अक्टोबर से देश में सिनेमाघर खुलने का सिलसिला शुरू हुआ था, इसके बावजूद अभी भी अधिकांश सिनेमाघरों पर ताला लगा हुआ है जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी विकट है। टॉकीज के मालिकों का सोचना है कि टॉकीज बंद रखने में ही फायदा है क्योंकि टॉकीज खोला तो खर्चा निकालना भी मुश्किल हो जाएगा। कोरोना वायरस के कारण जो व्यवसाय बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं उनमें फिल्म व्यवसाय भी शामिल है। हालात यह है कि अभी भी कोई यह कह सकने की स्थिति में नहीं है कि परिस्थिति कब सुधरेगी।
सिनेमाघर तो खुल गए हैं, लेकिन दिखाने के लिए दमदार फिल्म नहीं है। इंदू की जवानी या सूरज पे मंगल भारी जैसी फिल्मों के बल पर दर्शकों को सिनेमाघर तक नहीं खींचा जा सकता। सूर्यवंशी और 83 के प्रोड्यूसर इसलिए डरे हुए हैं कि उनका मानना है कि अभी दर्शक खुद डरा हुआ है और जान जोखिम में डाल कर फिल्म देखने नहीं आएगा। साथ ही 50 प्रतिशत कैपिसिटी के साथ फिल्म चलाने की इजाजत दी गई है और इस वजह से बड़ी फिल्मों को तगड़ा नुकसान हो सकता है।
कुल मिलाकर स्थिति साफ नहीं है। सितारों की फिल्में नहीं आ रही हैं इसलिए यह कैसे माना जाए कि दर्शक सिनेमाघर नहीं आएंगे? एक-दो बड़ी फिल्म रिलीज कर प्रयोग करना होगा, लेकिन सवाल यही है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा?
जो सिनेमाघर शुरू हो चुके हैं, उनकी हालत खराब है। उंगलियों पर गिनने लायक दर्शक सिनेमाघर पहुंच रहे हैं। ज्यादातर शो दर्शकों के अभाव में रद्द हो रहे हैं। बिजली का खर्चा नहीं निकल पा रहा है। मल्टीप्लेक्स की यह हालत देख सिंगल स्क्रीन वालों ने तो ताला न खोलने में ही भलाई समझी है।
लगभग नौ महीनों में करोड़ों का नुकसान हुआ है। नई फिल्में बन रही हैं, लेकिन वैसी रफ्तार नहीं है। स्थिति ऐसी ही बनी रही तो प्रोड्यूसर भी फिल्म बनाने में डरेंगे। वे भला क्यों करोड़ों रुपये अटकाना चाहेंगे? ओटीटी वालों का कोई भरोसा नहीं, कब पॉलिसी बदल दे। फिल्म लेने से इंकार कर दें। मनचाही रकम नहीं दें।
फिल्म प्रदर्शक, वितरक और फिल्म निर्माता, तीनों बुरे दौर से गुजर रहे हैं और सिवाय अच्छे दिनों के इंतजार के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है।