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72 मील एक प्रवास - स्त्री के मातृत्व की अविस्मरणीय यात्रा

- सारंग उपाध्याय

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महाराष्‍ट्र के सतारा से कोल्‍हापुर जाने वाली सड़कों पर मनुष्‍य के जीवन का यथार्थ रचती और एक स्‍त्री के भीतर मातृत्‍व का विशाल संसार खड़ा करती यह मराठी फिल्‍म 72 मील का वह प्रवास केवल एक मां की बच्‍चों के साथ पैदल गांव पहुंचने की यात्रा भर नहीं है, बल्‍कि यह एक ऐसी फिल्‍म है, जो देश के हर गांव में साधनहीन स्‍त्री, पुरूषों और बच्‍चों की जीवन यात्रा के संघर्ष का तिल-तिल इतिहास इकठ्ठा करती चलती है।

छ: राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार जीत चुकी मराठी फिल्‍म जोगवा को पर्दे पर उतारने वाले राजीव पाटील ने इस फिल्‍म के माध्‍यम से बाल मन और मां के बीच उस संवाद तक पहुंचने की कोशिश की है, जहां मातृत्‍व अपने संपूर्ण रूप में आकार लेता है।

आई की भूमिका निभाने वाली स्‍मिता तांबे एक ठेठ मराठी स्‍त्री के रूप में पर्दे पर कुछ दृश्‍यों में मां के प्‍यार से वंचित बालक अशोक पर जो करूणा बरसाती है, वह थिएटर में बैठे किसी मराठी भाषा न समझने वाले व्‍यक्‍ति से सीधा संवाद करने में इतनी सक्षम है, तो फिर महाराष्‍ट्र की संस्‍कृति में रचने-बसने वाले लोगों के लिए यह एक आत्‍मीय अनुभूति से कम नहीं होगी

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चिलचलाती धूप, मुसलाधर बारिश में सुनसान सड़क पर पति के जेल जाने के बाद, ससुराल से भगाई गई मां दिन-रात, भूखे, प्‍यासे अपने चार बच्‍चों में से एक को गोद में सम्‍भालती हुई, सात से आठ साल के अशोक को मिलती है, अशोक वह बच्‍चा है जो पारिवारिक झगड़ों के असंतोष के बीच और मां-बाप के प्‍यार से वंचित जबर्दस्‍ती बोर्डिंग भेजे जाने पर वहां से भी वापस भागकर अपने घर कोल्‍हापुर जा रहा है।

बस दो घंटा लेट है, लेकिन होस्‍टल के लड़के उसे पकडने के लिए इतना भगाते हैं कि वह कोल्‍हापुर जाने वाली सड़क पर पहुंच जाता है। फिर शुरू होता है एक बच्‍चे का ऐसा सफर जहां दुनिया उसे हर पल कड़वे अनुभवों के घूंट पिलाती है, लेकिन जातिगत विषमताओं और उसके जहर से पिटता-ठुकता अशोक जल्‍द ही सुनसान और घने जंगलों से गुजर रही सड़क के भटकाव भरे आसमान की अपनी यात्रा में एक स्‍त्री के वात्‍सल्‍य की छांव में आ जाता है। यहां से शुरू होती है शेगांव और कोल्‍हापुर पहुंचने की वह मानवीय पदयात्रा जिसमें पिछले दो महीनों से बुखार से जूझ रहा एक मां का गोद का बच्‍चा मर जाता है।

फिल्‍म में गोद के बच्‍चे को अपने सभी दूसरे बच्‍चों के बीच एक खेत में गाड़ देने का दृश्‍य निर्देशक ने निश्‍चित ही कलेजे पर पत्‍थर रखकर फिल्‍माया होगा और इस संवेदनशील दृश्‍य को नायिका ने जाने किस कलेजे से निभाया होगा। दर्शकों के लिए यह दृश्‍य किसी ह्दय विदारक घटना से कम नहीं।

इस दृश्‍य का एक संवाद मराठी नहीं आने के बावजूद भी भाषा की सीमा से परे होकर भीतर तक साल गया, जब बड़ा भाई छोटे बच्‍चे की लाश को दफनाती मां पर दूर से बैठकर झल्‍लाते हुए कहता है कि “आई तू उसे वहां मत दफना, गड्ढा गहरा नहीं है उसकी लाश को कुत्‍ते खोद-खोदकर खा जाएंगे, वहीं दूसरी ओर कई दिनों की भूख से व्‍याकुल लड़कियां पास ही खेतों में लगे टमाटर खाने को मचल उठती है, इस बात से बेखबर की उनका साल भर का भाई और उनकी आई की गोद में चलने वाला उनका नन्‍हा साथी मर चुका है। गौर करने वाली बात है कि अपने छोटे भाई को गड्ढे में दफनाने की बजाय जलाने की जिद करने वाला इसी आई का बड़ा बेटा बीच रास्‍ते में ही सांप काटने से मर जाता है और वह रोती, बिलखती ईश्‍वर को कोसती है।

