियम इसके खिलाफ हैं और इतने खिलाफ हैं कि ज्यूस सेंटरों में, साइबर कैफों में, पार्कों में... तमाम सार्वजनिक और यहाँ तक कि निजी स्थानों पर भी लड़के-लड़कियों को मिलने नहीं दिया जाता। कई जगह तो साथ में पढ़ने भी नहीं दिया जाता। कानूनी ताकत से बहुत बड़ी ताकत समाज और धर्म की है। इसलिए यह सोचा जाना कि समलैंगिकता को कानूनी मान्यता मिलने से समाज खराब हो जाएगा, बिलावजह का डर है।

फिल्म वालों को कितना ही बदनाम क्यों न किया जाए, पर फिल्म वाले तो और भी ज्यादा परंपरावादी हैं। "दोस्ताना" नाम की फिल्म के अलावा हर जगह फिल्मों ने इसका मज़ाक उड़ाया है। फिल्म "फायर" में दीपा मेहता ने उन स्थितियों का खुलासा किया है जिनमें कोई महिला लेस्बियन बन सकती है। धर्म और समाज के कड़े नियम ही हैं कि लड़के-लड़कियों को एक-दूसरे से दूर रखा जाता है। समलैंगिकता पनपने की एक बड़ी वजह तो यही नियम- कानून हैं।

मजे की बात यही है कि जो धर्माचार्य, जो सामाजिक अगुआ समलैंगिकता का विरोध कर रहे हैं, वे लड़के-लड़कियों को भी एक-दूसरे से दूर रखने के कायल हैं। कहते हैं जबरा मारे और रोने भी न दे। ये जबरे की मार है। फिल्मों के हीरो-हीरोइन कितने ही आधुनिक कपड़े क्यों न पहने, वे दकियानूस ही होते हैं। हीरो और हीरोइन की वही छवि गढ़ी जाती है, जो सामाजिक रूप से मान्य हो। उन्हें सुंदर और आधुनिक दिखाने के लिए चाहे जितने फैशनेबल कपड़े क्यों न पहना दिए जाएँ, वे शादी से पूर्व अक्सर कुँआरे रहते हैं, चाहे उनकी उम्र कितनी ही क्यों न हो।

तो जैसा समाज है वैसी ही फिल्में हैं। कपड़ों से आधुनिक और व्यवहार से दकियानूस। फिल्म "दोस्ताना" के आने से समलैंगिकों को बढ़ावा मिला, यह कहना बेजा इल्जाम लगाना है या फिल्म "फायर" से समलैंगिक महिलाओं को हिम्मत मिली, यह सोचना भी पक्षपातपूर्ण है। फिल्मी दुनिया में तो विषमलैंगिक संबंधों को ही बहुत मान्यता नहीं है। शाहरुख खान और करण जौहर को भी बहुत बदनाम किया जाता है। असल में तो वे दोनों भी इस पर हँसते हैं।

फिल्मों में हीरो की कसी हुई देह और शानदार फिगर वाली हीरोइन का मकसद महिला-पुरुष दर्शकों को लुभाकर टिकट खरीदने के लिए उकसाना होता है। समलैंगिकता की जड़ें फिल्मों में नहीं, संभवतः कथित धर्माचार्यों की अप्राकृतिक नसीहतों और सामाजिक बंधनों में है। हैरत इस बात पर नहीं होना चाहिए कि समलैंगिकता हमारे देश में है, इस पर होना चाहिए कि इतनी कम क्यों है।

जहाँ वैलेंटाइन डे मनाने वालों को पीटा जाता हो, वहाँ यह तो होगा ही। अगर सच्चे आँकड़े सामने आएँ, तो शायद हमारी आँखें अचरज से फट जाएँ।

(नईदुनिया)


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