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दीपिका को अमर बना देगी पद्मावत....

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संदीपसिंह सिसोदिया

इतिहास सिर्फ उन्हें याद रखता है जिन्होंने कुछ अलग करने की हिम्मत की है, पद्मावत फिल्म की कहानी भी एक ऐसी ही रानी की गाथा है जो न सिर्फ खूबसूरती का पर्याय बनी बल्कि कालांतर में अपने साहसिक निर्णय से राजपूतों की आन, बान और बलिदान का प्रतीक बन गई। एक ऐसी रानी जो अब देवी का रूप बन गई है। 
 
पद्मावत को लेकर जितने संशय-संदेह आपके मन मे हो उन्हें दूर करने का एक ही तरीका है, पूरी फिल्म देखना। इस फ़िल्म का जितना और जिस पैमाने पर विरोध हुआ है उसे देखते हुए इसके बारे में तरह तरह की शंकाएं मन में आना स्वभाविक थी। इसलिए जैसे ही मौका मिला पद्मावत देखना ठीक समझा। 
 
यह पूरी फिल्म मलिक मोहम्मद जायसी के 1540 में अवधी भाषा के दोहा, चौपाई और छन्द शैली में लिखे गए  प्रसिद्ध महाकाव्य पद्मावत पर आधारित है। फिल्म मेवाड़ की राजपूत महारानी पद्मावती के शौर्य और वीरता की गाथा पर थोड़े बदलाव के साथ बनाई गई है। यह कहानी है अदम्य शौर्य, असीम प्रेम, अविस्मरणीय बलिदान, धूर्त लालसा और सब कुछ हासिल करने की अंतहीन वासना की। 
 
यह फिल्म जहां एक और रतनसिंह और पद्मावती के अद्भुत और दिव्य प्रेम की झलक से सराबोर है वहीं अलाउद्दीन खिलजी की धूर्तता, वासना, लोलुपता और पद्मावती से एक-तरफा इश्क का पागलपन भी समेटे है। इन सब में राजपूती शौर्य, बलिदान और सिद्धांतों का एक आवरण है जो पूरी कहानी को ओढ़े रखता है।  
 
वैसे हर किसी का देखने का नजरिया अलग होता है, बहुत से लोगों के लिए इस फिल्म में कामांध, सत्तालोलुप खिलजी ही छाया रहा, लेकिन भव्यता से परिपूर्ण इस फ़िल्म में मुझे तो सिर्फ पद्मावती ही दिखाई दी। दरअसल यह कहानी अलाउद्दीन खिलजी की तो है ही नहीं, वो तो इस कहानी का सिर्फ खलनायक है। 
 
रणवीर सिंह ने भी खिलजी के रूप में अपने करियर का सबसे बेहतरीन अभिनय किया है। यदि किसी खलनायक से आप घृणा करने पर मजबूर हो जाएं तो इसे अदाकारी के इम्तिहान की सबसे बड़ी सफलता मानी जाएगी। वैसे खलबली गाने में किए नृत्य में खिलजी किसी भी रूप से हिंदुस्तान का सुल्तान नहीं लगता और यह अनावश्यक है। 
 
अंत में महाराज रावल रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी के बीच तलवारबाजी के सीन में रतन सिंह अपने उसूलों, आदर्शों और युद्ध के नियमों का पालन करते हुए खिलजी को निहत्था कर देते हैं, लेकिन धोखे से रतन सिंह को यह कह कर मार डालता है कि जंग का एक ही उसूल होता है, जीत। शाहिद कपूर महारावल के किरदार में उतने प्रभावी नहीं लगे हैं लेकिन कुछ दृश्यों में उन्होंने बेमिसाल अभिनय किया है। 
 
घूमर नृत्य को लेकर भी कई आपत्तियां ली गई थी, उनको अच्छी तरह से समझ कर मर्यादा के साथ एक भव्य नृत्य प्रस्तुत किया है, हालांकि इसमे थोड़ा गुजराती टच नजर आता है। वैसे घूमर सिर्फ महिलाओं द्वारा किया जाने वाला उत्सव है जो कुछ खास मौकों पर किया जाता है।
 
मेवाड़ के गोरा और बादल की वीरता की भी सिर्फ झलक ही मिली है, हालांकि उनकी रणवीरता और स्वामीभक्ति अपने आप में एक अलग कहानी है। इस फिल्म में दीपिका पादुकोण ने पद्मावती को जिस तरह से जिया है उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। 
 
कई फिल्मों के कलाकार उनके निभाए किरदार की छवि में उतर जाते है जैसे अनारकली में मधुबाला, सलीम के रूप में दिलीप कुमार। दीपिका ने जिस तरह से पद्मावती के किरदार को निभाया है उसे देखकर कहा जा सकता है कि अब से जब भी पद्मावती का नाम आएगा उनका चेहरा दीपिका की ही शक्ल में होगा। 