फिल्‍म के कई दृश्‍य एक स्‍त्री की सहनशीलता, उसकी जीवटता और महान मातृत्‍व के दर्शन करवाते हैं। भूख और प्‍यास से व्‍याकुल अपने दो बेटों को खो चुकी और अब अपनी किशोर लडकियों और छोटे मासूम अशोक को रात के अंधेरे लेकर घूमती मां जब एक गांव में दुकान पर अपनी बेटियों के लिए रूककर पानी मांगती है तो दुकानदार लोटा भर पानी तो देता है, लेकिन दो रूपये की सेओं के लिए बड़ी लडकी को एकटक देखता है, तब लडकी की मां उसे इस तरह देखने पर मना करती है, तब दुकानदार बोलता है, “मुझे भी भूख लगी है,” निराश, हताश और भूख व प्‍यास से लडती आई, भय, याचना और दया के भाव से दुकानदार से बोलती है, “अभी यह छोटी ह“ और पास ही पड़ी सेओं की प्‍लेट देखकर लड़कियों को खाने का कहकर, दुकानदार के पीछे उसके कमरे में चली जाती है।

आई की दोनों बेटियां भूख से लड़कर सो जाती है, लेकिन अपने घर से दूर दुनिया को उसके कड़वे रंग में देख रहा मासूम अशोक अपनी 72 मील की यात्रा में बनी आई की चिंता में आधा हुआ जाता है, और रात के अंधेरे में उस कमरे में जाकर अपनी आई को खोजता है, जहां कमरे के पीछे बैठी एक मां अपने बड़े बेटे के खो जाने का संताप करती है, और कहती कि उसकी रक्षा करने वाला चला गया। इस दृश्‍य में आई का रोना और अशोक का मौन एक अद्भुत संवाद है.

फिल्‍म का अंतिम दृश्‍य जीवन में अभी तक देखे गए सिनेमा का सबसे महान दृश्‍य था, जब शेगांव और कोल्‍हापुर के रास्‍ते अलग होते हैं और अशोक अपनी यात्रा की आई से बिछड़ता है, एक मां का अपने चारों बच्‍चों के लिए ममत्‍व, बोर्डिंग से भागे हुए बच्‍चे तक उस करूणा, प्रेम और वात्‍सल्‍य के साथ बाहर आता है कि बिदाई के समय अशोक नाम का यह बालक मां को आई कहकर चिपक जाता है। मां और बेटे के बीच बिछड़ने का यह दृश्‍य शब्‍दों की व्‍याख्‍या से परे है।

बहरहाल, फिल्‍म का अंत भी यहीं होता है, पर्दे पर आती मराठी भाषा में लिखी कुछ लाइनों के साथ, जिससे यह पता चलता है कि यह फिल्‍म नहीं है, बल्‍कि इस फिल्‍म के लेखक अशोक बटकर के जीवन के अनुभवों का सच्‍चा दस्‍तावेज है जो उन्‍होंने किताब 72 मील एक प्रवास की शक्‍ल में पिरोया है।

वैसे मल्‍टीप्‍लैक्‍स के कमर्शियल पर्दे पर इतनी संवेदनशील फिल्‍म देखने के बाद और भाषा से ज्यादा सरोकार नहीं रखने वाला दर्शक इस स्‍थित में तो नहीं हो सकता कि पर्दे पर मराठी के वाक्‍यों को ठीक से समझ पाए, पर बावजूद इसके थोड़ी-बहुत मराठी बोलने, समझने वाले के भी यह समझ आ सकता है कि अशोक सचमुच में बोर्डिंग से भागे थे और उन्‍होंने जीवन भर अपनी 72 मील प्रवास की आई और बहनों को ढूंढा, लेकिन वह नहीं मिले, पर अशोक लेखक बन गए, अशोक की यह जीवन की यह कहानी बहुत कुछ अनकहा कह गई है, इसके माध्‍यम से उन्‍होंने जो दिया है, वह बेमिसाल है।

सच, इस फिल्‍म को देखकर लगता है कि जीवन में कुछ भी खाली नहीं जाता, कुछ संघर्ष भरी यात्राएं भी और शाहरूख खान की दौ सो करोड़ कमाने जा रही फिल्‍म की धूम के बीच, एक थियेटर के खाली में हॉल में कुछ खाली पडी कुर्सियों के बीच गुजारे गए तीन घंटे भी।

बैनर : ग्रेजिंग गोट पिक्चर्स, वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स
निर्माता : ट्विंकल खन्ना- अश्विनी यार्डी
निर्देशक : राजीव पाटील
कलाकार : स्मिता तांबे, चिन्मय संत, श्रावणी सोलास्कर, चिन्मय कांबली, ईशा माने

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