कुमार गंधर्व ने एक लता-संस्मरण लिखा है।
बरसों पुरानी बात है। वे बीमार थे। वैसी ही दशा में उन्होंने रेडियो लगाया। अचानक एक अद्वितीय स्वर कानों में पड़ा तो चौंक गए। उन्होंने अनुभव किया कि यह एक विशिष्ट स्वर है, ऐसी आवाज़ रोज़ रोज़ सुनने को नहीं मिलती। वे तन्मयता से सुनते रहे। गाना समाप्त होते ही गायिका का नाम घोषित किया गया : लता मंगेशकर।
कुमार ने कहा है : वह नाम सुनते ही मन ही मन मुझे एक संगति पाने का अनुभव हुआ। दीनानाथ मंगेशकर की अजब गायकी का दूसरा स्वरूप उन्हीं की बेटी की कोमल आवाज़ में सुनने का अवसर मिला। कला के क्षेत्र में वैसे चमत्कार कभी-कभी ही दिखते हैं। जैसे विलायत ख़ां साहब अपने सितारवादक पिता से बहुत आगे चले गए, वैसे ही लता हैं।
इसके ठीक सामने मुझे पु.ल.देशपांडे का एक कथन याद आता है।
पु.ल. ने कहा था : सुबह होती है, घर-घर रेडियो बज उठते हैं। कहीं न्यूज़ आती है युद्ध की, तबाही की, राजनीतिक कुंठाओं की, दुर्घटनाओं की, और मन को बार-बार क्षुब्ध कर जाती है। लेकिन तभी अंधकार में उजाले की आहट-सी लता की आवाज़ कहीं से आकर मन के भीतर कहीं बहुत गहरे बैठ जाती है। उस आवाज़ के लिए ज़्यादा दिन जीवित रहने की ललक मन में ज़रूर उठती है।
कुमार और पु.ल. के ये दो लता-संस्मरण यह बताते हैं कि भारत के लिए लता केवल एक महान गायिका ही नहीं है, वो तो वे हैं ही, किंतु बात इससे कहीं अधिक है।
यह सच है कि लता के पास जैसा कंठस्वर है, उसकी कोई दूसरी संगति नहीं है। लता के गान-साम्राज्य की सीमाएं जितने सुदूर देश-प्रांतर तक फैली हुई हैं, वैसा यश भी किसी और के खाते में नहीं आया है। किंतु अपार लोकप्रियता और विलक्षण प्रतिभाएं तो औरों के भी भाग्य में रही हैं। लता नाम की किंवदंती इससे और आगे जाती है।
बात यह है कि भारत के जनमानस पर आधी सदी से भी अधिक समय तक आत्मीय पहचान की जो परिधि लता के स्वर ने बनाई है, उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं है। कि लता की आवाज़ भारत के अंतर्भाव की एक संज्ञा बन गई है। वह भारतीय चेतना और भावबोध से अभिन्न है। और भले ही, औपचारिक विमर्शों में इसे दर्ज नहीं किया जाता हो, मेरा स्पष्ट मत है कि आधुनिक भारत का कोई भी भाव-इतिहास लता मंगेशकर के स्वर-गांभीर्य को शिरोधार्य किए बिना नहीं रचा जा सकता है।
लता ने गाया था ना : मेरी आवाज़ ही पहचान है। मैं इससे आगे बढ़कर कहूंगा : लता की आवाज़ हमारे आज के, कल के, बीते हुए दिनों की पहचान है, हमारे अहसासों की, हमारे सपनों की। लता की आवाज़ ख़ुद हमारी पहचान है।
मैं उस पीढ़ी का आख़िरी वंशज हूं, जिसने टेलीविज़न क्रांति से पहले का दौर देखा है, जब दूरदर्शन पर हर बुधवार को चित्रहार आता था। गीत-संगीत की तृषा मिटाने का इसके अलावा कोई और साधन सर्वसामान्य को सुलभ नहीं था, सिवाय रेडियो और ट्रांजिस्टर के। और यही वह साम्राज्य था, जिसकी लता मंगेशकर एकछत्र सम्राज्ञी थी। यानी मजाल है आप आध घंटे के लिए विविध भारती सुनें और लता-स्वर से आपकी भेंट ना हो जाए।
लता के साथ गाने वाले पुरुष स्वर बदलते रहते। कभी रफ़ी, कभी किशोर, कभी मन्ना, कभी तलत। लता के परिपूरक के रूप में कभी आशा, कभी गीता, कभी सुरैया, कभी सुमन की आवाज़ें भी सुनाई पड़ जातीं। नब्बे के दशक के प्रारंभ की बात करें तो अनुराधाएं और अलकाएं। किंतु जहाज़ के पंछी की तरह रेडियो की सुई बार-बार उस विलक्षण नाद-स्वर पर लौट आतीं, जिसका नाम लता मंगेशकर है। यह केवल एक मधुर आवाज़ ही नहीं है, बल्कि वह भारत के जनमन की एक नियति बन चुकी है।
लता के गायन से बचकर कहां जाइएगा, जहां जाइएगा उन्हें पाइएगा।
यह वही लता-स्वर है, जिसने बड़े ग़ुलाम अली ख़ां जैसे खुर्राट उस्ताद तक को मौन कर दिया था। उनसे यह कहलवा लिया था कि कमबख़्त, एकबारगी भी बेसुरी नहीं होती। अमीरख़ानी गायकी से प्रतिस्पर्धा करने वाले बड़े ख़ां साहब से यह बुलवा लेना बच्चों का खेल नहीं है।
पु.ल.देशपांडे ने अपने उसी लेख में कवि माडगुलकर की कविता जोगिया की इस पंक्ति का स्मरण किया है : स्वर बेल थरथराई खिल गए फूल होंठों पर। पु.ल. ने कहा है कि यह पंक्ति उन्हें लता-गायन की याद दिलाती है।
आकस्मिक नहीं होगा अगर आज लताजी के जन्मदिवस पर हम भी उन्हें इसी पंक्ति के साथ याद करें : स्वर बेल थरथराई खिल गए फूल होंठों पर!
सुरों की गंधर्वकन्या चिरायु हों, उनके संगीत का साम्राज्य अमर रहे, यही शुभेच्छा!