गजब के 3-डी इफेक्ट और फिल्मांकन से लेकर वेशभूषा, बैकग्राउंड संगीत और सबसे प्रभावी दीपिका का अभिनय। उन्होंने अपनी आंखों से कमाल का अभिनय किया है। दीपिका जितनी सुंदर इस फिल्म में लगी हैं उतनी शायद ही कभी लगी हों... उस पर, आईमैक्स में 3-डी इफेक्ट के साथ यह फिल्म देखना, आपको पद्मावत का साक्षी बना देता है।  
पूरी फिल्म में खुशी, तनाव, गर्व, क्रोध और दुख जैसी भावनाएं उमड़ती रहती है और इसका अंत आपके रोंगटे खड़े कर देता है। जौहर के दृश्य को संजय लीला भंसाली ने जिस तरह से फिल्माया है वो आपको हिलाकर रख देता है। इस दृश्य को देखते समय खुद पर काबू रखना बेहद मुश्किल है। 
 
रावल के वीरगति को प्राप्त करने की खबर सुनकर उनके साथ महाप्रयाण को निकलने को आतुर पद्मावती और जय भवानी पुकारती उनकी अनुयायी एक महादृश्य रचती हैं। संजय लीला भंसाली ने जौहर वाले दृश्य को जिस तरह से फिल्माया है वह इस फिल्म को एक अलग ही स्तर पर ले जाता है। 
 
अग्नि स्नान को जाती वीरांगनाओं द्वारा अंगारे फेंक कर खिलजी को रोकने का प्रयास, थोड़े से अंगारों से डरकर खिलजी का पीछे हटना और उसी समय भभकती अग्निकुंड की और जाती नारियों का अथाह प्रवाह... यह सब कुछ हद तक सुन्न कर देता है... आप उस दृश्य की भीषणता को महसूस करने लगते हैं। 
 
अग्निकुंड के प्रचंड ताप को महसूस करते हुए दर्शकों को किले में मारकाट मचाते खिलजियों से भय नहीं लगता, न ही पद्मावती को पा लेने की लालसा में पागलों की तरह भागते खिलजी की ओर ध्यान जाता है... दिखाई देती सिर्फ सुहागनों के श्रृंगार में सजी महिलाओं की आंखें, जो अपनी रानी का अनुकरण करते हुए एक-एक कर धधकती अग्निकुंड में समा जाती हैं। रह जाती है ध्वस्त किले की दीवारों पर उड़ती चिंगारियां.. जो आपके अंदर बहुत कुछ झुलसा देती हैं....
   
पद्मावत के बहाने:  
इस फिल्म के बहाने कुछ लोगों ने राजपूतों के साहस, रणकुशलता और रणसिद्धांतों पर कई सवाल खड़े किए, जैसे- यदि राजपूत वीर थे तो उनकी स्त्रियों को जौहर क्यों करना पड़ा, मौका मिलने पर निहत्थे शत्रु का सिर कलम क्यों नहीं किया, इत्यादि। तो, उन्हें सिर्फ एक बात याद दिलानी चाहिए कि भारतीय संस्कृति जिन मूल्यों से बनी है, वो क्षमा, वीरता और शौर्य के सिद्धांतों पर बनी है।

आमतौर पर कहा जाता है कि हारे हुए को इतिहास भुला देता हैँ लेकिन खिलजी और रावल रतनसिंह के युद्ध को आज भी इतिहास के पन्नों में पद्मावती के जौहर के लिए ही जाना जाता है। अल्लाउद्दीन खिलजी ने भले ही मेवाड़ पर फतह हासिल कर ली हो, परंतु पद्मावती की वो झलक भी न पा सका और आज भी इतिहास में पद्मावती का स्थान खिलजी से कहीं ऊपर है। 
 
इस फिल्म में दिखाए गए जौहर को लेकर भी कई बातें हुईं। कई लोगों ने इसके बजाए स्त्रियों को आक्रांतों के समक्ष समर्पण करने की भी राय दी। विडम्बना है कि प्राचीनकाल से ही युद्ध में स्त्रियां हमेशा से ही निशाने पर रही हैं। उन्हें अक्सर विजेताओं द्वारा भयानक अपमान, बलात्कार और कई यंत्रणाएं भुगतनी पड़ी। इस अपमान और मृत्युतुल्य कष्ट झेलने के बजाए स्वाभिमानी स्त्रियों द्वारा मृत्यु का वरण करना अवश्य ही बहस का विषय हो सकता है, परंतु काल, परिस्थिति के अनुसार लिए गए निर्णय को किसी जाति या समुदाय का कलंक या कमजोरी बताना नितांत निंदनीय है। 
 
कुल मिलाकर एक राजपूत होने के नाते मुझे व्यक्तिगत तौर पर इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं लगा जिससे राजपूत मान-सम्मान पर कोई आंच आए। यह तो राजपूतों, खासतौर पर पद्मावती की शौर्यगाथा है। 

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