भारत में जहाँ हर क्षेत्र में युवा अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं और जिस तरह से वे हरेक क्षेत्र में अपनी पैठ बना रहे हैं, उससे उम्मीद की नई किरण नजर आने लगी है। अगर हम तकनीकी दुनिया से इतर मनोरंजन की दुनिया की बात करें तो यह पौध यहाँ भी अपने जौहर दिखा रही है।
पिछले पाँच सालों में बॉलीवुड का स्वरूप जिस तरह से बदला है, उसमें नई पीढ़ी का हाथ कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। पहले जहाँ मँजे हुए निर्देशक समानान्तर फिल्मों के जरिए दर्शकों को कुछ अलग और उद्देश्यपूर्ण देने की कोशिश करते थे, जिसका कि एक खास वर्ग होता था। वहीं अब उसमें थोड़ा परिवर्तन आया है और आम दर्शकों को मनोरंजन के साथ-साथ ऐसी फिल्में दी जा रही हैं, जिसमें फूहड़ता नहीं, सार्थकता का पुट है। इस दिशा में कदम बढ़ाया है, हमारी नई पीढ़ी ने। डेविड धवन जैसी कॉमेडी देखने वाले दर्शकों को भी एक ही तरह का मसाला देखते-देखते ऊब होने लगी थी, लेकिन अब ऐसा दौर आया है, जहाँ जबरन ठूँसी हुई कॉमेडी की जगह दर्शकों को हास्य का एक स्तरीय मनोरंजन चाहिए और यह पूर्ति हो भी रही है।
अब निर्देशक रंगीनियत के चश्मे से चीजों को दिखाने का प्रयास नहीं करते, जिसमें केवल न्यू यॉर्क और स्वीट्जरलैंड की रूमानियत हो, बल्कि सिग्नल पर रहने वाले उन हजारों भिखमंगों की भी कहानी उसी तत्परता और जिम्मेदारी के साथ दिखाते हैं, बेखौफ कि उसका हश्र क्या होगा। प्यार की कसमें खा-खाकर अपनी जान तक देने वाले आशिकों की फिल्में तो काफी बनीं, लेकिन प्यार केवल इन चंद वादों और कसमों से इतर कुछ और भी है। आज के निर्देशक उन हसीन वादों और सपनों से भी आगे जमीनी हकीकत से भी रू-ब-रू कराते हैं, जहाँ जिंदगी इतनी आसान नहीं होती और दर्शक उसका स्वागत भी कर रहे हैं। चाहे बात राहुल ढोलकिया की 'परजानिया' की हो या फिर अनुराग कश्यप की 'ब्लैक फ्राइडे' की, संवेदनाओं के स्तर पर ये फिल्में जो प्रभाव छोड़ती हैं, वैसा बड़े-बड़े निर्देशक भी नहीं कर पाए। इनके प्रयासों को नकार पाना क्या संभव है? पहले फिल्मों में जहाँ आलीशान कोठे हुआ करते थे, वहीं वे कोठे तंग गलियों में बदल गए, जहाँ जिंदगी नर्क से भी बदतर है। उस मायाजाल से तंग गलियों का सफर आज के फिल्मकार बखूबी कर रहे हैं। उनमें सच दिखाने का माद्दा है, जो समाज के लिए एक शुभ संकेत ही कहा जा सकता है।